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संभोग से समाधि की ओर (चौथा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021

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मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटा सा गांव था। उस गांव के स्कूल में शिक्षक राम की कथा पढ़ाता था। करीब-करीब सारे बच्चे सोए हुए थे। राम की कथा सुनते समय बच्चे सो जाएं, यह आश्चर्य नहीं। क्योंकि राम की कथा सुनते समय बूढ़े भी सोते हैं। इतनी बार सुनी जा चुकी है जो बात, उसे जाग कर सुनने का कोई अर्थ भी नहीं रह जाता। बच्चे सोए थे। और शिक्षक भी पढ़ा रहा था, लेकिन कोई भी उसे देखता तो कह सकता था वह भी सोया हुआ पढ़ाता है। उसे राम की कथा कंठस्थ थी। किताब सामने खुली थी, लेकिन किताब पढ़ने की उसे जरूरत न थी। उसे सब याद था, वह यंत्र की भांति कहे जाता था। शायद ही उसे पता हो कि वह क्या कह रहा है। तोतों को पता नहीं होता कि वे क्या कह रहे हैं। जिन्होंने शब्दों को कंठस्थ कर लिया है, उन्हें भी पता नहीं होता कि वे क्या कह रहे हैं।

और तभी अचानक एक सनसनी दौड़ गई कक्षा में। अचानक ही स्कूल का निरीक्षक आ गया था। वह कमरे के भीतर गया। बच्चे सजग होकर बैठ गए। शिक्षक भी सजग होकर पढ़ाने लगा। उस निरीक्षक ने कहा कि मैं कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगा। और चूंकि राम की कथा पढ़ाई जाती है, इसलिए राम से संबंधित ही कोई प्रश्न पूछूं। उसने बच्चों से एक सीधी सी बात पूछी। उसने पूछा कि शिव का धनुष किसने तोड़ा था?

उसने सोचा कि बच्चों को तोड़-फोड़ की बात बहुत याद रह जाती है, उन्हें जरूर याद होगा कि किसने शिव का धनुष तोड़ा था। लेकिन इसके पहले कि कोई बोले, एक बच्चे ने हाथ हिलाया और खड़े होकर कहा कि क्षमा करिए, मुझे पता नहीं कि किसने तोड़ा था। एक बात निश्चित है कि मैं पंद्रह दिन से छुट्टी पर था, मैंने नहीं तोड़ा है। और इसके पहले कि मेरे पर कोई इलजाम लग जाए, मैं पहले ही साफ कर देना चाहता हूं कि धनुष का मुझे कोई पता ही नहीं है। क्योंकि जब भी इस स्कूल में कोई चीज टूटती है तो सबसे पहले मेरे ऊपर दोषारोपण आता है, इसलिए मैं निवेदन किए देता हूं।

निरीक्षक तो हैरान रह गया। उसने सोचा भी न था कि कोई यह उत्तर देगा। उसने शिक्षक की तरफ देखा। शिक्षक अपना बेंत निकाल रहा था और उसने कहा कि जरूर इसी बदमाश ने तोड़ा होगा। इसकी हमेशा की आदत है। और अगर तूने नहीं तोड़ा था तो तूने खड़े होकर क्यों कहा कि मैंने नहीं तोड़ा है? और उसने इंसपेक्टर से कहा, आप इसकी बातों में मत आएं, यह लड़का शरारती है। और स्कूल में सौ चीजें टूटें तो निन्यानबे यही तोड़ता है।

तब तो वह निरीक्षक और हैरान हो गया। फिर उसने कुछ भी वहां कहना उचित न समझा। वह सीधा प्रधान अध्यापक के पास गया। जाकर उसने कहा कि यह-यह घटना घटी है। राम की कथा पढ़ाई जाती थी जिस कक्षा में, उसमें मैंने पूछा कि शिव का धनुष किसने तोड़ा था? तो एक बच्चे ने कहा कि मैंने नहीं तोड़ा, मैं पंद्रह दिन से छुट्टी पर था। यहां तक भी गनीमत थी। लेकिन शिक्षक ने यह कहा कि जरूर इसी ने तोड़ा होगा, जब भी कोई चीज टूटती है तो यही जिम्मेवार होता है। इसके संबंध में क्या किया जाए?


उस प्रधान अध्यापक ने कहा, इस संबंध में एक ही बात की जा सकती है कि अब बात को आगे न बढ़ाया जाए। क्योंकि लड़कों से कुछ भी कहना खतरा मोल लेना है, किसी भी क्षण हड़ताल हो सकती है, अनशन हो सकता है। अब जिसने भी तोड़ा हो, तोड़ा होगा। आप कृपा करें और बात बंद करें। कोई दो महीने से शांति चल रही है स्कूल में, उसको भंग करने की कोशिश मत करें। न मालूम कितना फर्नीचर तोड़ डाला है लड़कों ने, हम चुपचाप देखते रहते हैं। स्कूल की दीवालें टूट रही हैं, हम चुपचाप देखते रहते हैं। क्योंकि कुछ भी बोलना खतरनाक है, हड़ताल हो सकती है, अनशन हो सकता है। इसलिए चुपचाप देखने के सिवाय कोई मार्ग नहीं।


वह इंसपेक्टर तो अवाक! वह तो आंखें फाड़े रह गया! अब कुछ कहने का उपाय न था। वह वहां से सीधा, स्कूल की जो शिक्षा समिति थी, उसके अध्यक्ष के पास गया। और उसने जाकर कहा कि यह हालत है स्कूल की! राम की कथा पढ़ाई जाती है, वहां बच्चा कहता है कि मैंने शिव का धनुष नहीं तोड़ा, शिक्षक कहता है इसी ने तोड़ा होगा, प्रधान अध्यापक कहता है कि जिसने भी तोड़ा हो, बात को रफा-दफा कर दें, शांत कर दें। इसे आगे बढ़ाना ठीक नहीं, हड़ताल हो सकती है। आप क्या कहते हैं?


उस अध्यक्ष ने कहा कि ठीक ही कहता है प्रधान अध्यापक। किसी ने भी तोड़ा हो, हम ठीक करवा देंगे समिति की तरफ से। आप फर्नीचर वाले के यहां भिजवा दें और ठीक करवा लें। इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं कि किसने तोड़ा। सुधरवाने का उपाय होगा, आपको सुधरवाने की जरूरत है और क्या करना है!


वह स्कूल का इंसपेक्टर मुझसे यह सारी बात कहता था। वह मुझसे पूछने लगा कि क्या स्थिति है यह?


मैंने उससे कहा, इसमें कुछ बड़ी स्थिति नहीं है। मनुष्य की एक सामान्य कमजोरी है, वही इस कहानी में प्रकट होती है। और वह कमजोरी क्या है? वह कमजोरी यह है कि जिस संबंध में हम कुछ भी नहीं जानते हैं, उस संबंध में भी हम ऐसी घोषणा करना चाहते हैं कि हम जानते हैं। वे कोई भी कुछ नहीं जानते थे कि शिव का धनुष क्या है? क्या उचित न होता कि वे कह देते कि हमें पता नहीं है कि शिव का धनुष क्या है। लेकिन अपना अज्ञान कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता है।


और मनुष्य-जाति के इतिहास में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं घटी है कि हम अपना अज्ञान स्वीकार करने को राजी नहीं होते। जीवन के किसी भी प्रश्न के संबंध में कोई भी आदमी इतनी हिम्मत और साहस नहीं दिखा पाता कि मुझे पता नहीं है। यह कमजोरी बहुत घातक सिद्ध होती है। सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है। और चूंकि हम यह मान कर बैठ जाते हैं कि हम जानते हैं, इसलिए जो उत्तर हम देते हैं वे इतने ही मूढ़तापूर्ण होते हैं, जितने उस स्कूल में दिए गए थे–बच्चे से लेकर अध्यक्ष तक। जिसका हमें पता नहीं है, उसका उत्तर देने की कोशिश सिवाय मूढ़ता के और कहीं भी नहीं ले जाएगी।


फिर यह तो हो भी सकता है कि शिव का धनुष किसने तोड़ा या नहीं तोड़ा, इससे जीवन का कोई गहरा संबंध नहीं है। लेकिन जिन प्रश्नों के जीवन से बहुत गहरे संबंध हैं, जिनके आधार पर सारा जीवन सुंदर बनेगा या कुरूप हो जाएगा, स्वस्थ बनेगा या विक्षिप्त हो जाएगा; जिनके आधार पर जीवन की सारी गति और दिशा निर्भर है, उन प्रश्नों के संबंध में भी हम यह भाव दिखलाने की कोशिश करते हैं कि हम जानते हैं। और फिर जो हम जीवन में उत्तर देते हैं वे बता देते हैं कि हम कितना जानते हैं। एक-एक आदमी की जिंदगी बता रही है कि हम जिंदगी के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं। अन्यथा इतनी असफलता, इतनी निराशा, इतना दुख, इतनी चिंता!


