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प्रेमजोगिनी

26 जनवरी 2022

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प्रेमजोगिनीं ।। नाटिका ।।
श्रीहरिश्चन्द्रलिखिता

नान्दी मंगलपाठ करता है-
भरित नेह नवनीर नित बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब धन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।।
और भी-
जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत जंजाल।
जयतु सदा सो ग्रंथ कवि प्रेमजोगिनी बाल ।।
(मलिन मुख किए सूत्रधार और पारिपाश्र्वक आते हैं)
सू : (नेत्रों से आँसू पोंछ और ठंडी साँस भरकर) हा! कैसे ईश्वर पर विश्वास आवै।
पा : मित्र आज तुह्मैं क्या हो गया है और क्या बकते हो और इतने उदास क्यों हो।
(नेत्रों से जल की धारा बहती है और रोकने से भी नहीं रुकती)
पा : (अपने गले में सूत्रधार को लगाकर और आँसू पोंछकर) मित्र आज तुह्मै हो क्या गया है? यह क्या सूझी है? क्या आज लोगों को यही तमाशा दिखाओगे।
सू : हो क्या गया है क्या मैं झूठ कहता हूँ-इस्से बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कत्र्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे यदि कोई हो तब न उठे हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिन्धु उसको नहीं कहते? क्या माता पिता के सामने पुत्र की स्त्री के सामने पति की और बन्धुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है। क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसके इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं, केवल प्राण मात्र नहीं त्याग करते पर उनकी सब गति हो जाती है, क्या इस कमलवनरूप भारत भूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर चंगेज खाँ जैसे ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भारतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गए? हा! (आँसू बहते हैं लोग कहते हैं कि ये यह उसके खेल हैं। छिः ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?)
पा : इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो दुःख रूप आप ही है इसमें सुख का तो केवल आभास मात्र है।
सू : आभासमात्र है तो-फिर किसने यह बखेड़ा बनाने कहा था और पचड़ा फैलाने कहा था, उस पर भी न्याव करने और कृपालु बनने का दावा (आँख भर आती है)।
पा : आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हौ कि नाटक खेलने आए हौ?
सू : क्या नाटक खेलैं क्या न खेलैं ले इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बन्धु पिता मित्र पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सत्य का एक मात्र आश्रय, सौजन्य का एकमात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिन्दी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो (नेत्रों में जल भर कर) हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही भी ‘दुख हो उसे सुख ही मानना’ लोभ के परित्याग के समय नाम और कीत्र्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रख कर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है। तुझे इनसे क्या, प्रेमी लोग जो-तैरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेंगे (नेत्रों से आँसू गिरते हैं) मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार, और अपना उपकार दोनों भूल जाते हौ तुम्हैं इनकी निन्दा से क्या इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हौ स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहैंगे और तुम लोक बहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रख के बिहार करोगे, क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए-”कहैंगे सबैं ही नैन नीर भरिभरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी“ मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ है; हा! बड़ा विपरीत समय है (नेत्रों से आँसू बहते हैं)।
पा : मित्र, जो तुम कहते हौ सो सब सत्य है पर काल भी तो बड़ा प्रबल है। कालानुसार कम्र्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता।
सू : हाँ न चलै तो हम लोग काल के अनुसार चलैंगे,-कुछ वह लोकोत्तर चरित्र थोड़े ही काल के अनुसार चलैगा।
पा : पर उसका परिणाम क्या होगा?
सू : क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।
पा : तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं?
सू : तो ये सब सभासद तो उसके मित्र वर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं है उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है ये क्यौं न इन बातों को आनन्दपूव्र्वक सुनैंगे।
पा : परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलैगा न। देखो ये हिंदी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं इन्हें कोई खेल दिखाओ।
सू : आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्र में मगन है आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।
पा : तो उनके चरित्र के अनुरूप ही कोई नाटक करो।
सू : ऐसा कौन नाटक है यों तो सभी नायकों के चरित्र किसी किसी विषय में उससे मिलते हैं पर आनुपूव्र्वी चरित्र कैसे मिलैगा।
पा : मित्र मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो क्योंकि! उसके नायक चारुदत्त का चरित्रमात्र इनसे सब मिलता है केवल बसन्तसेना और राजा की हानि है।
स : तो फिर भी आनुपूव्र्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने इनका जी भी न लगैगा कोई नया खेलैं।
पा : (स्मरण करके) हाँ हाँ वह नाटक खेलौ जो तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे,-वह उनके और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है उसके खेलने से लोगों का वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई पुरानी, दोनों रीति मिलके बना है।
सू : हाँ हाँ प्रेमजोगिनी-अच्छी सुरत पड़ी-तो चलो यों ही सही इसी बहाने उसका स्मरण करैं।
पा : चलो ।। (दोनों जाते हैं)
अद्ध्र्र जवनिका पतन
।। इति प्रस्तावना ।। 

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रचनाएँ
प्रेमजोगिनी
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यह संसार तो दुःख रूप आप ही है इसमें सुख का तो केवल आभास मात्र है। ... कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही भी 'दुख हो उसे सुख ही मानना' लोभ के परित्याग के समय नाम और कीत्र्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है।
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प्रेमजोगिनी

26 जनवरी 2022
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प्रेमजोगिनीं ।। नाटिका ।। श्रीहरिश्चन्द्रलिखिता नान्दी मंगलपाठ करता है- भरित नेह नवनीर नित बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब धन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।। और भी- जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत जंजाल। जय

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प्रथम अंक

26 जनवरी 2022
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पहिले गर्भांक के पात्र टेकचंद : एक महाजन बनिये छक्कूजी : ऐ माखनदास : वैष्णव बनियाँ धनदास  बनितादास  मिश्र : कीर्तन करने वाला झापटिया : कोड़ा मारकर मंदिर की भीड़ हटाने वाला जलघरिया : पानी भरने

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दूसरा गर्भांक

26 जनवरी 2022
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दूसरे गर्भांक के पात्र दलाल गंगापुत्र तीर्थस्थ ब्राह्मण भंडेरिया लिंगिया दुकानदार सुधाकर रामचंद (नाटक के नायक) का मुसाहब झूरी सिंह बदमाश परदेसी स्थान-गैबी, पेड़, कुआं, पास बावली (दलाल, गंगापु

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तीसरा गर्भांक

26 जनवरी 2022
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स्थान-मुगलसराय का स्टेशन (मिठाई वाले, खिलौने वाले, कुली और चपरासी इधर उधर फिरते हैं।  सुधाकर एक विदेशी पंडित और दलाल बैठे हैं) द : (बैठ के पान लगाता है) या दाता राम! कोई भगवान से भेंट कराना। वि. प

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चतुर्थ गर्भांक : ।। प्रथम अंक ।।

26 जनवरी 2022
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स्थान-बुभुक्षित दीक्षित की बैठक (बुभुक्षित दीक्षित, गप्प पंडित, रामभट्ट, गोपालशास्त्री, चंबूभट्ट, माधव शास्त्री आदि लोग पान बीड़ा खाते और भाँग बूटी की तजबीज करते बैठे हैं;  इतने में महाश कोतवाल अर्थ

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