गुजरात की मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया है. उनका कहना है कि वह शीघ्र
ही ७५ वर्ष की हो जायेंगी. अत: वह अपनी ज़िम्मेवारियों से मुक्त होना चाहती हैं.
उनकी जगह किसी कम उम्र के राजनेता को मुख्यमंत्री का पद सम्भालना चाहिये. अगले
चुनाव तक नए मुख्यमंत्री को उचित समय मिलना चाहिये ताकि वह पार्टी का ठीक से नेतृत्व
कर पाए.
मीडिया और विश्लेषकों की जो प्रतिक्रिया हुई है उससे ऐसा लगता है कि इस
त्यागपत्र का असली कारण कुछ और है.
हो सकता है कि मीडिया और विश्लेषकों का संदेह सही हो. पर आज हम ऐसी स्थिति
में आ चुके हैं कि हम किसी भी राजनेता की किसी बात को सत्य नहीं मानते. आज लगभग हर
राजनेता की विश्वसनीयता न के बराबर है. लोगों को न तो उनके कथन पर कोई विश्वास है
और न ही उनके वायदों पर.
ऐसी स्थिति के लिए राजनेता स्वयं ही जिम्मेवार हैं.
पिछले ७० वर्षों में कोई विरला ही राजनेता रहा होगा जो अपनी इच्छा से
सक्रिय राजनीति से पूरी तरह अलग हुआ होगा. अधिकतर राजनेता तब तक राजनीति में
सक्रिय रहे जब तक उनके जीवन की डोर टूट न
गई (पंडित नेहरु, एम जी आर, मुफ़्ती सईद वगेरा ऐसे कुछ नाम आपको स्मरण होंगे) या जब
तक की लोगों ने उन्हें नकार नहीं दिया.
ऐसे कई नेता थे, और आज भी हैं, जिन्हें लोगों ने तो नकार दिया पर उन्हें उनकी
पार्टियों ने बैकडोर से राजनीति में बनाये रखा. वह राज्यसभा के सदस्य बनाये गये,
राज्यसभा के लिए मनोनीत कर दिए गए, राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किये गए.
हर नेता का प्रयास रहा है की राजनीति में रहते-रहते अपने परिवार के किसी सदस्य
को अपना उत्तराधिकारी बना दे. लोकसभा में कांग्रेस के कई सदस्य राजनीतिक परिवारों
से है. दूसरी पार्टियों में भी ऐसे कई सदस्य हैं जो राजनीतिक परिवारों से हैं. सपा
के सभी सदस्य परिवार के हैं.
नीति या विचारधारा की चिंता किये बिना, सत्ता के लिए, जिस तरह पार्टियाँ एक
दूसरे के साथ गठबंधन करती रही हैं उस पर तो अब कोई चर्चा भी नहीं होती. स्थिति तो
यहाँ तक आ पहुंची है कि एक ओर दो पार्टियाँ केंद्र में सत्ता के लिए एक साथ खड़ी
होती हैं तो दूसरी ओर किसी राज्य में सत्ता पाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ. ऐसे
में लोग किस का और किस पर विश्वास करें.
एक तरह से देखा जाये तो विचारधारा हमारी राजनीति में एक बे मायने शब्द बन चूका है. हर पार्टी और हर नेता की एक
ही विचारधारा है, किसी भी भांति सत्ता पाना और सता पा कर सत्ता में बने रहना.
ऐसे में कौन विश्वास करेगा कि आनंदीबेन अपनी इच्छा से सत्ता का त्याग कर
रही हैं.