यही बात मैं सेक्स के संबंध में भी आपसे कहना चाहता हूं हम कुछ भी नहीं जानते हैं।


आप बहुत हैरान होंगे। आप कहेंगे, हम यह मान सकते हैं कि ईश्वर के संबंध में कुछ नहीं जानते, आत्मा के संबंध में कुछ नहीं जानते; लेकिन हम यह कैसे मान सकते हैं कि हम काम के, यौन के और सेक्स के संबंध में कुछ नहीं जानते? सबूत है–हमारे बच्चे पैदा हुए हैं, पत्नी है–हम सेक्स के संबंध में नहीं जानते हैं!


लेकिन मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं–यह बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन इसे समझ लेना जरूरी है–आप सेक्स के अनुभव से गुजरे होंगे, लेकिन सेक्स के संबंध में आप उतना ही जानते हैं जितना छोटा सा बच्चा जानता है, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं जानते। अनुभव से गुजर जाना जान लेने के लिए पर्याप्त नहीं है।


एक आदमी कार चलाता है, वह कार चलाना जानता है और हो सकता है हजारों मील कार चला कर वह आ गया हो। लेकिन इससे यह कोई मतलब नहीं होता कि वह कार के भीतर के यंत्र और मशीन और उसकी व्यवस्था, उसके काम करने के ढंग के संबंध में कुछ भी जानता हो। वह कह सकता है कि मैं हजार मील चल कर आया हूं कार से–मैं नहीं जानता हूं कार के संबंध में? लेकिन कार चलाना एक ऊपरी बात है और कार की पूरी आंतरिक व्यवस्था को जानना बिलकुल दूसरी बात है।


एक आदमी बटन दबाता है और बिजली जल जाती है। वह आदमी यह कह सकता है कि मैं बिजली के संबंध में सब जानता हूं। क्योंकि मैं बटन दबाता हूं और बिजली जल जाती है, बटन दबाता हूं बिजली बुझ जाती है। मैंने हजार दफा बिजली जलाई और बुझाई, इसलिए मैं बिजली के संबंध में सब जानता हूं। हम कहेंगे वह पागल है। बटन दबाना और बिजली जला लेना और बुझा लेना बच्चे भी कर सकते हैं, इसके लिए बिजली के ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं है।


बच्चे कोई भी पैदा कर सकता है। सेक्स को जानने से इसका कोई संबंध नहीं। शादी कोई भी कर सकता है। पशु भी बच्चे पैदा कर रहे हैं। लेकिन वे सेक्स के संबंध में कुछ जानते हैं, इस भ्रम में पड़ने का कोई कारण नहीं। सच तो यह है कि सेक्स का कोई विज्ञान ही विकसित नहीं हो सका, सेक्स का कोई शास्त्र ठीक से विकसित नहीं हो सका, क्योंकि हर आदमी यह मानता है कि हम जानते हैं! शास्त्र की जरूरत क्या है? विज्ञान की जरूरत क्या है?


और मैं आपसे कहता हूं कि इससे बड़े दुर्भाग्य की और कोई बात नहीं है। क्योंकि जिस दिन सेक्स का पूरा शास्त्र और पूरा विचार और पूरा विज्ञान विकसित होगा, उस दिन हम बिलकुल नये तरह के आदमी को पैदा करने में समर्थ हो सकते हैं। फिर यह कुरूप और यह अपंग मनुष्यता पैदा करने की जरूरत नहीं है। ये रुग्ण और रोते हुए और उदास आदमी पैदा करने की जरूरत नहीं है। ये पाप और अपराध से भरी हुई संतति को जन्म देने की जरूरत नहीं है।


लेकिन हमें कुछ भी पता नहीं है! हम सिर्फ बटन दबाना और बुझाना जानते हैं और उसी से हमने समझ लिया है कि हम बिजली के जानकार हो गए हैं। सेक्स के संबंध में पूरी जिंदगी बीत जाने के बाद भी आदमी इतना ही जानता है–बटन दबाना और बुझाना। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं! लेकिन चूंकि यह भ्रम है कि हम सब जानते हैं, इसलिए इस संबंध में कोई शोध, कोई खोज, कोई विचार, कोई चिंतन का कोई उपाय नहीं है। और इसी भ्रम के कारण कि हम सब जानते हैं, हम किसी से न कभी कोई बात करते हैं, न विचार करते हैं, न सोचते हैं! क्योंकि जब सभी को सब पता है तो जरूरत क्या है?


और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन में और जगत में सेक्स से बड़ा न कोई रहस्य है और न कोई गुप्त और गहरी बात है। अभी हमने अणु को खोज निकाला है। जिस दिन हम सेक्स के अणु को भी पूरी तरह जान सकेंगे, उस दिन मनुष्य-जाति ज्ञान के एक बिलकुल नये जगत में प्रविष्ट हो जाएगी। अभी हमने पदार्थ की थोड़ी-बहुत खोज-बीन की है और दुनिया कहां से कहां पहुंच गई। जिस दिन हम चेतना के जन्म की प्रक्रिया और कीमिया को समझ लेंगे, उस दिन हम मनुष्य को कहां से कहां पहुंचा देंगे, इसको आज कहना कठिन है। लेकिन एक बात निश्चित कही जा सकती है कि काम की शक्ति और काम की प्रक्रिया जीवन और जगत में सर्वाधिक रहस्यपूर्ण, सर्वाधिक गहरी, सबसे ज्यादा मूल्यवान बात है। और उसके संबंध में हम बिलकुल चुप हैं। जो सर्वाधिक मूल्यवान है, उसके संबंध में कोई बात भी नहीं की जाती है। आदमी जीवन भर संभोग से गुजरता है और अंत तक भी नहीं जान पाता कि क्या था संभोग।


तो जब मैंने पहले दिन आपसे कहा कि शून्य का, अहंकार-शून्यता का, विचार-शून्यता का अनुभव होगा, तो अनेक मित्रों को यह बात अनहोनी, आश्चर्यजनक लगी है। एक मित्र ने लौटते हुए मुझे कहा, यह तो हमें खयाल में भी न था, लेकिन ऐसा हुआ है।


एक बहन ने आज मुझे आकर कहा, लेकिन मुझे तो इसका कोई अनुभव नहीं है। आप कहते हैं तो इतना मुझे खयाल आता है कि मन थोड़ा शांत और मौन होता है, लेकिन मुझे अहंकार-शून्यता का या किसी और गहरे अनुभव का कोई भी पता नहीं।


हो सकता है अनेकों को इस संबंध में विचार मन में उठा हो। उस संबंध में थोड़ी सी बातें और गहराई में स्पष्ट कर लेनी जरूरी हैं।


पहली बात, मनुष्य जन्म के साथ ही संभोग के पूरे विज्ञान को जानता हुआ पैदा नहीं होता है। शायद पृथ्वी पर बहुत थोड़े से लोग, अनेक जीवन के अनुभव के बाद, संभोग की पूरी की पूरी कला और पूरी की पूरी विधि और पूरा शास्त्र जानने में समर्थ हो पाते हैं। और ये ही वे लोग हैं जो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति संभोग की पूरी बात को जानने में समर्थ हो जाता है, उसके लिए संभोग व्यर्थ हो जाता है, वह उसके पार निकल जाता है, अतिक्रमण कर जाता है। लेकिन इस संबंध में कुछ बहुत स्पष्ट बातें नहीं कही गई हैं।


एक बात, पहली बात स्पष्ट कर लेनी जरूरी है वह यह कि यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि हम पैदा हो गए हैं इसलिए हमें पता है–क्या है काम, क्या है संभोग। नहीं, पता नहीं है। और नहीं पता होने के कारण जीवन पूरे समय काम और सेक्स में उलझा रहता है और व्यतीत होता है।


