पहिले गर्भांक के पात्र
टेकचंद : एक महाजन बनिये
छक्कूजी : ऐ
माखनदास : वैष्णव बनियाँ
धनदास
बनितादास
मिश्र : कीर्तन करने वाला
झापटिया : कोड़ा मारकर मंदिर की भीड़ हटाने वाला
जलघरिया : पानी भरने वाला
बालमुकुन्द
मलजी
रामचन्द्र : नायक
दो गुजराती
पहिला गर्भांक
स्थान - मंदिर का चौक
(झपटिया इधर उधर घूम रहा है)
झ : आज अभी कोई दरसनी परसनी नाहीं आयें और कहाँ तक अभहिंन तक मिसरो नहीं आयें अभहीं तक नींद न खुली होइहै। खुलै कहाँ से आधी रात तक बाबू किहाँ बैठ के ही ही ठी ठी करा चाहैं फिर सबेरे नींद कैसे खुलै।
(दोहर माथे में लपेटे आँखें मलते मिश्र आते हैं-देखकर)
झ : का हो मिसिरजी तोरी नींद नहीं खुलती देखो शंखनाद होय गवा मुखिया जी खोजत रहे।
मि : चले त्तो आई थे; अधियै रात के शंखनाद होय तो हम का करै तोरे तरह से हमहू के घर में से निकस के मंदिर में घुस आवना होता तो हमहू जल्दी अउते। हियाँ तो दारानगर से आवना पड़त है। अबहीं सुरजौ नाहीं उगे।
झ : भाई सेवा बड़ी कठिन है, लोहे का चना चबाए के पड़थै, फोकटै थोरे होथी।
मि : भवा चलो अपना काम देखो। (बैठ गया)
(स्नान किये तिलक लगाये दो गुजराती आते हैं)
पहिला : मिसिरजी जय श्रीकृष्ण कहो का समय है।
मि : अच्छी समय है मंगला की आधी समय है बैठो।
प : अच्छा मथुरादास जी वैसी जाओ। (बैठते हैं)
(धोती ओढ़े छक्कूजी आते हैं और उसी बेस से माखनदास भी आये)
छ : (माखनदास की ओर देखकर) काहो माखनदास एहर आवो।
मा : (आगे बढ़कर हाथ जोड़कर) जै सी किष्ण साहब।
छ : जै श्रीकृष्ण बैठो कहो आलकल बाबू रामचंद का क्या हाल है।
मा : हाल जौन है, तौन आप जनतै हौ, दिन दूना रात चौ गूना। अभईं कल्हौ हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा। बस रात दिन हा हा ठी ठी बहुत भवा दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन बस होय चुका।
छ : अरे कवित्त तो इनके बापौ बनावत रहे कवित्त बनावै से का होथै और कवित्त बनावना कुछ अपने लोगन का काम थोरै हय ई भाँटन का काम है।
मा : ई तो हुई है पर उन्हैं तो अैसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है और मैं पंडित थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।
छ : पढ़िन का है पढ़ा वढ़ा कुछ भी नहिनी, एहर ओहर की दुइ चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कर्तें अबहीं कल के लड़का हैं।
मा : और का।
(बालमुकुन्द औ मलजी आते हैं)
दोनों : (छक्कू की ओर देखकर) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब।
छ : जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो कहो नहाय आयो।
बा : जी भय्या जी का तो नेम है कि बडे़ सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आज कल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ तिस पर भी देर हो जाती है रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रक्खा है इससे बिध बिध मिलाते देर हो जाती है फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू बालू कुर्ते बारह कभी एक बजते हैं।
छ : अच्छी है जो निबही जाय कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं!
बा : क्यों जाते क्यों नहीं अब की दोनों भाई जाते हैं कभी दोनों साथ कभी आगे पीछे कभी इनके साथ मसाल कभी उनके मुझको अकशर करके जब मैं जाता हूँ तब वह नहाकर आते रहते हैं।
छ : मसाल काहे ले जाथै मेहरारुन का मुँह देखै के?
