नया साल आया है,
क्या दाल रोटी लाया है !
या ख़ाली हाथ आया है .
नहीं तो नया क्या पाया है .
जनवरी की पहले पल के लम्हों की गूंज मैं
हम शामिल नहीं है इस तड़क भड़क के रूप में .
एक सनाटा है काटता है सर्दी का कहर
कब बदलेगा हमारे जीवन से शोषण का असर .
हमारी दिनचर्या क्या तारीखों और दिनों का हिसाब रखे
या पेट की आग बुझाने , तन ढकने का कोई जुगाड़ करे .
सर के लिए एक छत बनाने और अगले दिन में काम की तलाश
कल भी था , कल भी रहेगा , कहाँ ढूंढें नवीनता का अहसास .
ये क्यों नही खुशियों में शामिल हो रहे हैं नए वर्ष की रंग रैलियों में
तारीखें और साल बदले पर हम तो उलझते रहे मिट्टी के रेलों में ,
हमारे शोषण के निर्माता आज भी हमें उल्लास से रख रहे हैं वंचिंत
उदासी की काली बस्तियों में गंदे नाले की खुशबु से हम संचित .
नयी तारीख हमें नए सपनों से जोड़ कर करती हैं ऐलान
कट्ठे हों विश्व के शोषित, करें एक जागरूक जंग का आह्वान .
दिन नहीं बदलते हैं ,इनकों बदलने के लिए मजबूर करना पड़ता है
शोषण खत्म नहीं होता, आम आवाम का रक्त बहाकर उखाड़ना पड़ता है .
आओ ! एक ऐसा नया सवेरा को तराश, किरणों से लहरायें
वहीं जहाँ एक मानव दूसरे इन्सान का शोषण न कर पाएं .
अलविदा दो हज़ार सतरह ! हमें तो चलना ही है, चलते ही जायेंगे
आप गुजरा पल रह कर ,आज से नया सवेरा को तरस जायेंगे .
=================अभय======
---समझें और सामझाएं ------
पहल करें ------पहिये का रुख बदलने का
मुश्किल है -------------नामुमकिन तो नही
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