मैंने आपसे कहा, पशुओं का बंधा हुआ समय है, उनकी ऋतु है, उनका मौसम है। आदमी का कोई बंधा हुआ समय नहीं है। क्यों? पशु शायद मनुष्य से ज्यादा संभोग की गहराई में उतरने में समर्थ है और मनुष्य उतना भी समर्थ नहीं रह गया है! जिन लोगों ने जीवन के इन तलों पर बहुत खोज की है और गहराइयों में गए हैं और जिन लोगों ने जीवन के बहुत से अनुभव संगृहीत किए हैं, उनको यह जानना, यह सूत्र उपलब्ध हुआ है कि अगर संभोग एक मिनट तक रुकेगा तो आदमी दूसरे दिन फिर संभोग के लिए लालायित हो जाएगा। अगर तीन मिनट तक रुक सके तो एक सप्ताह तक उसे सेक्स की वह याद भी नहीं आएगी। और अगर सात मिनट तक रुक सके तो तीन महीने तक के लिए सेक्स से इस तरह मुक्त हो जाएगा कि उसकी कल्पना में भी विचार प्रविष्ट नहीं होगा। और अगर तीन घंटे तक रुक सके तो जीवन भर के लिए मुक्त हो जाएगा, जीवन में उसको कल्पना भी नहीं उठेगी।


लेकिन सामान्यतः क्षण भर का अनुभव है मनुष्य का। तीन घंटे की कल्पना करनी भी मुश्किल है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि तीन घंटे अगर संभोग की स्थिति में, उस समाधि की दशा में व्यक्ति रुक जाए तो एक संभोग पूरे जीवन के लिए सेक्स से मुक्त करने के लिए पर्याप्त है। इतनी तृप्ति पीछे छोड़ जाता है, इतना अनुभव, इतना बोध छोड़ जाता है कि जीवन भर के लिए पर्याप्त हो जाता है। एक संभोग के बाद व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है।


लेकिन हम तो जीवन भर संभोग के बाद भी उपलब्ध नहीं होते। क्या है? बूढ़ा हो जाता है आदमी, मरने के करीब पहुंच जाता है और संभोग की कामना से मुक्त नहीं हो पाता! संभोग की कला और संभोग के शास्त्र को उसने समझा नहीं है। और न कभी किसी ने समझाया है, न विचार किया है, न सोचा है, न बात की है, कोई संवाद भी नहीं हुआ जीवन में–कि अनुभवी लोग उस पर संवाद करते और विचार करते। हम बिलकुल पशुओं से भी बदतर हालत पर उस स्थिति में हैं।


आप कहेंगे कि एक क्षण से तीन घंटे तक संभोग की दशा ठहर सकती है, लेकिन कैसे?


कुछ थोड़े से सूत्र आपको कहता हूं, उन्हें थोड़ा खयाल में रखेंगे तो ब्रह्मचर्य की तरफ जाने में बड़ी यात्रा सरल हो जाएगी।


संभोग करते क्षणों में श्वास जितनी तेज होगी, संभोग का काल उतना ही छोटा होगा। श्वास जितनी शांत और शिथिल होगी, संभोग का काल उतना ही लंबा हो जाएगा। अगर श्वास को बिलकुल शिथिल रहने का थोड़ा सा अभ्यास किया जाए, तो संभोग के क्षणों को कितना ही लंबा किया जा सकता है। और संभोग के क्षण जितने लंबे होंगे, उतने ही संभोग के भीतर से समाधि का जो सूत्र मैंने आपसे कहा है–निरहंकार भाव, ईगोलेसनेस और टाइमलेसनेस का अनुभव शुरू हो जाएगा। श्वास अत्यंत शिथिल होनी चाहिए। श्वास के शिथिल होते ही संभोग की गहराई, अर्थ और नये उदघाटन शुरू हो जाएंगे।


और दूसरी बात, संभोग के क्षण में ध्यान दोनों आंखों के बीच, जहां योग आज्ञाचक्र को बताता है, वहां अगर ध्यान हो तो संभोग की सीमा और समय तीन घंटों तक बढ़ाया जा सकता है। और एक संभोग व्यक्ति को सदा के लिए ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित कर देगा–न केवल इस जन्म के लिए, बल्कि अगले जन्म के लिए भी।


किन्हीं एक बहन ने पत्र लिखा है और मुझे पूछा है कि विनोबा तो बाल-ब्रह्मचारी हैं, क्या उनको समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा? मेरे बाबत पूछा है कि मैंने तो विवाह नहीं किया, मैं तो बाल-ब्रह्मचारी हूं, मुझे समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा?


उन बहन को, अगर वे यहां मौजूद हों तो मैं कहना चाहता हूं, विनोबा को या मुझे या किसी को भी बिना अनुभव के ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं होता–वह अनुभव चाहे इस जन्म का हो, चाहे पिछले जन्म का हो। जो इस जन्म में ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, वह पिछले जन्मों के गहरे संभोग के अनुभव के आधार पर, और किसी आधार पर नहीं। कोई और रास्ता नहीं है।


लेकिन अगर पिछले जन्म में किसी को गहरे संभोग की अनुभूति हुई हो तो इस जन्म के साथ ही वह सेक्स से मुक्त पैदा होगा। उसकी कल्पना के मार्ग पर सेक्स कभी भी खड़ा नहीं होगा। और उसे हैरानी होगी दूसरे लोगों को देख कर कि यह क्या बात है! लोग क्यों पागल हैं? क्यों दीवाने हैं? उसे कठिनाई होगी यह जांच करने में भी कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है? इसका भी हिसाब रखने में और फासला करने में कठिनाई होगी।


लेकिन कोई अगर सोचता हो कि बिना गहरे अनुभव के कोई बाल-ब्रह्मचारी हो सकता है, तो बाल-ब्रह्मचारी नहीं होगा, सिर्फ पागल हो जाएगा। जो लोग जबरदस्ती ब्रह्मचर्य थोपने की कोशिश करते हैं, वे सिर्फ विक्षिप्त होते हैं, और कहीं भी नहीं पहुंचते। ब्रह्मचर्य थोपा नहीं जाता। वह अनुभव की निष्पत्ति है। वह किसी गहरे अनुभव का फल है। और वह अनुभव संभोग का ही अनुभव है। अगर वह अनुभव एक बार भी हो जाए तो अनंत जीवन की यात्रा के लिए सेक्स से मुक्ति हो जाती है।


तो दो बातें मैंने कहीं उस गहराई के लिए–श्वास शिथिल हो, इतनी शिथिल हो कि जैसे चलती ही नहीं; और ध्यान, सारा अटेंशन आज्ञाचक्र के पास हो, दोनों आंखों के बीच के बिंदु पर हो। जितना ध्यान मस्तिष्क के पास होगा, उतने ही संभोग की गहराई अपने आप बढ़ जाएगी। और जितनी श्वास शिथिल होगी, उतनी लंबाई बढ़ जाएगी। और आपको पहली दफा अनुभव होगा कि संभोग का आकर्षण नहीं है मनुष्य के मन में, मनुष्य के मन में समाधि का आकर्षण है। और एक बार उसकी झलक मिल जाए, एक बार बिजली चमक जाए और हमें दिखाई पड़ जाए अंधेरे में कि रास्ता क्या है, फिर हम रास्ते पर आगे निकल सकते हैं।


एक आदमी एक गंदे घर में बैठा है। दीवालें अंधेरी हैं और धुएं से पुती हुई हैं। घर बदबू से भरा हुआ है। लेकिन खिड़की खोल सकता है। उस गंदे घर की खिड़की में खड़े होकर भी वह देख सकता है–दूर आकाश को, तारों को, सूरज को, उड़ते हुए पक्षियों को। और तब उस घर के बाहर निकलने में कठिनाई न रह जाएगी। जिसे एक बार दिखाई पड़ गया कि बाहर निर्मल आकाश है, सूरज है, चांद है, तारे हैं, उड़ते हुए पक्षी हैं, हवाओं में झूमते हुए वृक्ष और फूलों की सुगंध है, मुक्ति है बाहर, वह फिर अंधेरी और धुएं से भरी हुई और सीलन और बदबू से भरी हुई कोठरियों में बैठने को राजी नहीं होगा, वह बाहर निकल जाएगा। जिस दिन आदमी को संभोग के भीतर समाधि की पहली, थोड़ी सी भी अनुभूति होती है, उसी दिन सेक्स का गंदा मकान, सेक्स की दीवालें, अंधेरे से भरी हुई व्यर्थ हो जाती हैं और आदमी बाहर निकल आता है।