बा : (हँसकर) यह मैं नहीं कह सकता।
छ : कहो मलजी आज फूलघर में नाहीं गयो हिंअई बैठ गयो?
म : आज देर हो गई दर्शन करके जाऊँगा।
छ : तोरे हियाँ ठाकुर जी जागे होहिहैं कि नाहीं?
म : जागे तो न होंगे पर अब तैयारी होगी मेरे हियाँ तो स्त्रिाये जगाकर मंगल भोग धर देती है। फिर जब मैं दर्शन करके जाता हूँ तो भोग सरासर आरती कत्र्ता हूँ।
छ : कहो तोसे रामचंद्र से बोलाचाली है कि नाहीं?
म : बोलचाल तो मैं पर अब यह बात नहीं है आगे तो दर्शन करने का सब उत्सवों पर बुलावा आता था अब नहीं आता तिस्में बड़े साहब तो ठीक ठीक, छोटे चित्त के बड़े खोटे हैं।
(नेपथ्य में)
गरम जल की गागर लाओ।
झ : (गली की ओर देखकर जोर से) अरे कौन जलघरिया है एतनी देर भई अभहीं तोरे गागर लिआवै को बखत नाहीं भई?
(सड़सी से गरम जल की गगरी उठाये सनिया लपेटे जलघरिया आता है।)
झ : कहो जगेसर ई नाहीं कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।
ज : अरे चल्ले तो आवथई का भहराय पड़ीं का सुत्तल थोड़े रहली हमहूँ के झापट कंधे पर रख के एहर ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)
(मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए)
टे : (मथुरादास की ओर देखकर) कहो मथुरादास जी रूडा छो?
म : हाँ साहब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए। हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत्त से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छपन भोग में बडे़ आनंद हुए।
टे : भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। येक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दूसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक ओका सब इन्तजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब है और कौन सुख तो भाई साहब श्री गिरिराज जी महाराज के आगे जो देखा है सो अब सपने में भी नहीं है। अहा! वह श्री गोविंदराय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।
(धनदास और बनितादास आते हैं)
ध : कहो यार का तिगथौ?
व : भाई साहेब, थोड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंच्छी नजर नाहीं आया।
ध : भाई साहेब, अपने तो ऊ पच्छी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।
ब : तोहरे सिद्धांत से भाई साहेब काम तो नहीं चलता।
ध : तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाए हौ जे में पलक बाजी खूब चले, हाँ एक पलक एहरो।
ब : (हँसकर) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।
ध : तो भला महाराज के कबौं समर्पन किए हौ कि नाहीं?
ब : कौन चीज?
ध : अरे कोई चौकाली ठुल्ली मावड़ी पामरी ठोली अपने घरवाली।
ब : अरे भाई गोसाँइयन पर तो ससुरी सब आपै भइराई पड़ थीं पवित्र होवै के वास्ते, हमका पहुँचौबे।
ध : गुरु इन सबन का भाग बड़ा तेज है, मालो लूटै मेहररुवो लूटैं।
ब : भाई साहब, बड़ेन का नाम बेचथैं और इन सबन में कौन लच्छन हैं, न पढ़ना जानैं न लिखना, रात दिन हा हा ठी ठी यै है कि और कुछ?
