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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-16)

20 अप्रैल 2022

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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति

 मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी कोई एक मनुष्य–कभी कोई कृष्ण, कभी कोई राम, कभी कोई बुद्ध, कभी कोई गांधी–कभी कोई एक मनुष्य के जीवन में फूल खिलते हैं और सुगंध फैलती है। लेकिन शेष सारी मनुष्यता बिना खिले मुरझा जाती है और नष्ट हो जाती है।

कौन सा दुर्भाग्य है मनुष्य के ऊपर? कौन सी कठिनाई है?

करोड़ों बीज में से अगर एक बीज में अंकुर आए और करोड़ों बीज बीज ही रह कर सड़ें और समाप्त हो जाएं, यह कोई सुखद स्थिति नहीं हो सकती। लेकिन मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास को उठा कर देखें तो अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे थोड़े से मनुष्य पैदा होते हैं। शेष सारी मनुष्यता की कोई भी कथा नहीं है! शेष सारे मनुष्य बिना किसी सौंदर्य को जाने, बिना किसी सत्य को जाने जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं! क्या इस जीवन को हम जीवन कहें?

एक फकीर का मुझे स्मरण आता है। कभी वह सम्राट था, फिर फकीर हो गया। जो जानते हैं वे सम्राट होते हैं और फकीर हो जाते हैं। और जो नहीं जानते वे फकीर भी पैदा हों तो सम्राट होने की कोशिश में ही जीते हैं और मर जाते हैं। वह पैदा तो सम्राट हुआ था, लेकिन फिर फकीर हो गया। और जिस राजधानी में पैदा हुआ था, उसी राजधानी के बाहर एक झोपड़े में रहने लगा। लेकिन उसके झोपड़े पर अक्सर उपद्रव होने लगा। जो भी आता, उसी से झगड़ा हो जाता! रास्ते पर था झोपड़ा, गांव से कोई चार मील बाहर था, चौराहे पर था। राहगीर उससे पूछते कि बस्ती कहां है? रास्ता कहां है? वह फकीर कहता, बस्ती ही जाना चाहते हो? तो बाईं तरफ भूल कर मत जाना, दाईं तरफ के रास्ते से जाना, तो बस्ती पहुंच जाओगे।

लोग उसकी बात मान कर दाईं तरफ जाते, और दो-चार मील चल कर मरघट में पहुंच जाते! वहां कहां बस्ती थी, वहां तो सिर्फ कब्रें थीं! वे क्रोध में वापस आते और कहते कि पागल हो तुम? हमने पूछा था बस्ती का रास्ता, और तुमने मरघट का बताया! तब वह फकीर हंसने लगता और कहता, फिर हमारी परिभाषा फर्क-फर्क मालूम पड़ती है। मैं तो उसी को बस्ती कहता हूं। क्योंकि तुम जिसे बस्ती कहते हो, उसमें तो कोई भी बसा हुआ नहीं है। कोई आज उजड़ जाएगा, कोई कल। वहां तो मौत रोज आती है और किसी को उठा ले जाती है। वह, जिसे तुम बस्ती कहते हो, वह तो मरघट है। वहां मरने वाले लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं मृत्यु की। मैं इसी को बस्ती कहता हूं, जिसे तुम मरघट कहते हो; क्योंकि वहां जो एक बार बस गया, वह बस गया। फिर उसकी मौत नहीं होती, फिर उजड़ना नहीं पड़ता। तो बस्ती मैं उसे कहता हूं, जहां बस गए लोग फिर उखड़ते नहीं, वहां से हटते नहीं।

लेकिन पागल रहा होगा वह फकीर। लेकिन क्या दुनिया के सारे समझदार लोग पागल रहे हैं? दुनिया के सारे समझदार एक बात कहते हैं कि जिसे हम जीवन समझते हैं, वह जीवन नहीं है। और चूंकि हम गलत जीवन को जीवन समझ लेते हैं, इसलिए जिसे हम मृत्यु समझते हैं, वह भी मृत्यु नहीं है। हमारा सब कुछ ही उलटा है। हमारा सब कुछ ही अज्ञान से भरा हुआ और अंधकार से पूर्ण है। फिर जीवन क्या है? और उस जीवन को जानने और समझने का द्वार और मार्ग क्या है?

बुद्ध के पास एक बूढ़ा भिक्षु था। बुद्ध ने एक दिन उस बूढ़े भिक्षु को पूछा कि मित्र, तेरी उम्र क्या है? उस भिक्षु ने कहा, आप भलीभांति जानते हैं, फिर भी पूछते हैं? मेरी उम्र पांच वर्ष है।

बुद्ध बहुत हैरान हुए और कहने लगे, कैसी मजाक करते हैं? पांच वर्ष! पचहत्तर वर्ष से कम तो आपकी उम्र न होगी।

वह बूढ़ा कहने लगा, हां, सत्तर वर्ष भी जीया हूं, लेकिन वे जीने के वर्ष नहीं कहे जा सकते। उनकी गिनती उम्र में कैसे करूं? पांच वर्षों से जीवन को जाना है, इसलिए पांच ही वर्ष उम्र की गिनती करता हूं। वे सत्तर वर्ष सोते बीत गए–नींद में, बेहोशी में, मूर्च्छा में। उनकी गिनती कैसे करूं? नहीं जानता था जीवन को, तो फिर उनको भी गिनती कर लेता था। जब से जीवन को जाना, तब से उनकी गिनती करनी बहुत मुश्किल हो गई है।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओ, आज से तुम भी अपनी गिनती जीवन की इसी भांति करना।

यही मैं आपसे भी इन दिनों में कहना चाहता हूं कि जिसे हम अब तक जीवन जान रहे हैं, वह जीवन नहीं, एक निद्रा है, एक मूर्च्छा है; एक दुख की लंबी कथा है; एक अर्थहीन खालीपन, एक मीनिंगलेस एंप्टीनेस है। जहां कुछ भी नहीं है हमारे हाथों में। जहां न हमने कुछ जाना है और न कुछ जीया है।

लेकिन फिर जीवन कहां है जिसकी हम बात करें? उस जीवन को पाने के सूत्र क्या हैं?

एक सूत्र पर सुबह मैंने बात की है, दूसरे सूत्र पर अभी बात करूंगा।

दूसरे सूत्र को समझने के लिए एक बात समझ लेनी जरूरी है। मनुष्य का जीवन भीतर से बाहर की तरफ आता है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं। जीवन भीतर से बाहर की तरफ आता है। एक बीज से अंकुर निकलता है, वह भीतर से आता है। फिर वृक्ष बड़ा होता है, फिर पत्ते और फूल और फल आते हैं। उस छोटे से बीज से एक बड़ा वृक्ष निकलता है, जिसके नीचे हजारों लोग विश्राम कर सकें, छाया ले सकें। एक छोटे से बीज से बहुत बड़ा वृक्ष निकलता है, जिसको तौलने बैठें तो कल्पना के बाहर है। इतने छोटे बीज में इतना बड़ा वृक्ष कैसे छिपा हो सकता है? लेकिन वृक्ष बाहर से नहीं आता है–यह अंधा भी कह सकेगा। वृक्ष भीतर से आता है, उस छोटे से बीज से ही आता है।