लेकिन यह जानना जरूरी है कि साधारणतः हम उस मकान के भीतर पैदा होते हैं, जिसकी दीवालें बंद हैं, जो अंधेरे से पुती हैं, जहां बदबू है, जहां दुर्गंध है। और इस मकान के भीतर ही पहली दफा मकान के बाहर का अनुभव करना जरूरी है, तभी हम बाहर जा सकते हैं और इस मकान को छोड़ सकते हैं। जिस आदमी ने खिड़की नहीं खोली उस मकान की और उसी मकान के कोने में आंख बंद करके बैठ गया है कि मैं इस गंदे मकान को नहीं देखूंगा, वह चाहे देखे और चाहे न देखे, वह गंदे मकान के भीतर ही है और भीतर ही रहेगा।


जिनको आप ब्रह्मचारी कहते हैं–तथाकथित जबरदस्ती थोपे हुए ब्रह्मचारी–वे सेक्स के मकान के भीतर उतने ही हैं, जितना कि कोई भी साधारण आदमी है। वे आंख बंद किए बैठे हैं, आप आंख खोले हुए बैठे हैं, इतना ही फर्क है। जो आप आंख खोल कर कर रहे हैं, वे आंख बंद करके भीतर कर रहे हैं। जो आप शरीर से कर रहे हैं, वे मन से कर रहे हैं। और कोई भी फर्क नहीं है।


इसलिए मैं कहता हूं कि संभोग के प्रति दुर्भाव छोड़ दें। समझने की चेष्टा, प्रयोग करने की चेष्टा करें, और संभोग को एक पवित्रता की स्थिति दें।


मैंने दो सूत्र कहे। तीसरी एक भाव-दशा चाहिए संभोग के पास जाते समय, वैसी भाव-दशा जैसे कोई मंदिर के पास जाता है। क्योंकि संभोग के क्षण में हम परमात्मा के निकटतम होते हैं। इसीलिए तो संभोग में परमात्मा सृजन का काम करता है और नये जीवन को जन्म देता है। हम क्रिएटर के निकटतम होते हैं। संभोग की अनुभूति में हम स्रष्टा के निकटतम होते हैं। इसीलिए तो हम मार्ग बन जाते हैं और एक नया जीवन हमसे उतरता है और गतिमान हो जाता है। हम जन्मदाता बन जाते हैं। क्यों? स्रष्टा के निकटतम है वह स्थिति। अगर हम पवित्रता से, प्रार्थना से सेक्स के पास जाएं, तो हम परमात्मा की झलक को अनुभव कर सकते हैं।


लेकिन हम तो सेक्स के पास एक घृणा, एक दुर्भाव, एक कंडेमनेशन के साथ जाते हैं। इसलिए दीवाल खड़ी हो जाती है और परमात्मा का वहां कोई अनुभव नहीं हो पाता।


सेक्स के पास ऐसे जाएं जैसे मंदिर के पास। पत्नी को ऐसा समझें जैसे कि वह प्रभु है। पति को ऐसा समझें जैसे कि वह परमात्मा है। और गंदगी में, क्रोध में, कठोरता में, द्वेष में,र् ईष्या में, जलन में, चिंता के क्षणों में कभी भी सेक्स के पास न जाएं। होता उलटा है। जितना आदमी चिंतित होता है, जितना परेशान होता है, जितना क्रोध से भरा होता है, जितना घबराया होता है, जितना एंग्विश में होता है, उतना ही ज्यादा वह सेक्स के पास जाता है। आनंदित आदमी सेक्स के पास नहीं जाता। दुखी आदमी सेक्स की तरफ जाता है। क्योंकि दुख को भुलाने के लिए इसको एक मौका दिखाई पड़ता है।


लेकिन स्मरण रखें कि जब आप दुख में जाएंगे, चिंता में जाएंगे, उदास, हारे हुए, क्रोध में, लड़े हुए जाएंगे, तब आप कभी भी सेक्स की उस गहरी अनुभूति को उपलब्ध नहीं कर पाएंगे, जिसकी कि प्राणों में प्यास है। वह समाधि की झलक वहां नहीं मिलेगी। लेकिन यही उलटा होता है।


मेरी प्रार्थना है: जब आनंद में हों, जब प्रेम में हों, जब प्रफुल्लित हों और जब प्राण प्रेयरफुल हों, जब ऐसा मालूम पड़े कि आज हृदय शांति से और आनंद से, कृतज्ञता से भरा हुआ है, तभी क्षण है–तभी क्षण है संभोग के निकट जाने का। और वैसा व्यक्ति संभोग में समाधि को उपलब्ध होता है। और एक बार भी समाधि की एक किरण मिल जाए तो संभोग से सदा के लिए मुक्त हो जाता है और समाधि में गतिमान हो जाता है।


स्त्री और पुरुष का मिलन एक बहुत गहरा अर्थ रखता है। स्त्री और पुरुष के मिलन में पहली बार अहंकार टूटता है और हम किसी से मिलते हैं।


मां के पेट से बच्चा निकलता है और दिन-रात उसके प्राणों में एक ही बात लगी रहती है, जैसे कि हमने किसी वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से, तो उस पूरे वृक्ष के प्राण तड़फते हैं कि जमीन से कैसे वापस जुड़ जाए। क्योंकि जमीन से जुड़ा हुआ होकर ही उसे प्राण मिलता था, रस मिलता था, जीवन मिलता था, वाइटेलिटी मिलती थी। जमीन से उखड़ गया, तो उसकी सारी जड़ें चिल्लाएंगी कि मुझे जमीन में वापस भेज दो! उसका सारा प्राण चिल्लाएगा कि मुझे जमीन में वापस भेज दो! वह उखड़ गया, टूट गया, अपरूटेड हो गया।


आदमी जैसे ही मां के पेट से बाहर निकलता है, अपरूटेड हो जाता है। वह सारे जीवन और जगत से एक अर्थ में टूट गया, अलग हो गया। अब उसकी सारी पुकार और सारे प्राणों की आकांक्षा जगत और जीवन और अस्तित्व से, एक्झिस्टेंस से वापस जुड़ जाने की है। उसी पुकार का नाम प्रेम की प्यास है।


प्रेम का और अर्थ क्या है? हर आदमी चाह रहा है कि मैं प्रेम पाऊं और प्रेम करूं! प्रेम का मतलब क्या है? प्रेम का मतलब है कि मैं टूट गया हूं, आइसोलेट हो गया हूं, अलग हो गया हूं, मैं वापस जुड़ जाऊं जीवन से।


लेकिन इस जुड़ने का गहरे से गहरा अनुभव मनुष्य को सेक्स के अनुभव में होता है, स्त्री और पुरुष को होता है। वह पहला अनुभव है जुड़ जाने का। और जो व्यक्ति इस जुड़ जाने के अनुभव को प्रेम की प्यास, जुड़ने की आकांक्षा के अर्थ में समझेगा, वह आदमी एक दूसरे अनुभव को भी शीघ्र उपलब्ध हो सकता है।


योगी भी जुड़ता है, साधु भी जुड़ता है, संत भी जुड़ता है, समाधिस्थ व्यक्ति भी जुड़ता है, संभोगी व्यक्ति भी जुड़ता है।


संभोग करने में दो व्यक्ति जुड़ते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से जुड़ता है और एक हो जाता है।


समाधि में एक व्यक्ति समष्टि से जुड़ता है और एक हो जाता है।


संभोग दो व्यक्तियों के बीच मिलन है।


समाधि एक व्यक्ति और अनंत के बीच मिलन है।


स्वभावतः, दो व्यक्तियों का मिलन क्षण भर को हो सकता है। एक व्यक्ति और अनंत का मिलन अनंत के लिए हो सकता है। दोनों व्यक्ति सीमित हैं, उनका मिलन असीम नहीं हो सकता है। यही पीड़ा है, यही कष्ट है सारे दांपत्य का, सारे प्रेम का–कि जिससे हम जुड़ना चाहते हैं उससे भी सदा के लिए नहीं जुड़ पाते, क्षण भर को जुड़ते हैं और फिर फासले हो जाते हैं। फासले पीड़ा देते हैं, फासले कष्ट देते हैं, और निरंतर दो प्रेमी इसी पीड़ा में परेशान रहते हैं कि फासला क्यों है? और हर चीज फिर धीरे-धीरे ऐसी मालूम पड़ने लगती है कि दूसरा फासला बना रहा है। इसलिए दूसरे पर क्रोध पैदा होना शुरू हो जाता है।


