सुबोध ने उसे कई प्रकार से उसे लुभाने और बहलाने का प्रयास किया था, परन्तु
सफल न हो हुआ था. हार कर और थोड़ा चिढ़ कर वह चिन्नी को रिझाने लगा था. पैसों से जो
ऐश्वर्य वह सुधा के लिए बटोरना चाहता था वह चिन्नी के लिए बटोरने लगा.
चिन्नी सुंदर थी, बुद्धिमान थी. लेकिन सुबोध ने उसके मन में धन व
सुख-सुविधाओं के लिए एक ललक पैदा कर दी थी. बेटी की हर इच्छा पूरी करने को वह आतुर
रहता था. चिन्नी भी आये दिन कोई न कोई मांग पिता के सामने रख देती थी.
‘इस सब का अंत क्या होगा? क्या कभी तुम ने इस पर भी विचार किया है?’ एक दिन
सुधा ने कहा था.
‘अर्थात?’ सुबोध अब खुल कर बहस भी न करना चाहता था. उसने सुधा के विरोध को
स्वीकार कर लिया था और कभी भी अपनी इच्छाओं को उस पर थोपने का प्रयास न किया था.
सुधा भी जीवन के कटु यथार्थ को स्वीकार कर चुकी थी. परन्तु भ्रष्टाचार से उगाही
धन-सम्पत्ति को भोगना उसे स्वीकार न था. इस कारण वह एक सीमित जीवन जीने लगी थी. हर
पल उसके मन में एक कशमकश चलती रहती थी. उसे लगता था कि उसे सुबोध का पूर्णरूप से
विरोध करना चाहिए. कभी-कभी उसका मन उसे धिक्कारता कि उसका नपुंसक विरोध अर्थहीन
था.
‘अर्थात, इतनी धन-सम्पत्ति तुम किस के लिए और क्यों इकट्ठी कर रहे हो?
भ्रष्टाचार से उपजा यह धन क्या कभी हमारा कल्याण कर पायेगा?’
‘अपने विभाग में मैं अकेला नहीं हूँ. ऊपर से नीचे तक सब यही करते हैं. इतना
ही नहीं यह नेता, यह मंत्री सब इसी धन के बल पर राजनीति में टिके हैं और हम सब पर
राज कर रहे हैं.’
‘अगर संसार के सभी लोग भ्रष्ट हो जाएँ तब भी भ्रष्टाचार को सही नहीं ठहराया
जा सकता. गलत बात हर स्थिति में गलत होती है.’
‘कई वर्षों से हम इस विषय पर बहस करते आये हैं. न कभी हम पहले एकमत हुए थे
न आगे होंगे. अच्छा होगा कि तुम ऐसे प्रश्न उठाओ ही नहीं,’ सुबोध ने बात समाप्त
करते हुए कहा. सुधा समझ रही थी कि उसका कुछ कहना निरर्थक ही होगा.
इस बीच सुबोध एक मामले में फंस गया. हुआ यह कि उसके कार्यालय के कुछ लोग
उससे जलने लगे. उन्होंने सतर्कता विभाग के एक अधिकारी से मिलकर सुबोध के विरुद्ध
कार्यवाही करने की साज़िश रची. पैसों का लेन-देन भी हुआ. सुबोध को एक केस में फंसा
दिया गया. वह पूरी तरह डर गया. उसे लगा कि वह सब कुछ खो बैठेगा, कि इतने वर्षों से
सुधा जो कहते आई थी वह सब सच हो जाएगा. विभाग की कार्यवाही से अधिक वह सुधा से डर
रहा था. वह चिंतित था कि अगर सुधा को पता चल गया तो वह अवश्य ही कहेगी कि ऐसा तो
एक दिन होना ही था. वह जानता था कि ऐसी स्थिति में सुधा का सामना करना उसके लिए
असम्भव होगा.
उसने अपने एक मित्र से सहायता मांगी. मित्र ने थोड़ी छानबीन की, बात की तह
तक पहुंचा और कुछ ले-देकर मामला निपटाने का सुझाव दिया. सुबोध ने उसकी सलाह मान
ली. जैसे-तैसे सुबोध ने इस झंझट से झुटकारा पाया, पैसों की उसे परवाह न थी. वह तो
बस बेदाग़ छूटना चाहता था.
