कुछ दिन पहले गुरुग्राम के एक स्कूल में एक बच्चे की हत्या कर दी गई. इस कांड ने बच्चे के माता-पिता को तो आहत किया ही पर टीवी पर दिखाये गए दृश्यों को देख कर लगा कि कई अन्य माता-पिता भी आहत हुए हैं. वह सब अपने-अपने निरीह स्कूल जाते बच्चों को लेकर चिंतित हैं, भयभीत हैं.
पर मुझे लगता है कि इन लोगों में से अधिकतर की चिंता और भय कृत्रिम है. आप को शायद मेरी बात सही न लगे पर मेरी समझ में हम सब लोग “औरों” के लेकर जितना विरक्त और तटस्थ रहते हैं उतना ही हम अपने बच्चों को लेकर भी बेफिक्र रहते हैं.
सुबह की सैर करते समय मैंने बीसियों बार देखा है कि कई पिता अपने छोटे बच्चों को मोटर-साइकिलों पर बिठा कर, बिना रेड-लाइट की चिंता किये हुए, तेज़ गति से स्कूलों को ओर जा रहे होते हैं. अकसर इन पिताओं ने हेलमेट भी नहीं पहन रखा होता. अब ऐसी स्थिती में जब कोई दुर्घटना घटती है तो जान-लेवा ही होती है. मैंने तो कई बार महिलाओं को भी, ऐसे ही बेफिक्र अंदाज़ में, अपने बच्चों को कारों व स्कूटरों पर स्कूल ले जाते हुए देखा है.
अब जब माता-पिता स्वयं ही इस तरह ट्रैफिक नियमों का उलंघ्घन करते हुए स्कूटर या कार चलाते हैं तो उन बस/टैक्सी/वैन ड्राइवरों से, जो बच्चों को स्कूल बसों, टैक्सियों या वैनों में स्कूल ले जाते हैं, आप किस प्रकार अपेक्षा करते हैं कि वह सब ट्रैफिक नियमों का पालन करेंगे. आप किसी भी चौराहे पर खड़े हो कर देख सकते हैं कि किस तरह यह लोग बच्चों को स्कूल ले जाते हैं या दिन में वापस ले कर आते है.
कितने ही नाबालिग बच्चे सड़कों पर निर्भीकता से स्कूटर, मोटर-साइकिल व कार चलते हुए आपको दिख जायेंगे. एक बार तो मैंने एक ऐसे व्यक्ति को देखा जो कोई दसेक साल को लड़के को स्कूटर चलाना सिखा रहा था. पिता ने हेलमेट न पहन रखा था. बेटे की तो बात ही न पूछिए.
जब हम बड़े ही ट्रैफिक नियमों को लेकर उदासीन हैं तो आप इन बच्चों से क्या उम्मीद रख सकते हैं?
देश में हर एक घंटे में इक्कीस लोग सड़क दुर्घनाओं में मारे जाते हैं. इन दुर्घटनाओं में कई बार स्कूलों से आते-जाते बच्चे भी मारे जाते हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में चार सौ से अधिक बच्चे स्कूल बसों को लेकर हुई सड़क दुर्घनाओं में मारे गए थे. उस वर्ष 15633 बच्चों की अलग-अलग सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु हुई थी. यह संख्या हत्या/शिशु-हत्या वगेरह में मारे जाने वाले बच्चों की संख्या से सात गुणा से भी अधिक है.
पर क्या आप ने किसी माता-पिता को इस बात को लेकर चिंतित देखा है? कितने लोग हैं जो झंडे ले कर सड़कों पर उतरे हैं? कितने लोगों ने शपथ ली है कि वह हर समय ट्रैफिक नियमों का पालन करेंगे और सड़क पर अपना वाहन चलाते समय अपना ही नहीं औरों की सुरक्षा व सुविधा का पूरा ध्यान रखेंगे?
एक बच्चे की निर्मम हत्या को लेकर कुछ लोगों का रोना-धोना मुझे तो बेमानी लगता है. अगर हर दिन बयालीस से अधिक (यह संख्या 2015 की है, आज यह संख्या और भी ज़्यादा होगी) निर्दोष बच्चे सड़क दुर्घटनाओं में मर रहे हैं और हम सब बेफिक्रे, निश्चिन्त बैठे हैं तो कहीं न कहीं हमारी सोच पर प्रश्न चिन्ह लग ही जाता है.