क्या कल आपने किसी मीडिया चैनल पर या किसी समाचार पत्र
में छतिसिंहपोरा नरसंहार के विषय में एक
शब्द भी सुना या पढ़ा?
क्या किसी ह्यूमन-राइट्स वाले को इस नरसंहार की बात करते
सुना?
वह लोग जो आज़ादी के नारे लगाते है या वह नेता जो उनके
समर्थन में खड़े हो जाते हैं या वह जो आये दिन नक्सालियों के लिए आवाज़ उठाते हैं या
वह जो फर्जी मुठभेड़ों के लेकर न्यायालयों और ह्यूमन-राइट्स कमीशन के दरवाज़े बार-बार
खटखटाते हैं, इनमें से किसी को भी आपने इस नरसंहार में मारे गये लोगों के और उनके
अभागे परिवारों के लिए अपने संवेदना प्रकट करते सुना?
किसी ने दिखावटी संवेदना भी प्रकट नहीं की.
शायद इस लेख के अधिकतर पाठक भी न जानते होंगे कि 20 मार्च 2000 के
दिन कश्मीर के एक गाँव में 35
सिखों को आतंकवादियों ने
घेर कर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी. जिनकी हत्या की गई उन में किशोर भी थे और वृद्ध भी.
वैसे कश्मीर में हत्याओं का सिलसिला तो बहुत पहले शुरू
हो गया था. कश्मीरी हिन्दुओं की निर्मम हत्याओं के साथ ही जिहाद की शुरुआत हुई थी.
पर छतिसिंहपोरा नरसंहार एक बहुत ही वीभत्स
कांड था, जिसकी न कोई जांच हुई और न ही किसी दोषी को सज़ा मिली.
पर खेद तो इस बात का है कि मीडिया और बुद्दिजीवी और सोशल
एक्टिविस्ट और कलाकार और राजनेता जो दुनिया भर में इस बात का ढिंढोरा पीटते हैं की
वह मानवाधिकारों के लिए भारत में एक जंग लड़ रहे हैं वह सब छतिसिंहपोरा नरसंहार को लेकर कितने तटस्थ हैं.
दुर्भाग्य है इस देश का कि ऐसा फर्ज़ी मीडिया और ऐसे
फर्ज़ी बुद्दिजीवी यहाँ कितनी सरलता से सफल हो रहे हैं. दोष तो हमारा भी है. हम इस
बात को स्वीकार करें या न करें, ऐसे सब नरसंहारों के लिए हम भी थोड़े-बहुत दोषी
हैं, क्योंकी हम ने कभी किसी को उत्तरदायी नहीं समझा, चाहे वह सरकार हो या मीडिया
या फर्ज़ी बुद्धिजीवी.