छह माह तक वह इस पचड़े में फंसा रहा था. इन छह महीनों का एक-एक पल उसने ऐसे
बिताया था जैसे कि वह उम्र कैद काट रहा हो. इस कैद से छूटते ही उसने दुगनी गति से
पैसे पैसे बनाने शुरू कर दिए थे. सुधा को उसने किसी भी तरह का आभास तक न होने दिया
था.
उधर कॉलेज में पदार्पण करते ही चिन्नी को पंख लग गए थे. पंख नन्हे थे पर
पिता के प्रोत्साहन ने उन नन्हे पंखों में एक उमंग भर दी थी. चिन्नी दूर-दूर तक
उड़ने लगी थी. वह कब घर से जाती, कब आती इसका कॉलेज की उपस्थिति से कोई सम्बन्ध न
रहा. कई बार सुधा को देर रात तक उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती. परन्तु सुबोध को जैसे
इस सब में कुछ भी असामान्य न लग रहा था. उसने न कभी चिन्नी को रोका. न कभी टोका.
उल्टा चिन्नी जब भी, जो भी मांग करती वह पलभर में पूरी कर देता.
सुधा ने एक-दो बार उसे चेताने का प्रयास किया था. परन्तु सुबोध ने जैसे मन
में ठान लिया था कि वह सुधा की किसी बात की ओर ध्यान न देगा.
कभी-कभी सुधा को लगता कि सुबोध सिर्फ उसे प्रताड़ित करने के लिए चिन्नी को
सिर पर चढ़ा रहा था. वह चिन्नी की हर इच्छा पलभर में पूरी करता, शायद यह जताने के
लिए कि यह सब वह अपनी पत्नी के लिए करना चाहता था. सुधा अस्थिर हो जाती. सोचती कि
कहीं उसका हठ चिन्नी के जीवन में उलझन न उत्पन्न कर दे. परन्तु चाह कर भी वह
भ्रष्टाचार से अर्जित सम्पत्ति को भोगने में अपने को असमर्थ पाती. वह धन-सम्पत्ति
उसे ऐसी दलदल समान लगती जिस में फंस कर बाहर निकलने का कोई उपाए न था.
एक रात चिन्नी बहुत देर तक घर न लौटी. सुधा का मन अशांत हो गया. सुबोध कब
का सो चुका था. उसे निश्चिंत सोता देख सुधा की उलझन और बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे
आश्चर्य था की सुबोध अपनी बेटी की जीवनशैली को सामान्य कैसे मान रहा था, जब कि
उन्हें यह भी नहीं पता कि उसके मित्र कौन थे? कैसे थे? माँ को इन सब बातों के विषय
में बताना चिन्नी ने कभी आवश्यक न समझा था. सुधा को कभी-कभी लगता कि वह अपने पति
और बेटी से दूर होती जा रही थी, जैसे पिता-पुत्री ने अपने लिए एक अलग संसार रच
लिया था.
पिता और पुत्री का धन और सुख-सुविधाओं के प्रति आकर्षण जितना बढ़ रहा था उतनी
ही सुधा के मन में उदासीनता बढ़ती जा रही थी.
अचानक फोन की घंटी बजी. सुधा ने घड़ी की ओर देखा. दो बज चुके थे. उसने घबरा कर
फोन उठाया. फोन किसी पुलिस अधिकारी ने किया था. उन्हें तुरंत अस्पताल आने को कहा
था.
‘क्या हुआ है?’ सुधा लगभग चीखती हुई बोली.
‘आपकी बेटी के साथ एक दुर्घटना घट गई है. उसका आपरेशन किया जाना है.’
सुधा ने सुबोध को जगाया. बदहवास से दोनों अस्पताल पहुंचे. एक पुलिस
इंस्पेक्टर से सामना हुआ. उसका चेहरा बेहद सख्त लगा.
‘मुझे अफ़सोस है, आपकी बेटी की मृत्यु हो गयी है.’ इन कठोर और निर्मम शब्दों
ने उनका स्वागत किया.
‘................’ सुधा और सुबोध को कुछ समझ न आया. दोनों ने एक-दूसरे की
ओर देखा. दोनों ओर सिर्फ प्रश्न थे. कोई कुछ कह न पाया. विचारों को शब्दों में
ढालना शायद वह भूल गए थे.
