बेटे ने आकर सूचना दी कि पिछली मार्किट में लगे एसबीआई के एटीएम् में रूपये भरे जा रहे हैं, अभी लाइन छोटी ही है, रूपये लेने हैं तो जाकर लाइन में लग जाएँ. हमने पूछा, क्या तुम्हें रूपये नहीं निकालने? उत्तर मिला, मेरे पास माँ है (अर्थात कार्ड है, पेटीएम् है), समस्या आप जैसे लोगों की है. हम चुपचाप लाइन में लगने चल दिए. पर आँखों के सामने कोई और ही दृश्य था. माँ ने कहा था, पड़ोसन ने बताया है कि बटमालू (उन दिनों हम श्रीनगर में थे) के एक डिपो में मिटटी का तेल आया हुआ है, झटपट दौड़ो और तेल ले कर आओ. हम आठवीं में थे, परीक्षा कुछ दिनों बाद ही शुरू होने वाली थी. पर हम एक प्लास्टिक कनस्तर उठा कर चल पड़ थे. ऐसा नहीं कि बटमालू बगल में था. पर इस बात की चिंता न माँ को थी, न हमें. अपनी मस्ती में चलते, लगभग घंटे बाद, ढूँढते-ढांढते तेल के डिपो पहुंचे. डिपोवाला ने कहा, तेल तो कल आया था और कल ही खत्म हो गया था. हम पूरी तरह हतोत्साहित हो गए थे. हमारी रोनी सूरत देख डिपोवाला बोला, उधर हाई स्कूल के पीछे भी एक डिपो है. वहां आज तेल आयेगा, वहां चले जाओ. हम इस दुविधा में खड़े रहे कि पहले घर जाकर माँ को बताएं या सीधा दूसरे डिपो जाएँ. विचार आया कि तेल तो चाहिए ही, दुबारा इतनी दूर आने के बजाय अभी ही कोशिश कर लेते हैं. हम दूसरे डिपो आ गए. देखा लाइन में करीब तीस-चालीस लोग थे. हिम्मत कर लाइन में लग ही गए. डेढ़-दो घंटे लाइन में लगने के बाद पाँच लीटर तेल ले कर हम ऐसे लौटे जैसे की परीक्षा( जो सर पर ही थी) में प्रथम आये थे. ऐसा एक बार नहीं हुआ था. बीसियों बार तेल की लाइन में लगे हैं (दिल्ली आने के बाद भी). चीनी की लाइन में लग चुके हैं, चावल की लाइन में लग चुके हैं (श्रीनगर में लोग आटा बहुत कम खाते हैं इसलिए आटे की लाइन में नहीं लगना पड़ता था). चीनी की लाइन का भी एक किस्सा है. प्रति सदस्य आठ सौ ग्राम चीनी मिलती थी. दो-तीन प्रयास करने के बाद एक दिन चीनी की लाइन में खड़ा होना भी सार्थक हुआ. पर हमें इस बात का अंदाज़ ही न था की थैले में एक छेद है. हम थैला पकडे इतमीनान से चलते रहे, इस बात से पूरी तरह बेखबर कि चीनी धीरे-धीरे गिरती जा रही थी. घर के निकट पहुँच कर ही हमें इस बात का अहसास हुआ कि थैले में तो आधी ही चीनी बची थी. घर पर माँ ने हमारी कैसे खबर ली इसका ब्यान करना उचित नहीं. रेलवे की टिकट के लिए कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे लाइन में लगे उस पर कई लेख लिखे जा सकते हैं. पर सबसे रोचक किस्से तो लिखे जा सकते हैं भीखाजी कामा प्लेस में स्थित पासपोर्ट ऑफिस के. आप गलत अनुमान लगा रहे हैं, मैंने अपना पासपोर्ट अभी तक नहीं बनवाया, साहस ही नहीं कर पा रहा. अपने बेटों के साथ गया था, उन्हें अपने पासपोर्ट बनवाने थे, मैं सहायता करने के लिए (लाइन में लगने के लिए) साथ गया था. वहां पर अलग-अलग लाइनों में लगने के बाद भी जब काम न बना तो पासपोर्ट अधिकारी से ही उलझना पडा था, दोनों बार. सबसे हास्यास्पद किस्सा तो तब हुआ जब माँ ने करवाचौथ का व्रत रखना था और मुझे जम्मू की एक ख़ास दूकान से सरगी के लिए फेनियाँ लाने को कहा था. तब शायद मैं छट्टी कक्षा में था. दूकान बंद थी और बंद दूकान के बाहर कोई पचास लोग घेराबंदी कर के खड़े थे. मैं फेनियाँ ले ही आया था, पर जैसे लाया था वह अपने आप में एक कहानी है. राहुल जी आश्रय चकित हैं कि हमें अपना ही पैसे लेने के लिए लाइन में लगना पड़ता है. वो बेचारे क्या जाने कि इस देश के नब्बे प्रतिशत से भी अधिक लोग कहीं न कहीं, किसी न किसी लाइन में लग चुके हैं और हरेक कुछ रोचक किस्से उन्हें सुना सकता है. एटीएम् की लाइन धीरे-धीरे बढ़ ही रही है. हमें पूरा विश्वास है कि आज फिर हम परीक्षा में प्रथम आयेंगे.