जीवन भी छोटे ही बीज से भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और हम सारे लोग जीवन को बाहर ही खोजते हैं। जीवन आता है भीतर से, फैलता है बाहर की तरफ। बाहर जीवन का विस्तार है, जीवन का केंद्र नहीं। जीवन की मूल ऊर्जा, जीवन का सोर्स, जीवन का स्रोत भीतर है, जीवन की शाखाएं बाहर हैं। और हम सब जीवन को खोजते हैं बाहर, इसलिए जीवन से वंचित रह जाते हैं, जीवन को नहीं जान पाते हैं! पत्तों को जान लेते हैं, पत्तों को पहचान लेते हैं, लेकिन पत्ते? पत्ते जड़ें नहीं हैं।

मैंने सुना है, माओत्से तुंग ने अपने बचपन की एक छोटी सी घटना लिखी है। लिखा है कि मैं छोटा था तो मेरी मां का एक बगीचा था। उस बगीचे में ऐसे बड़े फूल खिलते थे कि दूर-दूर से लोग उन्हें देखने आते थे। फिर एक बार मेरी बूढ़ी मां बीमार पड़ी। वह बहुत चिंतित थी–बीमारी के लिए नहीं, अपने बगीचे के लिए–कि बगीचा कुम्हला न जाए। वह इतनी बीमार थी कि बिस्तर से उठ कर बाहर आ भी नहीं सकती थी।

तो उसके बेटे ने कहा, घबड़ाओ मत, मैं फिक्र कर लूंगा। और उसके बेटे ने पंद्रह दिन तक बहुत फिक्र की। एक-एक पत्ते की धूल झाड़ी, एक-एक पत्ते को पोंछा और चूमा। एक-एक पत्ते को सम्हाला, एक-एक फूल की फिक्र की। लेकिन न मालूम क्या, इतनी फिक्र, इतनी चिंता, बगीचा सूखता गया!

पंद्रह दिन बाद उसकी बूढ़ी मां बाहर आई तो उसका बेटा रो रहा था, और बूढ़ी मां ने देखा तो उसकी बगिया तो उजड़ गई थी! वृक्ष बेहोश होकर गिर पड़े थे, पत्ते सूख गए थे, फूल कुम्हला गए थे, कलियां कलियां ही रह गई थीं, फूल नहीं बनी थीं। उसकी मां कहने लगी कि तू क्या करता था पंद्रह दिन से सुबह से रात तक? सोता भी नहीं था! यह क्या हुआ?

उसके बेटे ने कहा, मैंने बहुत फिक्र की। मैंने एक-एक पत्ते की धूल झाड़ी। मैंने एक-एक फूल पर पानी छिड़का। मैंने एक-एक पौधे को गले लगा कर प्रेम किया। लेकिन न मालूम कैसे पागल पौधे हैं, सब कुम्हला गए, सब सूख गए।

उसकी मां की आंखों में बगिया को देख कर आंसू थे, लेकिन बेटे की हालत देख कर वह हंसने लगी और उसने कहा, पागल, फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते, उन जड़ों में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़तीं और जमीन के नीचे छिपी हैं। पानी फूलों को नहीं देना पड़ता, जड़ों को देना पड़ता है। फिक्र पत्तों की नहीं करनी पड़ती, जड़ों की करनी पड़ती है। पत्तों की लाख फिक्र, तो भी जड़ें कुम्हला जाएंगी और पत्ते भी सूख जाएंगे। और जड़ों की थोड़ी सी फिक्र और पत्तों की कोई भी फिक्र नहीं, तो भी पत्ते फलते रहेंगे, खिलते रहेंगे, फूल फैलते रहेंगे, सुगंध उड़ती रहेगी। जो छिपी है जड़!

लेकिन उसके बेटे ने पूछा, जड़ें कहां हैं? वे दिखाई तो नहीं पड़ती हैं!

और अधिक आदमी भी यही पूछते हैं–जीवन कहां है? वह दिखाई नहीं पड़ता, बहुत छिपा है–अपने ही भीतर, अपनी ही जड़ों में। बाहर जहां दिखाई पड़ता है सब कुछ, वहां पत्ते हैं, शाखाएं हैं। अदृश्य, भीतर, जहां दिखाई नहीं पड़ता और घोर अंधकार है, वहां जड़ें हैं जीवन की।

दूसरा सूत्र समझ लेना जरूरी है और वह यह कि जीवन बाहर नहीं है, भीतर है। विस्तार बाहर है, प्राण भीतर है। फूल बाहर खिलते हैं, जड़ें भीतर हैं। और जड़ों के संबंध में हम सब भूल गए हैं। उस माओ पर हम हंसेंगे कि नादान था वह लड़का बहुत, लेकिन हम अपने पर नहीं हंसते हैं कि हम जीवन के बगीचे में उतने ही नादान हैं।

और अगर आदमी के चेहरे से मुस्कुराहट चली गई है, और आदमी की आंखों से शांति खो गई है, और आदमी के हृदय में फूल नहीं लगते, और आदमी की जिंदगी में संगीत नहीं बजता, और आदमी की जिंदगी एक बे-रौनक उदासी हो गई है, तो फिर हम पूछते हैं कि हम कितना तो सम्हालते हैं–कितने अच्छे मकान बनाते हैं, कितने अच्छे रास्ते बनाते हैं, कितने अच्छे कपड़े पैदा करते हैं, सब कुछ, कितनी अच्छी शिक्षा देते हैं, कितने विद्यालय निर्मित करते हैं, कितना विज्ञान विस्तार करता है–सब तो हम करते हैं, लेकिन आदमी कुम्हलाता क्यों चला जाता है?

वह हम वही पूछते हैं जो उस लड़के ने पूछा था कि मैंने एक-एक पत्ते को सम्हाला, लेकिन फूल क्यों कुम्हला गए? पौधे क्यों कुम्हला गए?

आदमी कुम्हला गया है, क्योंकि हम बाहर सम्हाल रहे हैं। और ध्यान रहे–और यही बात बहुत महत्वपूर्ण है–कि बाहर जिनको हम भौतिकवादी कहते हैं वे ही केवल बाहर नहीं देखते, जिनको हम अध्यात्मवादी कहते हैं, दुर्भाग्य है, वे भी बाहर ही देखते हैं और बाहर ही सम्हालते हैं!

भौतिकवादी तो बाहर सम्हालेगा, क्योंकि भौतिकवादी मानता है भीतर जैसी कोई चीज ही नहीं है। भीतर है ही नहीं। भौतिकवादी कहता है, भीतर कोरा शब्द है। भीतर कुछ भी नहीं है। हालांकि यह बड़ी अजीब बात मालूम पड़ती है। क्योंकि जिसका भी बाहर होता है, उसका भीतर अनिवार्य रूप से होता है। यह असंभव है कि बाहर ही बाहर हो और भीतर न हो। अगर भीतर न हो, तो बाहर नहीं हो सकता है। अगर एक मकान की बाहर की दीवाल है, तो भीतर भी होगा। अगर एक पत्थर की बाहर की रूप-रेखा है, तो भीतर भी कुछ होगा। बाहर की जो रूप-रेखा है, वह भीतर को ही घेरने वाली रूप-रेखा होती है। बाहर का अर्थ है, भीतर को घेरने वाला। और अगर भीतर न हो, तो बाहर कुछ भी नहीं हो सकता।

लेकिन भौतिकवादी कहता है कि भीतर कुछ नहीं, इसलिए भौतिकवादी को क्षमा किया जा सकता है। लेकिन अध्यात्मवादी भी सारी चेष्टा बाहर करता है। वह भी कहता है, ब्रह्मचर्य साधो! वह भी कहता है, अहिंसा साधो! वह भी कहता है, सत्य साधो! वह भी गुणों को साधने की कोशिश करता है!

