सारा दिन वह अपने-आप को किसी न किसी बात में व्यस्त रखता था; पुराने टूटे हुए खिलौनों
में, पेंसिल के छोटे से टुकड़े में, एक मैले से आधे कंचे में या एक फटी हुई फुटबाल
में. लेकिन शाम होते वह अधीर हो जाता था.
लगभग हर दिन सूर्यास्त के बाद वह छत पार आ जाता था और घर से थोड़ी दूर आती-जाती
रेलगाड़ियों को देखता रहता था.
“क्या पापा वो गाड़ी चला रहे हैं?”
“शायद,” माँ की आवाज़ बिलकुल दबी सी होती.
“आज पापा घर आयेंगे?” हर बार यह प्रश्न माँ को डरा जाता था.
“नहीं.”
“कल?”
“नहीं.”
“अगले महीने?”
“शायद?”
“वह कब से घर नहीं आये. सबके पापा हर दिन घर आते हैं.”
“वह ट्रेन ड्राईवर हैं और ट्रेन तो हर दिन चलती है.”
“फिर भी.”
माँ ने अपने लड़के की और देखा, वह मुरझा सा गया था. उसकी आँखें शायद भरी हुई थीं. माँ
भी अपने आंसू न रोक पाई.
‘मैं कब तक इसे सत्य से बचा कर रखूँगी?’ मन में उठते इस प्रश्न का माँ सामना नहीं कर
सकती थी. इस प्रश्न को माँ ने मन में ही दबा दिया.