अपनी पुस्तक ‘विटनेस टू एन इरअ’ (Witness to an Era: India 1920 to the Present Day) में फ्रैंक मोरेस (Frank Moraes) ने पंडित जवाहर लाल नेहरु की तुलना एक वट वृक्ष से की है.
लेख क के अनुसार महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कई नेताओं को पनपने का अवसर मिला. नेहरु, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसे कई लोग देश के अग्रणी राजनेता बने.
परन्तु फ्रैंक मोरेस के अनुसार नेहरु जी एक वट वृक्ष सामान थे. वट वृक्ष ऐसा वृक्ष होता है जिस की छाँव में एक तिनका भी नहीं उग पाता. नेहरु भी ऐसे ही नेता थे. उनकी अगुआई में कोई नेता उबर कर आगे न आ पाया.
अगर हम नेहरु जी की तुलना अमरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन से करें तो पायेंगे कि जार्ज वाशिंगटन ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि अपने कार्यकाल में वह कोई भी ऐसी प्रथा न स्थापित करें जिससे उस देश में राजशाही का चलन शुरू हो जाए. दो बार चुनाव जितने के बाद जार्ज वाशिंगटन ने यह निर्णय ले लिया कि वह तीसरी बार चुनाव में खड़े ही न होंगे. जार्ज वाशिंगटन के इस निर्णय का अनुकरण करते हुए लगभग एक सौ पचास वर्षों तक कोई भी नेता तीसरी बार चुनाव न लड़ा.
यहाँ इस देश में नेहरु जी तब तक ‘सिंहासन’ पर बैठे रहे जब तक की उनकी मृत्यु न हो गयी.
राजपरिवारों के पनपने की बीज नेहरु काल में बो दिए गए थे. नेहरूजी ने शुरू से ही इंदिरा गांधी के अपने साथ रखा था. इंदिरा गांधी उनकी अनाधिकारिक पर्सनल असिस्टेंट थी. उनके जीवन काल में ही इंदिरा गांधी पहले कांग्रेस वर्किंग समिति की सदस्य बनी, फिर पार्टी अध्यक्ष. संकेत स्पष्ट था. परिवारवाद का बीज बो दिया गया था.
आज यह स्तिथि है कि, कुछ एक नेताओं को छोड़, हर किसी नेता का लक्ष्य होता है कि, राजनीती में रहते ही, अपने बेटे, बेटी, बहु, नाती, रिश्तेदार को
राजनीति में स्थापित कर दिया जाए. यह इच्छा हर एक नेता में पनपती है; वह केंद्र सरकार के मंत्री हो या पंचायत का सदस्य.
क्या कारण है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद इस तरह पनप रहा है.
इस का मूल कारण है हमारी सोच. हर राजनेता, चाहे वह विलायत से पढ़कर (?) आया हो या अमरीका से, यह समझता है कि जिस भी पद पर वह विराजमान है, वह पद उसे किसी अपने को ही विरासत में दे कर जाना है. जब तक वह राजनीति में रहता अपना ध्येय वह कभी भूलता नहीं और उसका हर कदम अपने लक्ष्य की ओर ही जाता है.
दूसरा कारण, सिर्फ राजनीति ही एक ऐसा व्यवसाय है जिस में प्रवेश पाने के लिए प्रार्थी के पास किसी योग्यता का होना अनिवार्य नहीं है. आप अपने आसपास ही देख लें. कितने ऐसे ‘युवराज’ हैं जो आई आई टी की, सिविल सर्विसेज की, पीएमटी या सीपीएमटी की परीक्षा पास कर पाते. शायद यह ‘युवराज’ क्लर्क ग्रेड परीक्षा में भी असफल रहते. पर विरासत में तो सब कुछ मिल जाता है, मंत्री का पद, लोक सभा/ विधान सभा की सदस्यता.
तीसरी कारण, अगर कोई व्यक्ति सरकारी विभाग में चपरासी भी बनना चाहता है तो उसका चाल-चलन अच्छा होना चाहिए, पुलिस में उसका रिकॉर्ड साफ़ होना चाहिए. लेकिन राजनीति में तो वह लोग भी प्रवेश पा लेते हैं जिन के विरुद्ध हत्या या बलात्कार के मामले दर्ज हों. अत: किसी ‘युवराज’ को अपने बालपन या युवाकाल में अपने चाल-चलन की चिंता नहीं करनी पड़ती, गद्दी तो एक दिन विरासत उसे मिल ही जानी है.
हमारे राजनेता किसी का विश्वास नहीं करते, किसी पर उन्हें भरोसा नहीं होता. इस कारण सत्ता में बने रहने के लिए वह सिर्फ अपने सगे-संबंधियों पर ही निर्भर रहते हैं. अगर एक राजनेता के दृष्टिकोण से सोचा जाए तो यह सही भी है. अगर (कंस समान) बेटा बाप को कैद में डाल सकता है तो बाहरी लोगों पर कैसे कोई भरोसा कर ले?
और सबसे महत्वपूर्ण कारण, जितनी सुविधाएं और विशेषाधिकार हमारे देश में एक राजनेता को मिलते हैं उतनी सुविधाएं और विशेषाधिकार शायद राजशाही में राजाओं और राजकुमारों को भी नहीं मिलते. इस देश में कौन ऐसा व्यवसाय है जिसमें प्रवेश पाकार आप उस आन बान से रह सकते हैं जितनी आन बान से हमारे राजनेता रहते हैं?
ऐसा कौन माता-पिता होंगे जो यह न चाहेंगे कि उनके पुत्र-पुत्रियाँ व अन्य सगे-संबंधी भी वही सुख-सुविधाएं भोगें जो वह स्वयं अपने राजनीतिक जीवन में भोगते आयें हैं. सत्ता का नशा किसे अच्छा नहीं लगता. शायद हेनरी किसिंजर ने कहा था, पॉवर इस ध अल्टीमेट ऐफ़्राडिज़िऐक (Power is the ultimate aphrodisiac). हमारे राजनेता और हमारी राजनीति इस बात का जीता जागता प्रमाण है.
परिवारवाद के समर्थक कोई भी तर्क देलें परन्तु सत्य तो यही है कि हर राजनेता किसी न किसी रूप में पुत्र-मोह से ग्रसित ध्रतराष्ट्र ही है.