लेकिन जो जानते हैं, वे यह कहेंगे कि दो व्यक्ति अनिवार्यतः दो अलग-अलग व्यक्ति हैं। वे जबरदस्ती क्षण भर को मिल सकते हैं, लेकिन सदा के लिए नहीं मिल सकते। यही प्रेमियों की पीड़ा और कष्ट है कि निरंतर एक संघर्ष खड़ा हो जाता है। जिसे प्रेम करते हैं, उसी से संघर्ष खड़ा हो जाता है; उसी से तनाव, अशांति और द्वेष खड़ा हो जाता है! क्योंकि ऐसा प्रतीत होने लगता है, जिससे मैं मिलना चाहता हूं, शायद वह मिलने को तैयार नहीं, इसलिए मिलना पूरा नहीं हो पाता।


लेकिन इसमें व्यक्तियों का कसूर नहीं है। दो व्यक्ति अनंतकालीन तल पर नहीं मिल सकते, एक क्षण के लिए मिल सकते हैं। क्योंकि व्यक्ति सीमित हैं, उनके मिलने का क्षण भी सीमित होगा। अगर अनंत मिलन चाहिए तो वह परमात्मा से हो सकता है, वह समस्त अस्तित्व से हो सकता है।


जो लोग संभोग की गहराई में उतरते हैं, उन्हें पता चलता है–एक क्षण मिलने का इतना आनंद है, तो अनंतकाल के लिए मिल जाने का कितना आनंद होगा! उसका तो हिसाब लगाना मुश्किल है। एक क्षण के मिलन की इतनी अदभुत प्रतीति है, तो अनंत से मिल जाने की कितनी प्रतीति होगी, कैसी प्रतीति होगी! जैसे एक घर में दीया जल रहा हो और उस दीये से हम हिसाब लगाना चाहें कि सूरज की रोशनी में कितने दीये जल रहे हैं? हिसाब लगाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। एक दीया बहुत छोटी बात है। सूरज बहुत बड़ी बात है। सूरज पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। दस करोड़ मील दूर है, तब भी हमें तपाता है, तब भी हमें झुलसा देता है। उतने बड़े सूरज को एक छोटे से दीये से हम तौलने जाएं तो कैसे तोल सकेंगे?


लेकिन नहीं, एक दीये से सूरज को तौला जा सकता है; क्योंकि दीया भी सीमित है और सूरज भी सीमित है। दीये में एक कैंडल का लाइट है, तो अरबों-खरबों कैंडल का लाइट होगा सूरज में; लेकिन सीमा आंकी जा सकती है, तौली जा सकती है। लेकिन संभोग में जो आनंद है और समाधि में जो आनंद है, उसे फिर भी नहीं तौला जा सकता। क्योंकि संभोग अत्यंत क्षणिक दो क्षुद्र व्यक्तियों का मिलन है और समाधि बूंद का अनंत के सागर से मिल जाना है। उसे कोई भी नहीं तौला जा सकता है। उसे तौलने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे कोई मार्ग नहीं कि हम जांचें कि वह कितना होगा।


इसलिए जब वह उपलब्ध होता है–जब वह उपलब्ध हो जाता है–तो फिर कहां सेक्स! फिर कहां संभोग! फिर कहां कामना! जब उतना अनंत मिल गया तब कोई कैसे सोचेगा, कैसे विचार करेगा उस क्षण भर के सुख को पाने के लिए! तब वह सुख दुख जैसा प्रतीत होता है। तब वह सुख पागलपन जैसा प्रतीत होता है। तब वह सुख शक्ति का अपव्यय प्रतीत होता है। और ब्रह्मचर्य सहज फलित हो जाता है।


लेकिन संभोग और समाधि के बीच एक सेतु है, एक ब्रिज है, एक यात्रा है, एक मार्ग है। समाधि जिसका अंतिम छोर है आकाश में जाकर, संभोग उस सीढ़ी का पहला सोपान है, पहला पाया है। और जो इस पाए के ही विरोध में हो जाते हैं वे आगे नहीं बढ़ पाते, यह मैं आपसे कह देना चाहता हूं। जो इस पहले पाए को इनकार करने लगते हैं वे दूसरे पाए पर पैर नहीं रख सकते हैं, मैं आपसे यह कह देना चाहता हूं। इस पहले पाए पर भी अनुभव से, ज्ञान से, बोध से पैर रखना जरूरी है। इसलिए नहीं कि हम उसी पर रुके रह जाएं, बल्कि इसलिए कि हम उस पर पैर रख कर आगे निकल जा सकें।


लेकिन मनुष्य-जाति के साथ एक अदभुत दुर्घटना हो गई। जैसा मैंने कहा, वह पहले पाए के विरोध में हो गया है और अंतिम पाए पर पहुंचना चाहता है! उसे पहले पाए का ही अनुभव नहीं, उसे दीये का भी अनुभव नहीं और वह सूरज के अनुभव की आकांक्षा करता है।


यह कभी भी नहीं हो सकेगा। जो दीया मिला है प्रकृति की तरफ से, पहले उस दीये की रोशनी को समझ लेना जरूरी है। पहले उस दीये की हलकी सी रोशनी को, जो क्षण भर में जीती है और बुझ जाती है, जरा सा हवा का झोंका जिसे मिटा देता है, उस रोशनी को भी जान लेना जरूरी है। ताकि सूरज की आकांक्षा की जा सके, ताकि सूरज तक पहुंचने के लिए कदम उठाया जा सके, ताकि सूरज की प्यास, असंतोष, आकांक्षा और अभीप्सा भीतर पैदा हो सके।


संगीत के एक छोटे से अनुभव से उस परम संगीत की तरफ जाया जा सकता है। प्रकाश के एक छोटे से अनुभव से अनंत प्रकाश की तरफ जाया जा सकता है। एक बूंद को जान लेना, पूरे सागर को जान लेने के लिए पहला कदम है। एक छोटे से अणु को जान कर हम पदार्थ की सारी शक्ति को जान लेते हैं।


संभोग का एक छोटा सा अणु है, जो प्रकृति की तरफ से मनुष्य को मुफ्त में मिला हुआ है। लेकिन हम उसे जान नहीं पाते हैं। आंख बंद करके जी लेते हैं किसी तरह, पीठ फेर कर जी लेते हैं किसी तरह। उसकी स्वीकृति नहीं है हमारे मन में, स्वीकार नहीं है हमारे मन में। आनंद और अहोभाव से उसे जानने और जीने और उसमें प्रवेश करने की कोई विधि नहीं है हमारे हाथ में।


मैंने जैसा आपसे कहा, जिस दिन आदमी इस विधि को जान पाएगा, उस दिन हम दूसरे तरह के मनुष्य को पैदा करने में समर्थ हो जाएंगे।


मैं इस संदर्भ में आपसे यह कहना चाहता हूं कि स्त्री और पुरुष दो अपोजिट पोल्स हैं विद्युत के–पाजिटिव और निगेटिव, विधायक और नकारात्मक दो छोर हैं। उन दोनों के मिलन से एक संगीत पैदा होता है; विद्युत का पूरा चक्र पैदा होता है।


मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि जैसा मैंने कहा कि अगर गहराई और देर तक संभोग थिर रह जाए–स्त्री और पुरुष का एक जोड़ा अगर आधे घंटे के पार तक संभोग में रह जाए–तो दोनों के पास प्रकाश का एक वलय, दोनों के पास प्रकाश का एक घेरा निर्मित हो जाता है। दोनों की विद्युत जब पूरी तरह मिलती है तो आस-पास अंधेरे में भी एक रोशनी दिखाई पड़ने लगती है। कुछ अदभुत खोजियों ने उस दिशा में काम किया है और फोटोग्राफ भी लिए हैं। जिस जोड़े को उस विद्युत का अनुभव उपलब्ध हो जाता है, वह जोड़ा सदा के लिए संभोग के बाहर हो जाता है।