अहिंसा, ब्रह्मचर्य, प्रेम, करुणा, दया–सब फूल हैं, जड़ उनमें से कोई भी नहीं है।

जड़ सम्हल जाए, तो अहिंसा अपने आप पैदा हो जाती है। और अगर जड़ न सम्हले, तो अहिंसा को जिंदगी भर सम्हालो, अहिंसा पैदा नहीं होती। बल्कि अहिंसा के पीछे निरंतर हिंसा खड़ी रहती है। और वह हिंसक बेहतर, जो हिंसक है; वह अहिंसक बहुत खतरनाक, जो भीतर हिंसक है।

जिन मुल्कों ने अध्यात्म की बहुत बात की है, उन्होंने बाहर से एक थोथा अध्यात्म पैदा कर लिया है। बाहर का जो थोथा अध्यात्म है, वह गुणों पर जोर देता है, अंतस पर नहीं। वह कहता है–सेक्स छोड़ो, ब्रह्मचर्य साधो! वह कहता है–झूठ छोड़ो, सत्य को साधो! वह कहता है–कांटे हटा लो, फूल-फूल पैदा करो! लेकिन वह इसकी बिलकुल फिक्र नहीं करता कि फूल कहां से पैदा होते हैं, वे जड़ें कहां हैं? और अगर वे जड़ें न सम्हाली जाएं, तो फूल पैदा होने वाले नहीं हैं। हां, कोई चाहे तो बाजार से कागज के फूल लाकर अपने ऊपर चिपका सकता है।

और दुनिया में अध्यात्म के नाम से कागज के फूल चिपकाए हुए लोगों की भीड़ खड़ी हो गई है। और इन कागज के अध्यात्मवादी लोगों के कारण भौतिकवाद को दुनिया में नहीं हराया जा पा रहा है। क्योंकि भौतिकवाद कहता है, यही है तुम्हारा अध्यात्म? ये कागज के फूल? और इन कागज के फूलों को देख कर भौतिकवादी को लगता है–नहीं है कुछ भीतर, सब ऊपर की बातें हैं। ये फूल भी सब ऊपर से ले आए गए हैं।

अध्यात्म के नाम से बाहर का आरोपण चल रहा है, कल्टीवेशन और इंपोजीशन चल रहा है। आदमी, भीतर क्या है सोया हुआ, उसे जगाने की चिंता में नहीं, बाहर से अच्छे वस्त्र पहन लेने की चिंता में है! इससे एक अदभुत धोखा पैदा हो गया है। दुनिया में भौतिकवादी हैं और दुनिया में झूठे अध्यात्मवादी हैं। दुनिया में सच्चा आदमी खोजना मुश्किल होता चला जाता है।

हां, कभी कोई एकाध सच्चा आदमी पैदा होता है। लेकिन उस आदमी को भी हम नहीं समझ पाते, क्योंकि उसको भी हम बाहर से देखते हैं कि वह क्या करता है? वह कैसे चलता है? क्या पहनता है? क्या खाता है? और इसी आधार पर हम निर्णय लेते हैं कि वह भीतर क्या होगा!

नहीं, फूल के आधार पर जड़ों का पता नहीं चलता है। फूल के रंग देख कर जड़ों का कुछ पता नहीं चलता है। पत्तों से जड़ों का कुछ पता नहीं चलता है। जड़ें कुछ बात ही और है। वह आयाम दूसरा है; वह डायमेंशन दूसरा है। लेकिन यह ऊपर से सम्हालने की, वस्त्रों को सम्हालने की लंबी कथा चल रही है। और हमने एक झूठा आदमी पैदा कर लिया है। इस झूठे आदमी का भी कोई जीवन नहीं होता है। इस झूठे आदमी को हम थोड़ा समझ लें; क्योंकि यह झूठा आदमी कहीं और नहीं है, हम सब झूठे आदमी हैं।

मैंने सुना है, एक किसान ने एक खेत में एक झूठा आदमी बना कर खड़ा कर दिया था। किसान खेतों में आदमी झूठा बना कर खड़ा कर देते हैं। कुर्ता पहना दिया था, हंडी लगा दी थी, मुंह बना दिया था। जंगली जानवर उस आदमी को देख कर डर जाते थे, भाग जाते थे। पक्षी उस खेत में आने से डरते थे। एक दार्शनिक उस झूठे आदमी के पास से निकलता था। और उस दार्शनिक ने उस झूठे आदमी को पूछा कि दोस्त, सदा यहीं खड़े रहते हो? धूप आती है, वर्षा आती है, सर्दियां आती हैं, रात आती है, अंधेरा हो जाता है–तुम यहीं खड़े रहते हो? ऊबते नहीं? घबराते नहीं? परेशान नहीं होते?

वह झूठा आदमी बहुत हंसने लगा। उसने कहा, परेशान! परेशान कभी भी नहीं होता, दूसरों को डराने में इतना मजा आता है कि सब वर्षा भी गुजार देता हूं, धूप भी गुजार देता हूं, रात भी गुजार देता हूं। दूसरों को डराने में इतना मजा आता है! दूसरों को प्रभावित देख कर, भयभीत देख कर बहुत मजा आता है। दूसरों की आंखों में सच्चा दिखाई पड़ता हूं–बस बात खत्म हो जाती है। पक्षी डरते हैं कि मैं सच्चा आदमी हूं। जंगली जानवर भय खाते हैं कि मैं सच्चा आदमी हूं। उनकी आंखों में देख कर कि मैं सच्चा हूं, बहुत आनंद आता है।

उस दार्शनिक ने कहा कि बड़ी आश्चर्य की बात है! लेकिन तुम जो कहते हो, वही हालत मेरी भी है। मैं भी दूसरों की आंखों में देखता हूं कि मैं क्या हूं और उसी से आनंद लेता चला जाता हूं!

वह झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा कि तब फिर मैं समझ गया, तुम भी एक झूठे आदमी हो।

पता नहीं यह बात कहीं हुई या नहीं हुई। लेकिन झूठे आदमी की एक पहचान है: वह हमेशा दूसरों की आंखों में देखता है कि कैसा दिखाई पड़ता है। उसे इससे मतलब नहीं कि वह क्या है। उसकी सारी चिंता, उसकी सारी चेष्टा एक है कि वह दूसरों को कैसा दिखाई पड़ता है! वे जो चारों तरफ देखने वाले लोग हैं, वे क्या कहते हैं!

यह जो बाहर का थोथा अध्यात्म है, यह लोगों की चिंता से पैदा हुआ है–लोग क्या कहते हैं! और जो आदमी यह सोचता है कि लोग क्या कहते हैं–वे क्या कहते हैं–वह आदमी कभी भी जीवन के अनुभव को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो आदमी यह फिक्र करता है कि भीड़ क्या कहती है, और जो भीड़ के हिसाब से अपने व्यक्तित्व को निर्मित करता है, वह आदमी भीतर जो सोए हुए प्राण हैं, उसको कभी नहीं जगा पाएगा। वह बाहर से ही वस्त्र ओढ़ लेगा, और लोगों की आंखों में भला दिखाई पड़ने लगेगा, और बात समाप्त हो जाएगी।

हम वैसे दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे हम नहीं हैं!