‘हत्यारा पकड़ा गया है.’ कुछ और कठोर शब्दों ने उन्हें घेर लिया.
‘हत्यारा?’ सुबोध को अपनी वाणी निर्जीव व अपरिचित लगी.
‘आपकी बेटी की हत्या हुई है.’ एक थकी सी दृष्टि उन पर डालते हुए इंस्पेक्टर
ने कहा. ‘हत्यारा पकड़ा गया.’
सुधा को लगा जैसे किसी ने उसके मुहं में हाथ ठूंस कर निर्मम अँगुलियों से
उसकी जीभ को जकड़ लिया हो. सुबोध की दशा भी एक पर कटे पक्षी जैसी थी. सुधा ने उसकी
ओर देखा. सुबोध को लगा कि वह पूछ रही हो कि क्या यह सब उसी के साथ होना लिखा था.
सुबोध अपने आप को इतना असहाय पा रहा था कि वह किसी भी प्रश्न का सामना करने की
स्थिति में न था.
चिन्नी का अंतिम संस्कार हो गया. सबने सुविधा और परम्परा अनुसार अपनी
संवेदना प्रकट की. किसी ने सुझाव दिया तो किसी ने थोडा लताड़ा. किसी ने ढांढ़स
बंधाया तो किसी ने भविष्य की ओर इंगित किया.
सुधा को यह शब्द-जाल असहनीय लगा था. परन्तु वह विवश थी. इन बाँझ शब्दों की
बाढ़ में, बिना किसी प्रतिरोध के बह जाने के अतिरिक्त उसके पास कोई उपाये न था.
पुलिस जांच-पड़ताल कर रही थी. मीडिया को अपनी बिक्री बढ़ाने का एक सुअवसर
मिल गया था. हत्या से सम्बंधित हर बात को खूब सज़ा-संवार कर समाचार पत्रों ने और
टी वी चैनलों ने लोगों के सामने प्रस्तुत किया. लोगों की आँखों में एक चमक आ गयी,
‘ऐसी लड़कियां और ऐसे हत्यारे भी हैं इस नगर में? जब लड़कियां रात-रात भर घरों से
बाहर रहेंगी तो और परिणाम क्या हो सकता है?’ ऐसे कई प्रकार के विचार यहाँ-वहां
व्यक्त हुए.
सुधा को भी समाचार पत्रों से ही पूरा विवरण मिला. चिन्नी अपने मित्रों के
साथ एक डिस्को गयी हुई थी. वहीं शरद सेठ अपने मित्रों के साथ आया हुआ था. शरद सेठ
के पिता घनश्याम सेठ के पास अरबों रूपए थे. उस अपार धन-संपदा के बल पर पिता-पुत्र
निरंकुश जीवन जी रहे थे. शरद माता-पिता की इकलौती सन्तान था. इस कारण बड़े
लाड़-प्यार से पला था. शरद की हर गलती, हर शरारत, है अपराध को पिता भूल-चूक मान कर माफ़ कर देते थे. कुछ लोगों ने
दबी आवाज़ में मीडिया को बताया था की शरद शायद तीन हत्यायें पहले भी कर चुका था.
पहली हत्या तब की थी जब स्कूल से निकल कर वह कॉलेज की दहलीज़ पर पहुंचा था.
दो-चार लड़कों में कहा-सुनी हो गयी थी. शरद बीच-बचाव करने आया तो एक लड़के ने गुस्से
में उसका कालर पकड़ लिया था. शरद ने उसके पेट में छुरा घोंप दिया था. पिता ने उसे
उसकी इस मूर्खतापूर्ण हरकत के लिए खूब डांटा था. धन और सम्बन्धों की सहायता से
मामला निपटा दिया गया था. इस हत्या के बाद दो और हत्यायें उसने की थीं. पुलिस उसके
विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में सफल न हुई थी. लोगों का मानना था कि पुलिस की
असफलता का कारण शरद के पिता की शक्ति ही थी.
शरद ने उस रात चिन्नी के साथ कुछ छेड़छाड़ की थी. चिन्नी ने उसे थप्पड़ मार
दिया था. शरद ने अपनी पिस्तौल से चिन्नी के सीने में गोली दाग दी थी.