लेकिन यह हमारा अनुभव नहीं है। और ये बातें अजीब लगेंगी, कि यह तो हमारे अनुभव में नहीं है यह बात। अगर अनुभव में नहीं है तो उसका मतलब है कि आप फिर से सोचें, फिर से देखें और जिंदगी को–कम से कम सेक्स की जिंदगी को–क ख ग से फिर से शुरू करें, समझने के लिए, बोधपूर्वक जीने के लिए।


मेरी अपनी अनुभूति यह है, मेरी अपनी धारणा यह है कि महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट और कृष्ण आकस्मिक रूप से पैदा नहीं हो जाते हैं। यह उन दो व्यक्तियों के परिपूर्ण मिलन का परिणाम है। मिलन जितना गहरा होगा, जो संतति पैदा होगी वह उतनी ही अदभुत होगी। मिलन जितना अधूरा होगा, जो संतति पैदा होगी वह उतनी ही कचरा और दलित होगी।


आज सारी दुनिया में मनुष्यता का स्तर रोज नीचे चला जा रहा है। लोग कहते हैं कि नीति बिगड़ गई है, इसलिए स्तर नीचे जा रहा है। लोग कहते हैं कि कलियुग आ गया है, इसलिए स्तर नीचे जा रहा है। गलत, बेकार की और फिजूल की बातें कहते हैं। सिर्फ एक फर्क पड़ा है। मनुष्य के संभोग का स्तर नीचे उतर गया है। मनुष्य के संभोग ने पवित्रता खो दी है। मनुष्य के संभोग ने वैज्ञानिकता खो दी है, सरलता और प्राकृतिकता खो दी है। मनुष्य का संभोग जबरदस्ती, एक नाइटमेयर, एक दुखद स्वप्न जैसा हो गया है। मनुष्य के संभोग ने एक हिंसात्मक स्थिति ले ली है। वह एक प्रेमपूर्ण कृत्य नहीं है, वह एक पवित्र और शांत कृत्य नहीं है, वह एक ध्यानपूर्ण कृत्य नहीं है। इसलिए मनुष्य नीचे उतरता चला जाएगा।


एक कलाकार कुछ चीज बनाता हो–कोई मूर्ति बनाता हो–और कलाकार नशे में हो, तो आप आशा करते हैं कि कोई सुंदर मूर्ति बन पाएगी? एक नृत्यकार नाच रहा हो, क्रोध से भरा हो, अशांत हो, चिंतित हो, तो आप आशा करते हैं कि नृत्य सुंदर हो सकेगा?


हम जो भी करते हैं, वह हम किस स्थिति में हैं, इस पर निर्भर होता है। और सबसे ज्यादा उपेक्षित, निग्लेक्टेड सेक्स है, संभोग है। और बड़े आश्चर्य की बात है, उसी संभोग से जीवन की सारी यात्रा चलती है! नये बच्चे, नई आत्माएं जगत में प्रवेश करती हैं!


शायद आपको पता न हो, संभोग एक सिचुएशन है, जिसमें एक आकाश में उड़ती हुई आत्मा अपने योग्य स्थिति को समझ कर प्रविष्ट होती है। आप सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं। आप बच्चे के जन्मदाता नहीं हैं, सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं। वह अवसर जिस आत्मा के लिए जरूरी, उपयोगी और सार्थक मालूम होता है, वह आत्मा प्रविष्ट होती है।


अगर आपने एक रुग्ण अवसर पैदा किया है, अगर क्रोध में, दुख में, पीड़ा में और चिंता में आप हैं, तो जो आत्मा अवतरित होगी वह आत्मा इसी तल की हो सकती है, इससे ऊंचे तल की नहीं हो सकती है। श्रेष्ठ आत्माओं की पुकार के लिए श्रेष्ठ संभोग का अवसर और सुविधा चाहिए, तो श्रेष्ठ आत्माएं जन्मती हैं और जीवन ऊपर उठता है।

इसलिए मैंने कहा कि जिस दिन आदमी संभोग के पूरे शास्त्र में निष्णात होगा, जिस दिन हम छोटे-छोटे बच्चों से लेकर सारे जगत को उस कला और विज्ञान के संबंध में सारी बात कह सकेंगे और समझा सकेंगे, उस दिन हम बिलकुल नये मनुष्य को–जिसे नीत्शे सुपरमैन कहता था, जिसे अरविंद अतिमानव कहते थे, जिसको महान आत्मा कहा जा सके–वैसा बच्चा, वैसी संतति, वैसा जगत निर्मित किया जा सकता है। और जब तक हम ऐसा जगत निर्मित नहीं कर लेते हैं, तब तक न शांति हो सकती है विश्व में, न युद्ध रुक सकते हैं, न घृणा रुकेगी, न अनीति रुकेगी, न दुश्चरित्रता रुकेगी, न व्यभिचार रुकेगा, न जीवन का यह अंधकार रुकेगा। लाख राजनीतिज्ञ चिल्लाते रहें…


(बारिश की हलकी बौछारें, श्रोताओं में कुछ हलन-चलन।)


मत फिक्र करें, यह पांच मिनट के पानी गिरने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बंद कर लें छाते! क्योंकि दूसरे लोगों के पास छाते नहीं हैं; यह बहुत अधार्मिक होगा कि कुछ लोग छाता खोल लें। उसे बंद कर लें! सबके पास छाते होते तो ठीक था। और लोगों के पास नहीं हैं और आप खोल कर बैठेंगे तो कैसा बेहूदा होगा, कैसा असंस्कृत होगा। उसको बंद कर लें! मैं जरूर, मेरे ऊपर छप्पर है, तो जितनी देर आप पानी में बैठे रहेंगे, मीटिंग के बाद उतनी देर मैं पानी में खड़ा हो जाऊंगा।


 


…नहीं मिटेंगे युद्ध, नहीं मिटेगी अशांति, नहीं मिटेगी हिंसा, नहीं मिटेगीर् ईष्या। कितने दिन हो गए! दस हजार साल हो गए! मनुष्य-जाति के पैगंबर, तीर्थंकर, अवतार समझा रहे हैं कि मत लड़ो, मत करो हिंसा, मत करो क्रोध। लेकिन किसी ने कभी नहीं सुना। जिन्होंने हमें समझाया कि मत करो हिंसा, मत करो क्रोध, उनको हमने सूली पर लटका दिया। यह उनकी शिक्षा का फल हुआ।


गांधी हमें समझाते थे कि प्रेम करो, एक हो जाओ! हमने गोली मार दी। यह कुल उनकी शिक्षा का फल हुआ। दुनिया के सारे मनुष्य, सारे महापुरुष हार गए हैं, यह समझ लेना चाहिए। असफल हो चुके हैं। आज तक का कोई भी मूल्य जीत नहीं सका। सब मूल्य हार गए। सब मूल्य असफल हो गए। बड़े से बड़े पुकारने वाले लोग, भले से भले लोग भी हार गए और समाप्त हो गए। और आदमी रोज अंधेरे और नरक में चला जाता रहा है।


क्या इससे यह पता नहीं चलता कि हमारी शिक्षाओं में कहीं कोई बुनियादी भूल है! अशांत आदमी इसलिए अशांत है कि वह अशांति में जन्मता है। उसके पास अशांति के कीटाणु हैं। उसके प्राणों की गहराई में अशांति का रोग है। जन्म के पहले दिन वह अशांति को, दुख और पीड़ा को लेकर पैदा हुआ है। जन्म के पहले क्षण में ही उसके जीवन का सारा स्वरूप निर्मित हो गया है।


इसलिए बुद्ध हार जाएंगे, महावीर हारेंगे, कृष्ण हारेंगे, क्राइस्ट हारेंगे। हार चुके हैं। हम शिष्टतावश यह कहते हों कि वे नहीं हारे हैं तो दूसरी बात है, लेकिन वे सब हार चुके हैं। और आदमी रोज बिगड़ता चला गया है, रोज बिगड़ता गया है। अहिंसा की इतने दिन की शिक्षा, और हम छुरी से एटम और हाइड्रोजन बम पर पहुंच गए हैं। यह अहिंसा की शिक्षा की सफलता होगी?