ध : और गुरु इनके बदौलत चार जीवन के और चौन है एक तो भट दूसरे इनके सरबस खबा तिसरे बिरकत और चौथी बाई।
ब : कुछ कहै की बात नाहीं है। भाई मंदिर में रहै से स्वर्ग में रहै। खाए के अच्छा पहिरै के परसादी से महाराज कव्वौ गाढ़ा तो पहिरबै न करियैं, मलमल नागपुरी ढाँकै पहिरियैं, अतरै फुलेल केसर परसादी बीड़ा चाभो सब से सेवकी ल्यौ, ऊपर से ऊ बात का सुख अलगै है।
ध : क्या कहैं भाई साहब हमरो जनम हियँई होता।
ब : अरे गुरु गली गली तो मेहरारू मारी फिरथीं तौहें एहू पर रोनै बना है। अब तो मेहरारू टके सेर हैं। अच्छे अच्छे अमीरनौ के घर की तो पैसा के वास्ते हाथ फैलावत फिरथीं।
ध : तो गुरु हम तो ऊ तार चाही थै जहाँ से उलटा हमैं कुछ मिलै।
ब : भाग होय तो ऐसिसो मिल जायँ। देखो लाड़लीप्रसाद के और बच्चू के ऊ नागरानी और बम्हनिया मिली हैं कि नाहीं!
ध : गुरु, हियों तो चाहे मूड़ मुड़ाये हो चाहे मुँह में एक्को दाँत न होय पताली खोल होय, पर जो हथफेर दे सो काम की।
ब : तोहरी हमारी राय ई बात में न मिलिये।
(रामचन्द्र ठीक इन दोनों के पीछे का किवाड़ खोलकर आता है)
छ : (धीरे से मुँह बना के) ई आएँ। (सब लोगों से जय श्री कृष्ण होती है)।
बा : (रामचंद्र को अपने पास बैठाकर) कहिए बाबू साहब आजकल तो आप मिलते ही नहीं क्या खबगी रहती है?
रा : भला आप ऐसे मित्र से कोई खफा हो सकता है? यह आप कैसी बात करते हैं?
बा : कार्तिक नहाना होता है न?
रा : (हँसकर) इसमें भी कोई सन्देह है!
बा : हँहँहँ फिर आप तो जो काम करैंगे एक तजबीज के साथ ऐं।
(रामचन्द्र का हाथ पकड़ के हँसता है)
रा : भाई ये दोनों (धनदास और बनितादास को दिखाकर) बड़े दुष्ट हैं। मैं किवाड़ी के पीछे खड़ा सुनता था। घंटों से ये स्त्रियों ही की बात करते थे।
बा : यह भवसागर है। इसमें कोई कुछ बात करता है, कोई कुछ बात करता है। आप इन बातों का कहाँ तक खयाल कीजिएगा ऐं! कहिए कचहरी जाते हैं कि नहीं?
रा : जाते हैं कभी कभी-जी नहीं लगता, मुफत की बेगार और फिर हमारा हरिदास बाबू का साथ कुकुर झौंझो, हुज्जते-बंगाल माथा खाली कर डालते हैं। खांव खांव करके, थूँथ थूँथ के, बीभत्स रस के आलंबन, सूर्यनंदन-
बा : (हँसकर) उपमा आप ने बहुत अच्छी दिया और कहिए और अंधरी मजिसटरों का क्या हाल है?
रा : हाल क्या है सब अपने अपने रंग में मस्त हैं। काशी परसाद अपना कोठीवाली ही में लिखते हैं सहजादे साहब तीन घंटे में इक सतर लिखते हैं उसमें भी सैंकड़ों गलती। लक्ष्मीसिंह और शिवसिंह अच्छा काम करते हैं और अच्छा प्रयागलाल भी करते हैं, पर वह पुलिस के शत्रु हैं। और विष्णुदास बड़े बवददपदह बींच हैं। दीवानराम हुई नहीं, बाकी रहे फिजिशियन सो वे तो अँगरेज ही हैं, पर भाई कई मूर्खों को बड़ा अभिमान हो गया है, बात बात में तपाक दिखाते और छः महीने को भेज दूँगा कहते हैं।
बा : मैं कनम चाप नहीं समझा।
रा : कनिंग चौप माने कुटीचर!
(नेपथ्य में)
श्री गोविंदराय जी की श्री मंगला खुली (सब दौड़ते हैं)
(परदा गिरता है)
इति मंदिरादर्श नामक प्रथम गर्भांक