हम वैसे दिखाई पड़ रहे हैं, जैसे हम कभी भी नहीं थे!

हम वैसे दिखाई पड़ रहे हैं, जैसा दिखाई पड़ना सुखद मालूम पड़ता है! लेकिन वैसे हम नहीं हैं।

मैंने सुना है कि लंदन के एक फोटोग्राफर ने अपनी दुकान के सामने एक बड़ी तख्ती लगा रखी थी। और उस तख्ती पर लिख रखा था कि तीन तरह के फोटो हम यहां उतारते हैं। पहली तरह के फोटो का दाम सिर्फ पांच रुपया है। वह फोटो ऐसा होगा, जैसे आप हैं। दूसरे फोटो का दाम दस रुपया है। वह ऐसा होगा, जैसे आप दिखाई पड़ते हैं। तीसरे का दाम पंद्रह रुपया है। वह ऐसा होगा, जैसे आप दिखाई पड़ना चाहते हैं।

एक गांव का आदमी आया था फोटो निकलवाने, वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। वह पूछने लगा, तीनत्तीन तरह के फोटो एक आदमी के कैसे हो सकते हैं? फोटो तो एक ही तरह का होता है! एक ही आदमी के तीन तरह के फोटो कैसे हो सकते हैं? और वह ग्रामीण पूछने लगा कि जब पांच रुपये में फोटो उतर सकता है, तो पंद्रह रुपये में कौन उतरवाता होगा!

वह फोटोग्राफर बोला कि नासमझ, नादान, तू पहला आदमी आया है, जो पहली तरह का फोटो उतरवाने का विचार कर रहा है। अब तक पहली तरह का फोटो उतरवाने वाला कोई आदमी नहीं आया। कोई दूसरी तरह का उतरवाता है, पैसे की कमी होती है तो। और नहीं तो तीसरी तरह के ही लोग उतरवाते हैं। पहली तरह का तो कोई उतरवाता ही नहीं।

कोई आदमी नहीं चाहता कि दिखाई पड़े वैसा, जैसा वह है। दूसरों को भी दिखाई न पड़े, और खुद को भी दिखाई न पड़े, जैसा वह है।

तो फिर भीतर यात्रा नहीं हो सकती है। क्योंकि भीतर तो सत्य की सीढ़ियां चढ़ कर ही यात्रा होती है, असत्य की सीढ़ियां चढ़ कर नहीं। और ध्यान रहे, अगर बाहर यात्रा करनी हो, तो असत्य की सीढ़ियां चढ़े बिना बाहर कोई यात्रा नहीं होती। अगर दिल्ली पहुंचना हो, तो असत्य की सीढ़ियां चढ़े बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती। और भीतर जाना हो, तो सत्य की सीढ़ियां चढ़े बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती। अगर बहुत धन के अंबार लगाने हों, तो असत्य की यात्रा के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अगर बहुत यश पाना हो, प्रतिष्ठा पानी हो, नेतृत्व पाना हो, तो असत्य के सिवाय कोई यात्रा नहीं है। बाहर की सारी यात्रा की सीढ़ियां असत्य की ईंटों से निर्मित हैं।

भीतर की यात्रा सत्य की सीढ़ियों से करनी पड़ती है। और पहला सत्य बहुत कठिन पड़ता है–इस बात को जानना कि मैं सच में क्या हूं? हम तो इसे दबाते हैं, जो मैं हूं। हम तो इसे भुलाते हैं। हम शरीर को तो बहुत देखते हैं आईने के सामने रख-रख कर, लेकिन वह जो भीतर है, उसके सामने कभी आईना नहीं रखते। और अगर कोई आईना ले आए, तो हम बहुत नाराज हो जाते हैं। आईना भी तोड़ देंगे, उस आदमी का सिर भी तोड़ देंगे। आईना दिखलाते हो?

कोई आदमी भीतर के आदमी को देखने के लिए तैयार नहीं है। और इसलिए दुनिया में जिन लोगों ने भी भीतर के असली आदमी को दिखाने की कोशिश की है, उनके साथ हमने वह व्यवहार किया है, जो दुश्मन के साथ करना चाहिए। चाहे हम जीसस को सूली पर लटका दें और चाहे सुकरात को जहर पिला दें, जो भी आदमी हमारी असलियत को दिखाने की कोशिश करेगा, हम बहुत नाराज हो जाते हैं; क्योंकि वह हमारी नग्नता को खोल कर हमारे सामने रखता है। और हम–हम धीरे-धीरे भूल ही गए हैं कि वस्त्रों के भीतर हम नंगे भी हैं! हम धीरे-धीरे समझने लगे हैं कि हम वस्त्र ही हैं। भीतर एक नंगा आदमी भी है, उसे हम धीरे-धीरे भूल गए हैं–बिलकुल भूल गए हैं! बिलकुल भूल गए हैं, उसकी हमें कोई याद नहीं रही है। वही हमारी असलियत है। उस असलियत पर पैर रखे बिना, और भी गहरी असलियतें हैं भीतर, उन तक नहीं पहुंचा जा सकता।

इसलिए दूसरा सूत्र है: मैं जैसा हूं, उसका साक्षात्कार।

लेकिन वह हम नहीं करते हैं। हम तो दबा-दबा कर अपनी एक झूठी तस्वीर, एक फाल्स इमेज खड़ी करने की कोशिश करते हैं!

भीतर हिंसा भरी है, और आदमी पानी छान कर पीएगा और कहेगा कि मैं अहिंसक हूं! भीतर हिंसा की आग जल रही है, भीतर सारी दुनिया को मिटा देने का पागलपन है, भीतर विध्वंस है, भीतर वायलेंस है, और एक आदमी रात खाना नहीं खाएगा और सोचेगा कि मैं अहिंसक हूं!

हम सस्ती तरकीब निकालते हैं कुछ हो जाने की। इतना सस्ता मामला नहीं है। आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, इससे आप अहिंसक नहीं होते। हां, आप अहिंसक हो जाएंगे तो आपका खाना-पीना जरूर बदल जाएगा। लेकिन आपके खाने-पीने के बदलने से आप अहिंसक नहीं हो सकते हैं। यह बात जरूर सच है कि भीतर प्रेम आएगा तो आपका बाहर का व्यक्तित्व बदल जाएगा। लेकिन बाहर के व्यक्तित्व बदल लेने से भीतर प्रेम नहीं आता है। उलटा सच नहीं है। अगर प्रेम आ जाए तो मैं किसी को गले से लगा सकता हूं; लेकिन गले से लगा लेने से यह मत सोचना कि प्रेम आ गया। गले से हम लगा सकते हैं, और कवायद हो जाएगी, प्रेम-व्रेम नहीं आएगा।

लेकिन लोग सोचते हैं, गले से लगाने से प्रेम आ जाता है, बात खतम हो गई। तो गले से लगाने की तरकीब सीख लो, बात खत्म हो जाती है। तो एक आदमी गले से लगाने की तरकीब सीख लेता है और सोचता है कि प्रेम आ गया।

गले लगाने से प्रेम के आने का क्या संबंध हो सकता है? कोई भी संबंध नहीं हो सकता।

श्रद्धा भीतर आ जाए, आदर भीतर आ जाए, तो आदमी झुक जाता है। लेकिन झुकने से श्रद्धा नहीं आ जाती–कि आप झुक गए तो श्रद्धा आ गई। आपका शरीर झुक जाएगा, आप पीछे अकड़े हुए खड़े रहोगे। देख लेना खयाल से–जब मंदिर में जाकर झुको तब देख लेना कि आप खड़े हो, सिर्फ शरीर झुक रहा है। आप खड़े ही हुए हो। आप खड़े होकर चारों तरफ देख रहे हो कि मंदिर में लोग देख रहे हैं कि नहीं कि मैं आया हूं! कोई मुहल्ले-पड़ोस का देखता है कि नहीं देखता! आप खड़े होकर यह देखते रहोगे, शरीर झुकेगा। शरीर के झुकने से क्या अर्थ है?