पिछले पहले महायुद्ध में तीन करोड़ लोगों की हमने हत्या की थी। और उसके बाद–शांति और प्रेम की बातें करने के बाद–दूसरे महायुद्ध में हमने साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या की। और उसके बाद भी चिल्ला रहे हैं बर्ट्रेंड रसेल से लेकर विनोबा तक सारे लोग कि शांति चाहिए, शांति चाहिए, और हम तीसरे महायुद्ध की तैयारी कर रहे हैं। और तीसरा महायुद्ध दूसरे महायुद्ध को बच्चों का खेल बना देगा।


आइंस्टीन से किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध में क्या होगा? आइंस्टीन ने कहा कि तीसरे के बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन चौथे के संबंध में मैं कुछ कह सकता हूं। पूछने वालों ने कहा, आश्चर्य! आप तीसरे के संबंध में नहीं कह सकते तो चौथे के संबंध में क्या कहेंगे? आइंस्टीन ने कहा, चौथे के संबंध में एक बात निश्चित है कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे के बाद किसी आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं।


यह मनुष्य की सारी नैतिक और धार्मिक शिक्षा का फल है।


मैं आपसे कहना चाहता हूं, इसकी बुनियादी वजह दूसरी है। जब तक हम मनुष्य के संभोग को सुव्यवस्थित, मनुष्य के संभोग को आध्यात्मिक, जब तक हम मनुष्य के संभोग को समाधि का द्वार बनाने में सफल नहीं होते, तब तक अच्छी मनुष्यता पैदा नहीं हो सकती है। रोज बदतर से बदतर मनुष्यता पैदा होगी, क्योंकि आज के बदतर बच्चे कल संभोग करेंगे और अपने से बदतर लोगों को जन्म दे जाएंगे। हर पीढ़ी नीचे उतरती चली जाएगी, यह बिलकुल ही निश्चित है, इसकी प्रोफेसी की जा सकती है, इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है।


और अब तो हम उस जगह पहुंच गए हैं कि शायद और पतन की गुंजाइश नहीं है। करीब-करीब सारी दुनिया एक मैड हाउस, एक पागलखाना हो गई है।


अमेरिका के मनोवैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि न्यूयार्क जैसे नगर में केवल अठारह प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वस्थ कहे जा सकते हैं। अठारह प्रतिशत! अठारह प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वस्थ हैं, तो बयासी प्रतिशत लोगों की क्या हालत है? बयासी प्रतिशत लोग करीब-करीब विक्षिप्त होने की हालत में हैं।


आप कभी अपने संबंध में कोने में बैठ कर विचार करना, तो आपको पता चलेगा कि पागलपन कितना है भीतर! किसी तरह दबाए हैं पागलपन को, किसी तरह सम्हल कर चले जा रहे हैं, वह बात दूसरी है। जरा सा कोई धक्का दे दे, और कोई भी आदमी पागल हो सकता है। यह संभावना है कि सौ वर्ष के भीतर सारी मनुष्यता एक पागलघर बन जाए, सारे लोग करीब-करीब पागल हो जाएं! फिर हमें एक फायदा होगा कि पागलों के इलाज की कोई जरूरत न रहेगी। एक फायदा होगा कि पागलों के चिकित्सक नहीं होंगे। एक फायदा होगा कि कोई अनुभव नहीं करेगा कि कोई पागल है। क्योंकि पागल का पहला लक्षण यह है कि वह कभी नहीं मानता कि मैं पागल हूं। इतना ही फायदा होगा। लेकिन यह रुग्णता बढ़ती चली जाती है। यह रोग, यह अस्वास्थ्य, यह मानसिक चिंता और मानसिक अंधकार बढ़ता चला जाता है।


क्या मैं आपसे कहूं कि सेक्स को स्प्रिचुएलाइज किए बिना, संभोग को आध्यात्मिक बनाए बिना कोई नई मनुष्यता पैदा नहीं हो सकती है? इन तीन दिनों में यही थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। निश्चित ही एक नये मनुष्य को जन्म देना है। मनुष्य के प्राण आतुर हैं ऊंचाइयों को छूने के लिए, आकाश में उठ जाने के लिए, चांदत्तारों जैसे रोशन होने के लिए, फूलों जैसे खिल जाने के लिए, नृत्य के लिए, संगीत के लिए, आदमी की आत्मा रोती है और प्यासी है। और आदमी कोल्हू के बैल की तरह एक चक्कर में घूमता है और उसी में समाप्त हो जाता है, चक्कर के बाहर नहीं उठ पाता है! क्या है कारण?

कारण एक ही है। मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया बेहूदी है, एब्सर्ड है। मनुष्य के पैदा होने की विधि पागलपन से भरी हुई है। मनुष्य के संभोग को हम द्वार नहीं बना सके समाधि का, इसलिए। मनुष्य का संभोग समाधि का द्वार बन सकता है। इन तीन दिनों में इसी छोटे से मंत्र पर मैंने सारी बातें कहीं। और अंत में एक बात दोहरा दूं और आज की चर्चा मैं पूरी करूं।

मैं यह कह देना चाहता हूं कि जीवन के सत्यों से आंखें चुराने वाले लोग मनुष्य के शत्रु हैं। जो आपसे कहे कि संभोग और सेक्स की बात विचार भी नहीं करनी चाहिए, वह आदमी मनुष्य का दुश्मन है। क्योंकि ऐसे ही दुश्मनों ने हमें सोचने नहीं दिया। अन्यथा यह कैसे संभव था कि हम आज तक वैज्ञानिक दृष्टि न खोज लेते और जीवन को नया करने का प्रयोग न खोज लेते! जो आपसे कहे कि सेक्स का धर्म से कोई संबंध नहीं है, वह आदमी सौ प्रतिशत गलत बात कहता है। क्योंकि सेक्स की ऊर्जा ही परिवर्तित और रूपांतरित होकर धर्म के जगत में प्रवेश पाती है। वीर्य की शक्ति ही ऊर्ध्वस्वी होकर मनुष्य को उन लोकों में ले जाती है, जिनका हमें कोई भी पता नहीं है, जहां कोई मृत्यु नहीं है, जहां कोई दुख नहीं है, जहां आनंद के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व नहीं है।

उस सत्-चित्-आनंद में ले जाने वाली शक्ति और ऊर्जा किसके पास है और कहां है?

हम उसे व्यय कर रहे हैं। हम उन पात्रों की तरह हैं जिनमें छेद हैं, जिन्हें हम कुओं में डालते हैं खींचने के लिए। ऊपर तक पात्र तो आ जाता है, शोरगुल भी बीच में बहुत होता है और पानी गिरता है और लगता है कि पानी आता होगा। लेकिन पानी सब बीच में गिर जाता है, खाली पात्र हाथ में वापस आ जाते हैं। हम उन नावों की तरह हैं जिनमें छेद हैं। हम नावों को खेते हैं–सिर्फ डूबने के लिए; नावें किसी किनारे पर नहीं पहुंचा पातीं, सिर्फ मझधार में डुबा देती हैं और नष्ट कर देती हैं।

और ये सारे छिद्र मनुष्य की सेक्स ऊर्जा के गलत मार्गों से प्रवाहित और बह जाने के कारण हैं। और उन गलत मार्गों पर बहाने वाले लोग वे नहीं हैं जिन्होंने नंगी तस्वीरें लटकाई हैं, वे नहीं हैं जिन्होंने नंगे उपन्यास लिखे हैं, वे नहीं हैं जो नंगी फिल्में बना रहे हैं। मनुष्य की ऊर्जा को विकृत करने वाले वे लोग हैं जिन्होंने मनुष्य को सेक्स के सत्य से परिचित होने में बाधा दी है। और वे ही लोगों के कारण ये नंगी तस्वीरें बिक रही हैं, नंगी फिल्में बिक रही हैं, लोग नंगे क्लबों को ईजाद कर रहे हैं और गंदगी के नये-नये और बेहूदगी के नये-नये रास्ते निकाल रहे हैं। किनके कारण? ये उनके कारण जिनको हम साधु और संन्यासी कहते हैं! उन्होंने इनके बाजार का रास्ता तैयार किया है। अगर गौर से हम देखें तो वे इनके विज्ञापनदाता हैं, वे इनके एजेंट हैं।