जिस समय यह घटना घटी उस समय एक पुलिस अधिकारी भी डिस्को में था. पलभर को वह
भूल गया कि वह डिस्को मौज-मस्ती करने आया था. झपट कर उसने शरद की धर-दबौचा. शरद के
साथ ऐसा कभी न हुआ था. आजतक किसी ने उसे छूने तक का साहस न किया था. इस कारण जब
अचानक किसी ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया तो वह भौंचक्का रह गया. चाह कर भी वह
अपने को उस पुलिस अधिकारी की पकड़ से न छुड़ा पाया.
‘क्या हत्यारे को सज़ा मिलेगी?’ सुधा के प्रश्न ने उसे चौंका दिया था. वह
स्वयं भी यही सोच रहा था.
‘क्यों नहीं? हत्यारा पिस्तौल सहित पकड़ा गया है. कितने लोग थे वहां. सबने
देखा, सुना. जिसने उसे पकड़वाया वह स्वयं एक पुलिस अधिकारी है. वह बच कैसे सकता है?’ सुबोध ने ऐसे कहा जैसे अपने आप
को आश्वस्त कर रहा हो.
‘क्या तुम सच में ऐसा मानते हो?’
‘क्यों नहीं?’ सुबोध लगभग चीखते हुए बोला.
‘तुम्हें नहीं लगता कि यहाँ सब कुछ बिकाऊ है. पुलिस बिकाऊ है, वकील बिकाऊं
हैं, गवाह बिकाऊं हैं.’
‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ सुबोध उसका तर्क सुन कर हड़बड़ा गया था वह जानता
था किया जो कुछ सुधा कह रही थी वह सच था.
‘तुमने ही कितना बार पैसे लेकर कितने उलटे-सीधे मामले निपटाए हैं,’ सुधा की
वाणी बर्फ समान ठंडी थी.
‘तुम हर बार वही बात लेकर क्यों बैठ जाती हो,’ सुबोध अपने आप से डर रहा था.
‘तुमने भी तो लोगों को फांसने के लिए कई बार जाल बुना होगा. तुम्हें नहीं
लगता कि ऐसा ही कुछ यहाँ भी हो सकता है.’
‘क्या कहना चाहती हो तुम?’ सुबोध का स्वर लड़खड़ा गया.
‘घनश्याम सेठ के लिए पुलिस और गवाहों को खरीदना बाएं हाथ का खेल होगा. कुछ
लोग तो अपने आपको सौभाग्यशाली मान रहे होंगे, पैसा बनाने का ऐसे स्वर्णिम अवसर
बार-बार कहाँ आते हैं.’
सुबोध के पास कोई उत्तर न था. वह उठ खड़ा हुआ. उसने अपने-आप को समझाया कि
यह एक अलग स्थिति थी. सारे प्रमाण हत्यारे के विरुद्ध थे. चाह कर भी वह क्या कर
पायेगा. उसके लिए सज़ा से बच पाना कठिन होगा, शायद असम्भव होगा. उसने मन ही मन सुधा
को कोसा जिसने उसके सामने उलटे-सीधे प्रश्न रख कर उसे विचलित कर दिया था.
अनचाहे ही, वर्षों बाद सुबोध को बचपन की एक घटना याद आ गयी. बारह वर्ष का
रहा होगा तब. वह मामा के घर गया हुआ था. मामा के घर के पीछे एक खुला मैदान था. एक
दिन उस मैदान में अकेले ही मटरगश्ती कर रहा था. कुछ दूर उसे एक कठफोड़वा दिखाई दिया
था. बिना कुछ सोचे-समझे उसने उस पक्षी की ओर एक पत्थर फैंका था. इधर पत्थर हाथ से
छूटा उधर पक्षी उड़ा. तभी एक अनहोनी घटी थी. पत्थर उड़ते हुए पक्षी से जा टकराया था.
एक पके फल समान पक्षी नीचे धरती पर आ गिरा था. सुबोध भौंचक्का रह गया था. उसने
कल्पना भी न की थी कि वह इतना सटीक निशाना लगा सकता था. उसे विश्वास ही न हुआ था
कि पत्थर पक्षी को जा लगा था. कुछ पल वह पत्थर की मूरत समान अपनी जगह खड़ा रहा था.
