उन्माद का अर्थ है - उत +माद अर्थात ज़ब किसी के लिए हमारी भावनाएं/ नशा / क्रेज अपने चरम पर पहुंच जाये ऐसी अवस्था का उन्माद कहा जाता है। बात अगर धार्मिक उन्माद की करे तो यह अनुचित भी है और उचित भी।
अनुचित इसलिए है क्योंकि धर्म भावनाओं / इन्द्रियों को नियंत्रित करने की बात कहता है हम धर्म के नाम पर भावनाओं मे बहकर तथा इन्द्रियों के वशीभुत होकर खून खराबा/ हिंसा को तत्पर हो उठते है अगर किसी ने हमारे धर्म के बारे मे कुछ गलत कहा या हमारे सम्प्रदाय के विरुद्ध या सम्प्रदाय के प्रति हमारे द्वारा बनाई गई रीति रिवाजो, परम्पराओं और विचारों के विरुद्ध जाता है तो हम धार्मिक उन्माद की अवस्था मे पहुंच जाते है जिससे हमारे अंदर हिंसात्मक प्रवृत्ति जाग जाती है और उस उन्माद के अवस्था मे हमें उचित अनुचित, ज्ञान अज्ञान के फर्क समझ नहीं आता है हमारा क्रोध और अहंकार जागृत हो उठता है। ऐसी उन्मादता अज्ञान के कारण होती है हमारे भीतर छुपा अधर्मी भावो का परिणाम होता है और उस अधर्मी भावों को हम इस तरह के धार्मिक पागलपन और सनक मिजाज से छुपाने का प्रयास करते है।
अगर मनुष्य धर्म का वास्तविक अर्थ समझ लेता है फिर ये उन्माद और पागलपन एक सकरात्मक दिशा मे जागृत हो उठता है। धर्म का अर्थ है अपने आत्मस्वरूप को जानना और उस परमपिता परमात्मा मे विलीन होना। वास्तविक धर्म का संबंध तो केवल आत्मा और परमात्मा के बीच मे होता है अगर इस बात को समझते हुए ईश्वर प्राप्ति के लिए अगर हमारी भावनाएं उन्मादित हो उठती है ईश्वर को पाने के लिए अपने सांसारिक विकृत भावनाओं और इन्द्रिय सुखो को छोड़ने का उन्माद जागृत हो उठती है हर हाल मे परमात्मा के दर्शन के लिए आत्म नियंत्रण का उन्माद आ जाता है तो यह उन्माद अनुचित नहीं होता क्योंकि इसमें केवल जीव और परमात्मा होता है तीसरा अन्य कोई नहीं। अन्य किसी से कोई लेना देना नहीं रहता है ना ही सुख देने के लिए ना दुख देने के लिए ना ही सीखने के लिए ना ही सिखाने के लिए।
धर्म के नाम पर दंगे फ़साद, वाद विवाद, हत्याएं - कत्ल यह मूर्खता है अज्ञान है। स्वामी विवेकानंद जी कहते है की " धर्म के बारे मे केवल उसे ही बात करने / राय देने / विचार बनाने का अधिकार है जिसने धर्म को महसूस किया है जिसने धर्म को जाना है इसके अतिरिक्त अन्य किसी को भी धर्म के संबंध मे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। " जिन्होंने धर्म को जाना है महसूस किया है वो धर्म के लिए कभी एक दूसरे से लड़ते नहीं है हिंसा नहीं करते है खून नहीं बहाते है वो मंदिर, मस्जिद, चर्च और गिरजाघरों के लिए लड़ते नहीं है बल्कि वो इंसान को धर्म को महसूस करने करने के लिए कहते है क्योंकि जिस दिन मनुष्यों ने वास्तविक धर्म को जान लिया उस दिन ये लड़ाईयाँ स्वतः ही समाप्त हो जाएंगी।
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