‘आप’ के एक विधायक ने अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिख कर कहा है कि उन्हें
लोगों को बताना चाहिए की हमारा[ अर्थात आम आदमी पार्टी का] विश्वास है की हम
राजनीति को बदल देंगे.
आज से लगभग २५०० वर्ष पहले प्लेटो ने कहा था की जब तक दार्शनिक राजा नहीं
बनते या वह जिन्हें हम राजा मानते हैं दार्शनिक नहीं बन जाते तब तक प्रजा की
मुसीबतों का अंत नहीं हो सकता. प्लेटो के समय से लेकर आज तक कोई विरला ही देश होगा
जहां कोई दार्शनिक राजा बना होगा. राजनीति सदा से सत्ता का खेल रही है और रहेगी.
जो लोग यह समझते है की वह राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में आये हैं वह सिर्फ
एक भ्रम पाल रहे होते हैं. राजनीति सदा एक जैसी होती है बस उसका दिखावा अलग-अलग हो
सकता है.
एक समय था जब गद्दी पाने के लिए एक व्यक्ति हज़ारों लोगों का लहू बहा देता
था. औरंगजेब ने तो अपने सभी भाइयों को मार डाला, अपने पिता को भी कैद में बंद कर
दिया. आज भी ग़रीब ही मरता है. करोड़ों रूपए एक विधायक के चुनाव पर खर्च हो जाते हैं,
इसका बोझ तो आम आदमी ही उठाता है. केजरीवाल सरकार ने अपना प्रचार करने के लिए दिल्ली
सरकार के जो पैसे खर्च किये वह कहाँ से आये? लोगों ने टैक्स भरा तभी वह अपनी छवि
सुधारने के लिए इतना व्यय कर पाए. अधिकतर यह वह लोग हैं जो दो वक्त की रोटी पाने
के लिये और अपना परिवार पालने के लिए हर दिन १२
से १५ घंटे परिश्रम करते हैं. ऐसा कठोर
परिश्रम उन्हें जीवनभर करना पड़ता है.
फिर चुनावों में जो हिंसा होती है उसमें भी तो गरीब ही मरता है. न कोई
राजनेता मरता है न ही कोई अभिजात्य वर्ग का व्यक्ति.
क्या बदल सकते हैं केजरीवाल? क्या वह अपने को बदल पाए हैं? क्या अपने अन्य
नेताओं को बदल पाए हैं? क्या उन में इतनी समझ आ गई है कि आन्दोलन चलाना एक बात
होती है और सरकार चलाना अलग बात? ऐसा लगता तो नहीं है.
जब वह अपने को नहीं बदल पाए तो राजनीति कैसे बदलेंगे? अरविन्द केजरीवाल को समझना होगा कि सत्ता की
अपनी जिम्मेवारियां होती हैं जिन्हें समझ और विवेक के साथ निभाना पड़ता है. जिस
राजनेता के मन में सत्ता जिम्मेवारी का अहसास उपजा नहीं पाती वह राजनेता कभी भी
समाज या संस्थाओं को सही ढंग से नहीं बदल पायेगा.
अगर सत्ता में बैठे लोग संस्थाओं का, नियम कानून का, परम्पराओं का सम्मान
नहीं करते तो धीरे-धीरे समाज का भी इन संस्थाओं और नियमों से विश्वास उठ जाता है.
समाज और संस्थाओं के बदलने के लिए असीम समझ और धैर्य की आवश्यकता होती है क्योंकि
किसी भी ढांचे को एक पल में गिरा देना सरल होता है पर उसके पुनर्निर्माण धीरे-धीरे
ही हो पाता है .
सत्ता किस तरह एक राजनेता को जिम्मेवार और व्यवहारिक बना देती है इसका
उत्कृष्ट उदहारण लिंकन है. अपनी इन्हीं खूबियों के बल पर वह, दास प्रथा समाप्त कर,
अमरीका में एक ऐतिहासिक परिवर्तन ला पाए.
कभी-कभी लगता है कि दिल्ली वालों ने इतनी बड़ी जीत देकर ‘आप’ के साथ अन्याय
ही किया है. ‘आप’ के नेताओं को लगने लगा है की नई दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचना
बहुत ही सरल है इस कारण सब थोड़ा उतावले हो रहे हैं. पर इस देश की राजनीति २०-२० का
क्रिकेट मैच नहीं है. उतावलापन हानिकारक हो सकता है ‘आप’ के लिए. अगर ‘आप’ के नेता
अपने को बदल लेंगे तो राजनीति स्वयं ही बदल जायेगी.