एक छोटी सी कहानी, मैं अपनी बात पूरी कर दूंगा।

एक पुरोहित जा रहा था अपने चर्च की तरफ। दूर था गांव, भागा हुआ चला जा रहा था। तभी उसे पास की खाई में जंगल में एक आदमी पड़ा हुआ दिखाई पड़ा–घावों से भरा हुआ, खून बह रहा है, छुरी उसकी छाती में चुभी है। पुरोहित को खयाल आया कि चलूं, मैं इसे उठा लूं। लेकिन उसने देखा कि चर्च पहुंचने में देर हो जाएगी और वहां उसे व्याख्यान देना है और लोगों को समझाना है। आज वह प्रेम के संबंध में ही समझाने जाता था। आज उसने विषय चुना था: लव इज़ गॉड। क्राइस्ट के वचन को चुना था कि ईश्वर, परमात्मा प्रेम है। वह यही समझाने जा रहा था, वह उसी का हिसाब लगाता हुआ भागा जा रहा है।

लेकिन उस आदमी ने आंखें खोलीं और उसने चिल्लाया कि पुरोहित, मुझे पता है कि तू प्रेम पर बोलने जा रहा है। मैं भी आज सुनने आने वाला था। लेकिन दुष्टों ने मुझे छुरी मार कर यहां पटक दिया है। लेकिन याद रख, अगर मैं जिंदा रह गया तो गांव भर में खबर कर दूंगा कि आदमी मर रहा था और यह आदमी प्रेम पर व्याख्यान देने चला गया! देख, आगे मत बढ़!

इससे पुरोहित को थोड़ा डर लगा। क्योंकि अगर यह आदमी जिंदा रह जाए और गांव में खबर कर दे, तो लोग कहेंगे कि प्रेम का व्याख्यान बड़ा झूठा था, आपने इस आदमी की फिक्र न की जो मरता था! तो मजबूरी में उसे नीचे उतर कर उसके पास जाना पड़ा। वहां जाकर उसका चेहरा देखा तो वह बहुत घबराया। चेहरा तो पहचाना हुआ सा मालूम पड़ता था! उसने कहा, ऐसा मालूम होता है मैंने तुम्हें कहीं देखा है! और उस मरणासन्न आदमी ने कहा, जरूर देखा होगा। मैं शैतान हूं, और पादरियों से अपना पुराना नाता है। तुमने नहीं देखा होगा तो किसने मुझे देखा होगा!

तब उसे खयाल आया कि वह तो शैतान है, चर्च में उसकी तस्वीर लटकी हुई है। उसने अपने हाथ अलग कर लिए और कहा कि मर जा! शैतान को तो हम चाहते हैं कि वह मर ही जाए। अच्छा हुआ कि तू मर जा। मैं तुझे बचाने का क्यों उपाय करूं? मैंने तेरा खून भी छू लिया, यह भी पाप हुआ। मैं जाता हूं।

वह शैतान जोर से हंसा, उसने कहा, याद रखना, जिस दिन मैं मर जाऊंगा, उस दिन तुम्हारा धंधा भी मर जाएगा। मेरे बिना तुम जिंदा नहीं रह सकते हो। मैं हूं, इसलिए तुम जिंदा हो। मैं तुम्हारे धंधे का आधार हूं। मुझे बचाने की कोशिश करो! नहीं तो जिस दिन शैतान मर जाएगा, उसी दिन पुरोहित, पंडा, पुजारी सब मर जाएगा; क्योंकि दुनिया अच्छी हो जाएगी, पंडे, पुजारी, पुरोहित की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।

पुरोहित ने सोचा और घबराया कि यह तो बहुत बेसिक, बहुत बुनियादी बात कह रहा है वह आदमी। उसने उसे तत्काल कंधे पर उठा लिया और कहा, प्यारे शैतान, घबराओ मत! मैं ले चलता हूं अस्पताल, तुम्हारा इलाज करवाऊंगा, तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे। लेकिन देखो, मर मत जाना। तुम ठीक कहते हो, तुम मर गए तो हम बिलकुल बेकार हो जाने वाले हैं।

हमें खयाल भी नहीं आ सकता कि पुरोहित के धंधे के पीछे शैतान है। हमें यह भी खयाल नहीं आ सकता कि शैतान के धंधे के पीछे पुरोहित है। यह जो शैतान का धंधा चल रहा है–सेक्स का शोषण चल रहा है सारी दुनिया में, हर चीज के पीछे सेक्स का शोषण चल रहा है–हमें खयाल भी नहीं आ सकता कि पुरोहित का हाथ है इसके पीछे। पुरोहित ने जितनी निंदा की है, सेक्स उतना आकर्षक हो गया है। फिर उसने जितने दमन के लिए कहा है, आदमी उतना भोग में गिर गया है। पुरोहित ने जितना इनकार किया कि सेक्स के संबंध में सोचना ही मत, सेक्स उतनी ही अनजान पहेली हो गई और हम उसके संबंध में कुछ भी करने में असमर्थ हो गए।

नहीं! ज्ञान चाहिए। ज्ञान शक्ति है। और सेक्स का ज्ञान बड़ी शक्ति बन सकता है। अज्ञान में जीना हितकर नहीं है। और सेक्स के अज्ञान में जीना तो बिलकुल हितकर नहीं है। यह भी हो सकता है कि हम न जाएं चांद पर। कोई जरूरत नहीं है चांद पर जाने की। चांद को जान लेने से कोई मनुष्य-जाति का बहुत हित नहीं हो जाएगा। यह भी जरूरी नहीं है कि हम पैसिफिक महासागर की गहराइयों में उतरें पांच मील, जहां कि सूरज की रोशनी भी नहीं पहुंचती। उसको जान लेने से भी मनुष्य-जाति का कोई बहुत परम मंगल हो जाने वाला नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि हम एटम को तोड़ें और पहचानें। लेकिन एक बात बिलकुल जरूरी है, सबसे ज्यादा जरूरी है, अल्टीमेट कंसर्न की है, और वह यह है कि हम मनुष्य के सेक्स को ठीक से जान लें और समझ लें, ताकि नये मनुष्य को जन्म देने में सफल हो सकें।

ये थोड़ी सी बातें तीन दिन में मैंने आपसे कहीं। कल आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा। और चूंकि कल का दिन खाली छूट गया, कुछ मित्र आए और भीग कर लौट गए, तो मेरे ऊपर उनका ऋण हो गया है, तो कल मैं दो घंटे उत्तर दे दूंगा ताकि आपको कोई अड़चन और तकलीफ न हो। अपने प्रश्न आप लिख कर दे देंगे–ईमानदारी से! क्योंकि यह मामला ऐसा नहीं है कि आप परमात्मा, आत्मा के संबंध में जिस तरह की बातें पूछते हैं, वे यहां पूछें। यह मामला जिंदगी का है और सीधे और सच्चे अगर आपने प्रश्न पूछे तो हम इन विषयों की और गहराई में भी उतरने में समर्थ हो सकते हैं।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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रचनाएँ
संभोग से समाधि की ओर- ओशो
5.0
'संभोग से समाधि की ओर' ओशो की सबसे चर्चित और विवादित किताब है, जिसमें ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है। साथ ही यह किताब काम और उससे संबंधित सभी मान्यताओं और धारणाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है। ओशो कहते हैं।''जो उस मूलस्रोत को देख लेता है...., यह बुद्ध का वचन बड़ा अद्भुत है : 'वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। ' वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है। जिसको मैने 'संभोग से समाधि की ओर' कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं। एक तो रति है मनुष्य की-सी और पुरुष की।
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संभोग से समाधि की ओर (पहला प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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युवक और यौन एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक मुसलमान फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्हीं मित्रों से मिलन

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोट

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं, तो वह मिलन एक स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है, एक आध्यात्मिक कृत्य हो जाता है। फिर उसका सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, व

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा ह

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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विद्रोह क्‍या है हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है। और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा सम

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संभोग से समाधि कि ओर (ग्‍याहरवां प्रवचन)

20 अप्रैल 2022
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युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है? युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा है। उम्र का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-12)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह-जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखाई पड़ता है। जगह-जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है: प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड! अध्यापकगण, आप बूढ़े हो गए हैं!

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-13)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते ह

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-15)

20 अप्रैल 2022
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सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-16)

20 अप्रैल 2022
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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है। पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति। दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति। और

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-18)

20 अप्रैल 2022
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तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में। पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नही

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