लेकिन हम जो हैं, उसे छिपाने को हमने सस्ती तरकीबें खोज ली हैं। एक आदमी पाप करता है–और कौन आदमी पाप नहीं करता–और फिर गंगा जाकर स्नान कर आता है! और निश्चिंत हो जाता है। गंगा-स्नान से पाप मिट गए?

रामकृष्ण के पास एक आदमी गया और कहा, परमहंस, गंगा-स्नान को जा रहा हूं, आशीर्वाद दे दें!

रामकृष्ण ने कहा, किसलिए कष्ट कर रहा है? किसलिए गंगा को तकलीफ देने जा रहा है? मामला क्या है? गंगा भी घबड़ा गई होगी। आखिर कितना जमाना हो गया पापियों के पाप धोते-धोते।

वह आदमी कहने लगा कि हां, उसी के लिए जा रहा हूं कि पापों से छुटकारा हो जाए। आशीर्वाद दे दें।

रामकृष्ण ने कहा, तुझे पता है, गंगा के किनारे जो बड़े-बड़े झाड़ होते हैं, वे देखे, वे किसलिए हैं?

उस आदमी ने कहा, किसलिए हैं? मुझे पता नहीं।

रामकृष्ण ने कहा, पागल, तू गंगा में डूबेगा, पाप बाहर निकल कर झाड़ों पर बैठ जाएंगे। फिर निकलेगा पानी से कि नहीं? वे झाड़ों पर बैठे रास्ता देखेंगे कि बेटे निकलो और हम तुम पर फिर सवार हो जाएं! वे झाड़ इसीलिए हैं गंगा के किनारे। कब तक पानी में डूबे रहोगे? निकलोगे तो! बेकार मेहनत मत करो, रामकृष्ण ने उससे कहा, तुमको भी तकलीफ होगी, गंगा को भी, पापों को भी, वृक्षों को भी। इस सस्ती तरकीब से कुछ हल नहीं है।

लेकिन हम सब सस्ती तरकीबें खोज रहे हैं। गंगा-स्नान कर लेंगे। और गंगा-स्नान जैसे ही मामले हैं हमारे सारे। एक ऊपर से व्यक्तित्व खड़ा करने की कोशिश करते हैं–उसे झुठलाने के लिए, जो हम भीतर हैं।

टाल्सटाय एक दिन सुबह-सुबह चर्च गया। जल्दी थी, अंधेरा था अभी, रास्ते पर कोहरा पड़ रहा था, पांच ही बजे होंगे। जल्दी गया था कि अकेले में कुछ प्रार्थना कर लूंगा। जाकर देखा कि उसके पहले भी कोई आया हुआ है। अंधेरे में, चर्च के द्वार पर हाथ जोड़े हुए एक आदमी खड़ा है। और वह आदमी कह रहा है कि हे परमात्मा, मुझसे ज्यादा पापी कोई भी नहीं है। मैंने बड़े पाप किए हैं; मैंने बड़ी बुराइयां की हैं; मैंने बड़े अपराध किए हैं; मैं बिलकुल हत्यारा हूं। मुझे क्षमा करना!

टाल्सटाय ने देखा कि कौन आदमी है जो अपने मुंह से कहता है कि मैंने पाप किए, मैं हत्यारा हूं! कोई आदमी नहीं कहता। बल्कि हत्यारे से कहो कि हत्यारे हो, तो तलवार लेकर खड़ा हो जाएगा, कहेगा: किसने कहा? हत्या करने को राजी हो जाएगा, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होगा कि मैं हत्यारा हूं। यह कौन आदमी आ गया? टाल्सटाय धीरे-धीरे सरक कर पास पहुंच गया। आवाज पहचानी हुई मालूम पड़ी। यह तो नगर का सबसे बड़ा धनपति था! उसकी सारी बातें टाल्सटाय खड़े होकर सुनता रहा।

जब वह आदमी लौटा, टाल्सटाय को देख कर उस आदमी ने कहा, क्या तुमने मेरी बातें सुनीं?

टाल्सटाय ने कहा, मैं धन्य हो गया तुम्हारी बातें सुन कर। तुम इतने पवित्र आदमी हो कि अपने सब पाप को तुमने इस तरह खोल कर रख दिया!

उसने कहा, ध्यान रहे, यह बात किसी से कहना मत! यह मेरे और परमात्मा के बीच थी। मुझे पता भी नहीं था कि तुम यहां खड़े हुए हो। अगर बाजार में यह बात पहुंची, तो मानहानि का मुकदमा चलाऊंगा।

टाल्सटाय ने कहा, अरे, अभी तो तुम कहते थे…

उसने कहा, वह सब दूसरी बात है। वह तुमसे मैंने नहीं कहा और दुनिया से कहने के लिए नहीं है। वह अपने और परमात्मा के बीच की बात है!

चूंकि परमात्मा कहीं भी नहीं है, इसलिए उसके सामने हम नंगे खड़े हो सकते हैं। लेकिन जो आदमी जगत के सामने सच्चा होने को राजी नहीं है, उसके सामने परमात्मा कभी सच्चा नहीं हो सकता है। हम अपने ही सामने सच्चे होने को राजी नहीं हैं!

लेकिन यह डर क्या है इतना? यह चारों तरफ के लोगों का इतना भय क्या है? चारों तरफ की लोगों की आंखें एक-एक आदमी को भयभीत किए हैं। हम सब मिल कर एक-एक आदमी को भयभीत किए हुए हैं। और वह आदमी इतना भयभीत क्यों है? वह किस बात की चिंता में है?

