जिस ईमान ने ,जिस राजनीती ने और जिस अत्याचारियों ने जो ऐसा किया और हम चुपचाप देखते तमाशा देखते रहे --------------धत है ऐसे बहादुरों पर जो अपने बल से निर्बल को हताहत कर जिंगदी का उल्लास मचाते हैं ------ कैसे कहदूँ ----मेरा देस महान -------------
======अभय=============== -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- ---समझें और सामझाएं ------
पहल करें ------पहिये का रुख बदलने का
मुश्किल है -------------नामुमकिन तो नही
जागो, मेरे भाई जागो
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हरियाणा में हिसार के मिर्चपुर गांव में रह रहे दलितों पर एक बार फिर हमला हुआ है. स्थानीय पुलिस के मुताबिक़, "बच्चों के बीच हुई कहासुनी से बात बढ़ गई और दोनों पक्ष भिड़ गए."
नारनौद थाने के एसएचओ ने बीबीसी को बताया, "मेडिकल रिपोर्ट के मुताबिक़ नौ लोग घायल हैं. सभी घायल दलित समुदाय से हैं. हमने एससी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया है."
उन्होंने बताया कि पीड़ित बड़े अधिकारियों के सामने अपनी बात रखने के लिए हिसार गए हैं.
लेकिन मिर्चपुर के दलितों का पूरा मामला है क्या, जानने के लिए पढ़ें ये रिपोर्ट. पत्रकार संजीव चंदन ने कुछ ही दिन पहले वहां जाकर दलितों के हालात पर ये रिपोर्ट भेजी थी.
क्या दलित सिर्फ़ चुनावी मुद्दा भर हैं? क्या दलित उत्पीड़न के ख़िलाफ़ समाज की संवेदनाएं अस्थायी होती हैं और घटना दर घटना एक उबाल लेकर शांत हो जाती है?
ये सवाल हैं मिर्चपुर के विस्थापित परिवारों में से एक व्यक्ति का, जो पीडितों में एक मात्र एमए (एजुकेशन) और एमफ़िल है.
वर्ष 2010 की 21 अप्रैल को मिर्चपुर के वाल्मीकि परिवारों पर गांव के ही जाटों ने हमला किया था, उनके कई घरों को जला दिया गया था, दो लोगों की हत्या हुई थी और कई घायल हो गए थे. उस वक्त अश्विनी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एमफ़िल कर रहे थे, उसके बाद से उनके बीच से अब तक कोई उच्च शिक्षा तक नहीं जा सका.
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विस्थापित लोगों का दर्द
उन दिनों वाल्मीकि परिवार के ये लोग काफ़ी दहशत में थे. इनपर हमले के दोषियों की जब गिरफ़्तारी हुई तो हिसार की दर्जनों खाप पंचायतों ने सरकार को दोषियों की रिहाई की चेतावनी दी.
इसके बाद ही पीड़ितों के बहिष्कार का भी सिलसिला शुरू हुआ. अमूमन भूमिहीन और सफाई करके या खेतों में काम करके जीविका चलाने वाले इन लोगों को काम देने से भी मना किया जाने लगा.
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'दलित से ईसाई बन गए लेकिन भेदभाव जारी'
गाँव और पास की दुकानों ने भी इन्हें सामान देने से इनकार कर दिया. मजबूरन गाँव के 150 से भी ज़्यादा वाल्मीकि परिवार गाँव छोड़ कर दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर में रहने को मजबूर हो गए. उसके बाद हिसार के ही वेदपाल तंवर ने इन्हें अपने फ़ार्म हाउस में जगह दी, तब से वे वहीं रह रहे हैं.
सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष
गाँव छोड़ने के बाद भी दबंगों ने इन्हें चैन से नहीं रहने दिया. इनपर लगातार दवाब बनाया जाता रहा कि वे मुक़दमा वापस लें, मुक़दमे की पैरवी न करें और गवाही न दें.
अदालत के आदेश से गवाहों को सुरक्षा दी गई. तंवर फ़ार्म हाउस में बमुश्किल जीवन यापन कर रहे लगभग 120 परिवारों में से कम से कम 50 को पुलिस सुरक्षा दी गई है. इनकी सुरक्षा में तैनात हरियाणा पुलिस का जवान भी इनके साथ ही रहता है, उसके खाने-पीने की ज़िम्मेदारी भी आम तौर पर इन लोगों की ही है.
झुग्गियां डालकर रह रहे इन लोगों को शौच के लिए पास के खेतों में जाना पड़ता है.
गाँव से विस्थापित हैं, इसलिए कोर्ट के आदेश के बावजूद इन्हें मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिलता.
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बड़ी मशक्क़त से बीपीएल योजनाओं के तहत इन्हें राशन देने की ज़िम्मेदारी तंवर फ़ार्म हाउस के पास की एक सरकारी राशन दुकान को दी गई है. शुरू-शुरू में पास के सरकारी स्कूलों ने भी इनका नामांकन देने से अलिखित तौर पर मना कर दिया था-लेकिन अब कुछ बच्चे पास के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं.
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आज भी डराता है गाँव, चाहते हैं पुनर्वास
तंवर फ़ार्म हाउस में झुग्गियां डालकर रह रही महिलाओं का एक समूह बताता है कि अब उस गाँव में क्या रखा है, आज भी वहाँ के लोग डराते हैं. महिलाएं बताती हैं कि उस गाँव में आज भी 40-50 वाल्मीकि परिवार रहता है, लेकिन गाँव के जाटों ने उनका बहिष्कार जारी रखा है.
घटना के समय के ख़ौफ़ को याद कर सुनीता कहती हैं, "हम अब उस गाँव में नहीं जा सकते हैं, सरकार हमें हिसार में ही कोई जगह देकर बसाए."
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इन्हें अपने फ़ार्म हाउस में जगह देनेवाले वेदपाल तंवर कहते हैं, "इनके साथ अत्याचार कांग्रेस की हुड्डा सरकार के समय में हुआ था. वह जाटों के लिए जाटों की सरकार थी, इस मामले में अभियुक्त जाट थे. इसलिए सरकार ने इनसे ज़्यादा मदद जाटों की. इन्होंने वोट बीजेपी को दिया, लेकिन बीजेपी की सरकार भी इनकी समस्या पर ध्यान नहीं दे रही है. दलितों की राजनीति की दावेदारी करने वाली मायावती ने इन्हें समय देकर भी इनसे मिलना उचित नहीं समझा."