फिर थोड़ा सहमा, थोड़ा घबराया वह कठफोड़वे के पास आया था. ज़मीन पर पड़ा पक्षी तड़प रहा
था. मन में एक टीस उठी थी. उसने पक्षी को छूना चाहा था, उसके दर्द को कम करना चाहा
था. पर वह कुछ भी न कर पाया था. अगली सुबह उसने उस अभागे पक्षी को वहीं मरा पाया
था. उसे अपने-आप पर बहुत गुस्सा आया था. उसकी मूर्खता के कारण एक निर्दोष पक्षी ने
अपनी जान गवां दी थी.
न जाने क्यों सुबोध को इतने समय के बाद उस घटना की याद आई. लगा कि मन के
भीतर दबी एक टीस बाहर निकलने को छटपटा रही थी.
अदालत में सुनवाई शुरू हुई. जिस पुलिस अधिकारी ने हत्यारे को धर-दबौचा था
वह मुख्य गवाह था. उसने अदालत को बताया कि घटना वाली रात वह किसी आवश्यक कार्य से
सुल्तानपुर गया हुआ था. उसने कहा कि उसे आश्चर्य इस बात से था कि उसका नाम इस
मामले से कैसे जुड़ गया क्योंकि जिस समय यह घटना घटी थी उस समय वह घटना स्थल से
सैंकड़ों मील दूर था. अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए उसने कार्यालय द्वारा जारी
किया हुआ वह आदेश दिखाया जिसके अंतर्गत वह सुल्तानपुर गया था.
सरकारी वकील ने बड़ी तीखी जिरह की. जिरह के बाद पूरी तरह प्रमाणित हो गया कि
वह अधिकारी न तो हत्या के विषय में कुछ जानता था न ही उसने हत्यारे को पकड़वाने
में कोई भूमिका निभायी थी.
अदालत की कार्यवाही धीरे-धीरे आगे बड़ी. एक के बाद एक गवाह आये. किसी ने कहा
कि उसने कोई हत्या होते नहीं देखी, किसी ने कहा कि अभियुक्त शायद उस समय डिस्को
में नहीं था, किसी ने कहा कि एक नहीं तीन-चार गोलियां चलीं थीं. अभियुक्त की ओर से
कहा गया कि उस समय वह शिमला के एक अस्पताल में अपना इलाज करवा रहा था, वहां कुछ
उल्टा-सुलटा खाने से बीमार पड़ गया था. अस्पताल का पूरा रिकॉर्ड उसने प्रस्तुत किया
था.
सुधा उठ कर अदालत से बाहर आ गई. एक आक्रोश था जो भीतर उबल रहता. सुबोध भी
उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया.
‘सब बिक चुके हैं,’ अनायास ही उसके मुंह से निकला. सुधा ने भावहीन आँखों से
उस की ओर देखा.
‘सब बिक चुके हैं,’
वह चिल्लाया.
‘क्या तुम न जानते
थे कि ऐसा ही होने वाला था? वर्षों तक तुम अपने को बेचते रहे, कभी रुपयों के लिए,
कभी हीरों के हार के लिए, कभी गाड़ी के लिए, कभी विदेश यात्रा के लिए. वर्षों तक,
मेरी बातों की अवहेलना कर, तुम घनश्याम सेठ जैसे लोगों के हाथ बिकते रहे. आज तुम
क्रोधित हो सिर्फ इस बात को लेकर कि कुछ और लोग अपने-आप को बेच रहे हैं. तुम्हारी
बेटी के हत्यारे ने उन्हें खरीद लिया है.’ सुधा पर जैसे पागलपन छा गया और वह
चिल्लाई, ‘वह साफ़ छूट जाएगा और तुम देखते रह जाओगे. परन्तु आज तुम किस अधिकार से
क्रोधित हो रहे हो. तुम में और उन में अंतर ही क्या है, बताओ मुझे.’
सुबोध को लगा कि वह एक ऐसा पक्षी है जो अचानक किसी पत्थर से टकरा, धरती पर आ गिरा है. पर वह जानता था कि वह उस कठफोड़वे के सामान निर्दोष न था जिस कठफोड़वे की मृत्यु उसकी मूर्खता के कारण हुई थी.
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©आइ बी अरोड़ा