वह बाहर से फूल सजा लेने की चिंता में है। बस लोगों की आंखों में दिखाई पड़ने लगे कि मैं अच्छा आदमी हूं, बात समाप्त हो गई। लेकिन लोगों के दिखाई पड़ने से मेरे जीवन का सत्य और मेरे जीवन का संगीत प्रकट नहीं होगा। और न लोगों के दिखाई पड़ने से मैं जीवन की मूल धारा से संबंधित हो जाऊंगा। और न लोगों के दिखाई पड़ने से मेरे जीवन की जड़ों तक मेरी पहुंच हो जाएगी। बल्कि, जितना मैं लोगों की फिक्र करूंगा, उतना ही मैं शाखाओं और पत्तों की फिक्र में पड़ जाऊंगा; क्योंकि लोगों तक सिर्फ पत्ते पहुंचते हैं, जड़ें मेरे भीतर हैं। वे जो रूट्स हैं, वे मेरे भीतर हैं। उनसे लोगों का कोई भी संबंध नहीं है। वहां मैं अकेला हूं। टोटली अलोन! वहां कोई कभी नहीं पहुंचता। वहां मैं हूं। वहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। वहां मुझे फिक्र करनी है।

अगर जीवन को मैं जानना चाहता हूं; और चाहता हूं कि जीवन बदल जाए, रूपांतरित हो जाए; और अगर चाहता हूं कि जीवन की परिपूर्ण शक्ति प्रकट हो जाए; और अगर चाहता हूं कि जीवन के मंदिर में प्रवेश हो जाए; मैं पहुंच सकूं उस लोक तक, जहां सत्य का आवास है–तो फिर मुझे लोगों की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी; वह जो क्राउड, वह जो भीड़ घेरे हुए है। जो आदमी भीड़ की बहुत चिंता करता है, वह आदमी कभी भी जीवन की दिशा में गतिमान नहीं हो पाता। क्योंकि भीड़ की चिंता बाहर की चिंता है।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भीड़ की सारी जीवन-व्यवस्था को तोड़ कर कोई चल पड़े। इसका यह मतलब नहीं है। इसका कुल मतलब यह है कि आंखें भीड़ पर न रह जाएं, आंखें अपने पर हों। इसका कुल मतलब यह है कि दूसरे की आंख में मैं न झांकूं कि मेरी तस्वीर क्या है। मैं अपने ही भीतर झांकूं कि मेरी तस्वीर क्या है! अगर मेरी सच्ची तस्वीर का मुझे पता लगाना है, तो मुझे मेरी ही आंखों के भीतर उतरना पड़ेगा। दूसरों की आंखों में मेरा एपियरेंस है, मेरी असली तस्वीर नहीं है वहां। और उसी तस्वीर को देख कर मैं खुश हो लूंगा, उसी तस्वीर को प्रसन्न हो लूंगा। वह तस्वीर गिर जाएगी, तो दुखी हो जाऊंगा। अगर चार आदमी बुरा कहने लगेंगे, तो दुखी हो जाऊंगा। चार आदमी अच्छा कहने लगेंगे, तो सुखी हो जाऊंगा। बस इतना ही मेरा होना है?

तो मैं हवा के झोंकों पर जी रहा हूं। हवा पूरब उड़ने लगेगी, तो मुझे पूरब उड़ना पड़ेगा; हवा पश्चिम उड़ेगी, तो मुझे पश्चिम उड़ना पड़ेगा। लेकिन मैं खुद कुछ भी नहीं हूं। मेरा कोई आथेंटिक एक्झिस्टेंस नहीं है। मेरी अपनी कोई आत्मा नहीं है। मैं हवा का एक झोंका हूं। मैं एक सूखा पत्ता हूं कि हवाएं जहां ले जाएं, बस चला जाऊं; कि पानी की लहरें जहां मुझे बहाने लगें, बहूं। दुनिया की आंखें मुझ से कहें कि यह! तो वही सत्य हो जाए। तो फिर मेरा होना क्या है? मेरी आत्मा क्या है? फिर मेरा अस्तित्व क्या है? फिर मेरा जीवन क्या है? फिर मैं एक झूठ हूं। एक बड़े नाटक का हिस्सा हूं।

और बड़े मजे की बात यह है कि जिस भीड़ से मैं डर रहा हूं, वह भी मेरे ही जैसे झूठे लोगों की भीड़ है। अजीब बात है! वे सब भी मुझ से डर रहे हैं जिनसे मैं डर रहा हूं। हम सब एक-दूसरे से डर रहे हैं। और इस डर में हमने एक तस्वीर बना ली है जो सच्ची नहीं है। और भीतर जाने में डरते हैं कि कहीं यह तस्वीर न गिर जाए, कहीं यह तस्वीर न गिर जाए।

एक बात यह है कि एक सप्रेशन, एक दमन चल रहा है। आदमी जो भीतर है, उसे दबा रहा है; और जो नहीं है, उसे थोप रहा है, उसका आरोपण कर रहा है। एक द्वंद्व, एक कांफ्लिक्ट खड़ी हो गई है। एक-एक आदमी अनेक-अनेक आदमियों में बंट गया है, मल्टी साइकिक हो गया है। एक-एक आदमी एक-एक आदमी नहीं है, चौबीस घंटे में हजार बार बदल जाता है! हर नया आदमी सामने आता है और नई तस्वीर बनती है उसकी आंख में, और वह आदमी बदल जाता है!

आप जरा खयाल करना, अपनी पत्नी के सामने आप दूसरे आदमी होते हो, अपने बेटे के सामने दूसरे, अपने बाप के सामने तीसरे, अपने नौकर के सामने चौथे, अपने मालिक के सामने छठवें। दिन भर आप अलग-अलग आदमी होते हो। सामने आदमी बदला, और आपको बदलना पड़ता है। क्योंकि आप तो कुछ हो ही नहीं। आप तो वह जो दूसरे की आंखें हैं उनको देख कर कुछ हो। अपने नौकर के सामने देखा है आप कितने शानदार आदमी हो जाते हो। और अपने मालिक के सामने? वह जो हालत आपके नौकर की आपके सामने होती है, वह अपने मालिक के सामने आप की हो जाती है!

आप कुछ हो या नहीं? कि हर दर्पण आपको बनाता है? जो भी सामने आ जाता है, वही आपको बना देता है! बहुत अजीब है! हम हैं? हम हैं ही नहीं शायद। हम एक अभिनय हैं, एक एक्टिंग। सुबह से सांझ तक अभिनय चल रहा है। सुबह कुछ हैं, दोपहर कुछ हैं, सांझ कुछ हैं। जरा खीसे में पैसे हों, तब आप वही आदमी रह जाते हैं? बिलकुल दूसरे आदमी हो जाते हैं। जब पैसे नहीं होते खीसे में, तब बिलकुल दूसरे आदमी हो जाते हैं। जान ही निकल जाती है भीतर से। आदमी और हो गए।

जरा पद पर देखें किसी को, किसी मिनिस्टर को देखें। और फिर वह मिनिस्टर न रह जाए, तब उसको देखें। जैसे कि कपड़े की क्रीज निकल गई हो। सब खत्म। आदमी गया। आदमी था ही नहीं।

मैंने सुना है, जापान में एक फकीर था एक गांव में, एक सुंदर युवा। था वह फकीर। सारा गांव उसे श्रद्धा करता और आदर देता। लेकिन एक दिन सारी बात बदल गई। गांव में अफवाह उड़ी कि उस फकीर से किसी स्त्री को बच्चा रह गया। वह बच्चा पैदा हुआ है। उस स्त्री ने अपने बाप को कह दिया है कि उस फकीर का बच्चा है, यह फकीर उसका बाप है। सारा गांव टूट पड़ा उस फकीर पर। जाकर उसकी झोपड़ी में आग लगा दी। सुबह सर्दी के दिन थे, वह बाहर बैठा था। उसने पूछा कि मित्रो, यह क्या कर रहे हो? क्या बात है?

तो जाकर उन्होंने उस बच्चे को उसके ऊपर पटक दिया और कहा, हमसे पूछते हो क्या बात है? यह बेटा तुम्हारा है!

