घर
के आँगन में लगा यह पेड़ मुझ से भी पुराना है. मेरे
दादा जी ने जब यह घर बनवाया था, तभी उन्होंने इसे यहाँ आँगन में
लगाया था. मेरा तो इससे जन्म का ही साथ है. यह
मेरा एक अभिन्न मित्र-सा
रहा है.
इसकी
छाँव में मैं खेला हूँ, सुस्ताया
हू, सोया हूँ. इसकी संगत में मैंने जीवन की ऊंच-नीच
देखी है. मेरे हर सुख-दुःख
का साक्षी रहा है. मेरे परिवार का एक अंग-सा
बन चुका है. पर आजकल कभी-कभार सोचता हूँ कि इस पेड़ के बिना
यह घर कैसा लगेगा, मेरा जीवन कैसा होगा. फिर
अपनी सोच ही मुझे कंपा जाती है. भीतर कुछ चुभ जाता है.
जन्म
से मैं हर पल, हर घड़ी बढ़ता रहा हूँ. वैसे
ही जैसे यह पेड़ बढ़ता रहा है. अब
इस पेड़ की शाखाएं आँगन के एक कोने से दूसरे कोने तक घिर आई हैं और आँगन
कहीं छिप सा गया है. घर भी बहु-बेटों, पोते-पोतियों
से भर गया है. मैं पेड़ की ओर देखता हूँ , वह
हंस देता है. पूछता है, “क्या
निर्णय किया है तुमने?”
“क्या
निर्णय करना है मुझे?” मैं चौंक कर पूछता हूँ.
“अब
मेरी कोई ज़रूरत है इस घर में?”
“यह
घर पहले जितना नहीं रहा.”
“यही
तो मैं कह रहा हूँ, यह घर पहले जैसा नहीं रहा.”
हमारे
दोनों के विस्तार ने इस घर
को बौना बना दिया है. एक समय था जब इस घर का अपना एक व्यक्तित्व था, अपनी
एक पहचान थी. समय के बहाव ने इस घर ने कुछ खो दिया है. अब
यह अपने-आप में सिमट कर रह गया है.
अपना
सारा जीवन इस घर में बिताने के बावजूद मुझे इस परिवर्तन का बहुत देर तक अहसास न
हुआ था. फिर
एक दिन मैंने इस पेड़ को अपने पर हँसते हुए पाया और मुझे अनुभव हुआ कि बेटे-बहुओं
का इस बौने घर में दम घुटने लगा है. वह खुली हवा में सांस लेने को
आतुर हैं. कुछ अनबोले प्रश्न हवा में मंडरा रहे हैं.
“इस
पेड़ का कुछ करना होगा?”
“........”
“इसने
हमारे जीवन में एक अवरोध पैदा कर दिया है.”
“.......”
मैं
पेड़ की ओर देखता हूँ और चौंक जाता हूँ. इसका स्वरूप मुझसे कितना मिलता है. भ्रम
होता है कि मैं दर्पण में अपने-आप
को देख रहा हूँ.
पर
यह पेड़ मेरा प्रतिबिम्ब कैसे हो
सकता है?
पेड़
मेरे मन के विचार पढ़ लेता है और मुस्कुरा
देता है.