उस फकीर ने कहा, इज़ इट सो? ऐसी बात है? अब जब तुम कहते हो तो ठीक ही कहते होओगे। क्योंकि भीड़ तो कुछ गलत कहती ही नहीं, भीड़ तो हमेशा सच ही कहती है। अब जब तुम कहते हो तो ठीक ही कहते होओगे।

वह बेटा रोने लगा, तो वह उसे समझाने लगा। गांव भर के लोग गालियां देकर वापस लौट आए उस बच्चे को उसी के पास छोड़ कर।

फिर दोपहर को जब वह भीख मांगने निकला, तो उस बच्चे को लेकर भीख मांगने निकला गांव में। कौन उसे भीख देगा? आप भीख देते? कोई उसे भीख नहीं देगा। जिस दरवाजे पर गया, दरवाजे बंद हो गए। उस रोते हुए छोटे बच्चे को लेकर उस फकीर का उस गांव से गुजरना–बड़ी अजीब सी हालत रही होगी। बच्चों की, लोगों की भीड़ उसके पीछे गालियां देती हुई।

फिर वह उस दरवाजे के सामने पहुंचा, जिसकी बेटी का यह लड़का है। और उसने उस दरवाजे के सामने आवाज लगाई कि कसूर मेरा होगा इसका बाप होने में, लेकिन इसका मेरे बेटे होने में तो कोई कसूर नहीं हो सकता। बाप होने में मेरी गलती होगी, लेकिन इसकी तो कोई गलती नहीं हो सकती। कम से कम इसे तो दूध मिल जाए।

वह लड़की द्वार पर खड़ी थी। उसके प्राण कंप गए! फकीर को भीड़ में घिरा हुआ, पत्थर खाते हुए देख कर–वह उस बच्चे को बचा रहा है, उसके माथे से खून बह रहा है–सच्ची बात छिपाना मुश्किल हो गई। उसने अपने बाप के पैर पकड़ कर कहा कि क्षमा करें, इस फकीर को तो मैं पहचानती भी नहीं। सिर्फ इसके असली बाप को बचाने के लिए मैंने इस फकीर का झूठा नाम ले लिया!

वह बाप आकर फकीर के पैरों पर गिर पड़ा और बच्चे को छीनने लगा और कहा, क्षमा कर दें।

उस फकीर ने पूछा, लेकिन बात क्या है? बेटे को छीनते क्यों हो?

उसके बाप ने कहा–लड़की के बाप ने–कि आप कैसे नासमझ हैं! आपने सुबह ही क्यों न बताया कि यह बेटा आपका नहीं है? आप छोड़ दें, यह बेटा आपका नहीं है, हमसे भूल हो गई।

वह फकीर कहने लगा, इज़ इट सो? बेटा मेरा नहीं है? पर तुम्हीं तो सुबह कहते थे कि तुम्हारा है। और भीड़ तो कभी झूठ बोलती नहीं। अब तुम जब बोलते हो कि नहीं है मेरा, तो नहीं होगा।

लेकिन लोग कहने लगे कि तुम कैसे पागल हो! तुमने सुबह कहा क्यों नहीं कि बेटा तुम्हारा नहीं है? तुम इतनी निंदा और अपमान झेलने को राजी क्यों हुए?

वह फकीर कहने लगा, मैंने तुम्हारी कभी चिंता नहीं की कि तुम क्या सोचते हो। तुम आदर देते हो कि अनादर। तुम श्रद्धा देते हो कि निंदा। मैंने तुम्हारी आंखों की तरफ देखना बंद कर दिया है। क्योंकि मैं अपनी तरफ देखूं कि तुम्हारी आंखों की तरफ देखूं! और जब तक मैंने तुम्हारी तरफ देखा, तब तक अपने को देखना मुश्किल था। क्योंकि तुम्हारी आंख तो प्रतिपल बदल रही है, और हर आदमी की आंख अलग है, ये हजार-हजार दर्पण हैं, मैं किस-किस में झांकूं? मैंने अपने में ही झांकना शुरू कर दिया है। अब मुझे फिक्र नहीं कि तुम क्या कहते हो। अगर तुम कहते हो बेटा मेरा, तो सही, मेरा ही होगा। किसी का तो होगा! मेरा ही सही। अब तुम कहते हो, नहीं। तुम्हारी मर्जी, नहीं होगा मेरा। लेकिन मैंने तुम्हारी आंखों में देखना बंद कर दिया है।

और वह फकीर कहने लगा, मैं तुमसे भी कहता हूं कि कब वह दिन आएगा कि तुम दूसरों की आंखों में देखना बंद करोगे और अपनी तरफ देखना शुरू करोगे?

यह दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं जीवन-क्रांति का: मत देखें दूसरों की आंखों में कि आप क्या हैं। वहां जो भी तस्वीर बन रही है, वह आपके वस्त्रों की तस्वीर है, वह आपकी दिखावट है, वह आपका नाटक है, वह आपकी एक्टिंग है–वह आप नहीं हैं! क्योंकि आप तो अभी प्रकट ही नहीं हो सके जो आप हैं, उसकी तस्वीर कैसे बनेगी! आपने जो दिखाना चाहा है, वह दिख रहा है। लेकिन आप क्या हैं, उस द्वार से ही जीवन की यात्रा होगी।

भीड़ से बचना धार्मिक आदमी का पहला कर्तव्य है। लेकिन भीड़ से बचने का मतलब नहीं कि जंगल भाग जाएं। भीड़ से बचने का मतलब क्या है? समाज से मुक्त होना धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है, लेकिन समाज से मुक्त होने का क्या मतलब है? समाज से मुक्त होने का मतलब नहीं है कि एक आदमी भाग जाए जंगल में। वह समाज से मुक्त होना नहीं है। वह समाज की ही धारणा है संन्यासी की कि जो आदमी गांव छोड़ कर भाग जाता है, समाज उसको आदर देता है। वह समाज से भागना नहीं है। वह समाज की ही धारणा का, समाज के ही दर्पण में अपना चेहरा देखना है। गेरुआ वस्त्र पहन कर खड़े हो जाना संन्यासी हो जाना नहीं है। वह समाज की आंखों में दर्पण बनाना है, उस दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखना है। वह गेरुआ वस्त्र उनकी आंखों में दिखाई पड़ने लगता है, जो आदर देते हैं। अगर गेरुआ वस्त्र को आप आदर देना बंद कर दें, फिर मैं गेरुआ वस्त्र नहीं पहनूंगा।

वह मैं आपकी आंखों में देखता हूं कि क्या आदर लाता है? अगर समाज आदर देता है एक आदमी को पत्नी और बच्चों को छोड़ कर भाग जाने के लिए, तो आदमी भाग जाता है। यहां भी वह समाज की आंखों में देख रहा है।

नहीं, यह समाज को छोड़ना नहीं है। समाज को छोड़ने का अर्थ है: समाज की आंखों में अपने प्रतिबिंब को देखना बंद कर दें। अगर जिंदगी में कोई भी क्रांति चाहिए, तो लोगों की, भीड़ की आंखों को दर्पण न समझें। वे धोखे के स्थान हैं, जहां वस्त्र दिखाई पड़ते हैं।

लेकिन इस दुनिया में वस्त्रों की कीमत है। और अगर बाहर की यात्रा करनी है, तो फिर मेरी बात कभी मत मानना। नहीं तो बाहर की यात्रा बहुत मुश्किल हो जाएगी। इस दुनिया में वस्त्रों की कीमत है, आत्माओं की कोई कीमत नहीं है।

मैंने सुना है, कवि गालिब को एक दफा बहादुर शाह ने निमंत्रण दिया था। सम्राट ने बुलाया था कि आओ भोजन को।

गालिब था गरीब आदमी। अब तक ऐसी दुनिया नहीं बन सकी कि कवि के पास भी खाने-पीने को पैसा हो सके। यह नहीं हो सका। अच्छे आदमी को रोटी जुटानी अभी भी बहुत मुश्किल है। गालिब तो गरीब आदमी था। कविताएं लिखी थीं ऊंची, तो ऊंची कविताओं से क्या होता है? रोटियां तो नहीं आतीं। कपड़े फटे-पुराने थे। मित्रों ने कहा, बादशाह के वहां जा रहे हो, इन कपड़ों से नहीं चलेगा। बादशाहों के महल कपड़ों को पहचानते हैं। गरीब के घर में यह भी हो सकता है कि कभी बिना कपड़ों के भी चल जाए, लेकिन बादशाहों के महल में कपड़े पहचाने जाते हैं। मित्रों ने कहा कि हम उधार कपड़े ला देते हैं, तुम पहन कर चले जाओ। जरा आदमी तो मालूम पड़ोगे।

गालिब ने कहा, उधार कपड़े! यह तो बड़ी बुरी बात होगी कि मैं किसी और के कपड़े पहन कर जाऊं। मैं जैसा हूं, हूं। किसी और के कपड़े पहनने से क्या फर्क पड़ जाएगा? मैं तो मैं ही रहूंगा।

मित्रों ने कहा, छोड़ो ये फलसफे की बातें। इन तत्व-दर्शन की बातों से वहां दरवाजे पर नहीं चलेगा। हो सकता है पहरेदार वापस लौटा दें! भिखमंगे मालूम पड़ते हो।

गालिब ने कहा, मैं तो जो हूं, हूं। गालिब को बुलाया है, कपड़ों को तो नहीं बुलाया। गालिब जाएगा।

नासमझ। कहना चाहिए नादान। नहीं माना गालिब और चला गया।

दरवाजे पर जाकर जाने लगा तो द्वारपाल ने बंदूक आड़ी कर दी और कहा, कहां भीतर जाते हो?

गालिब ने कहा कि मैं महाकवि गालिब हूं। सुना है नाम कभी? सम्राट ने बुलाया है। सम्राट का मित्र हूं, भोजन पर बुलाया है।

उस सिपाही ने कहा, हटो रास्ते से! दिन भर जो भी ऐरा-गैरा आता है, सम्राट का मित्र ही बताता है अपने को! रास्ते से चलो अपने, नहीं उठा कर बंद करवा दूंगा।

गालिब ने कहा, क्या बातें कहते हो! मुझे पहचानते नहीं?

उसने कहा, तुम्हारे कपड़े बता रहे हैं कि तुम कौन हो! फटे जूते बता रहे हैं कि तुम कौन हो! अपनी शक्ल देखो आईने में जाकर कि कौन हो!

गालिब दुखी वापस लौट गया। मित्रों से कहा कि तुम ठीक कहते थे, वहां कपड़े पहचाने जाते हैं। ले आओ उधार कपड़े कहां हैं।

मित्रों ने कपड़े लाकर रखे थे। उधार कपड़े पहन कर गालिब फिर पहुंच गया। वही द्वारपाल झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा कि आइए। गालिब बहुत हैरान कि कैसी दुनिया है!

भीतर गया तो बहादुर शाह ने कहा, मैं बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रहा हूं!

गालिब हंसने लगा, कुछ बोला नहीं। फिर भोजन लगा दिया गया। सम्राट खुद भोजन के लिए सामने बैठा–भोजन कराने के लिए। गालिब ने भोजन का कौर बनाया, अपने कोट को खिलाने लगा, कि ले कोट खा! पगड़ी को खिलाने लगा, कि ले पगड़ी खा!

सम्राट ने कहा, आपके भोजन करने की बड़ी अजीब तरकीबें मालूम पड़ती हैं। यह कौन सी आदत? यह आप क्या कर रहे हैं?

गालिब ने कहा कि मैं तो आया था और लौट चुका। अब कपड़े आए हैं उधार। अब जो आए हैं, उन्हीं को भोजन करा रहा हूं!

बाहर की दुनिया में कपड़े चलते हैं। बाहर की दुनिया में कपड़े ही चलते हैं! वहां आत्माओं का चलना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बाहर जो भीड़ इकट्ठी है, वह कपड़े वालों की भीड़ है। वहां आत्मा को चलाने की बात तपश्चर्या हो जाती है। लेकिन वहां जीवन नहीं मिलता। वहां हाथ में कपड़े और लाश रह जाती है अकेली। वहां जिंदगी नहीं मिलती, राख। वहां आखिर में जिंदगी की कुल संपदा राख होती है–जली हुई। अखबार की कटिंग रख लेना साथ में, तो बात अलग है। मरते वक्त अखबार में क्या-क्या छपा था, उसको रख ले कोई साथ, तो बात अलग है। लेकिन मुट्ठी में अखबार भी राख हो जाएगा।

जीवन ही चूक जाता है। जीवन है भीतर। और भीतर वे ही मुड़ सकते हैं, जो दूसरों की आंखों में देखने की कमजोरी छोड़ देते हैं और अपनी आंखों के भीतर झांकने का साहस जुटाते हैं।

इसलिए दूसरा सूत्र है: भीड़ से सावधान! बीवेअर ऑफ दि क्राउड!

वह चारों घेरे हुए है भीड़। और जिंदा लोगों की भीड़ ही नहीं घेरे हुए है, मुर्दों की भीड़ भी घेरे हुए है। करोड़ों-करोड़ों वर्षों से जो भीड़ इकट्ठी होती चली गई है सारी दुनिया में, उसका दबाव है चारों तरफ से। और एक-एक आदमी की छाती पर वह सवार है, और एक-एक आदमी उनकी आंखों में देख कर अपने को बना रहा है, सजा रहा है। वह भीड़ जैसा कहती है, वैसा होता चला जाता है। फिर उसकी अपनी आत्मा कभी पैदा नहीं हो पाती। उसके जीवन के बीज में कभी अंकुर नहीं आ पाता। क्योंकि कभी वह अपने बीज की तरफ ध्यान ही नहीं देता है। बीज की तरफ उसकी आंख ही नहीं जाती। उसके प्राणों की धारा ही कभी प्रवाहित नहीं होती उस तरफ।

दुनिया में जिन्हें भीतर की तरफ जाना है, उन्हें बाहर की चिंता थोड़ी छोड़ देनी पड़ती है–कौन क्या कहता है? कौन क्या सोचता है?

नहीं, सवाल यह नहीं है कि मैं क्या हूं, इस संबंध में कौन क्या सोचता है। सवाल यह है कि मैं क्या हूं और मैं क्या जानता हूं? अगर जीवन में क्रांति लानी है तो सवाल यह है कि मैं क्या हूं? मैं क्या पहचानता हूं अपने को?

और स्मरण रहे, जो आदमी अपने भीतर पहचानना शुरू करता है, उसके भीतर बदलाहट उसी क्षण शुरू हो जाती है। क्योंकि भीतर जो गलत है, उसे पहचान कर बरदाश्त करना मुश्किल है, असंभव है। अगर पैर में कांटा गड़ा है, तो वह तभी तक गड़ा रह सकता है जब तक उसका हमें पता नहीं है। जैसे ही पता चला, पैर से कांटे को निकालना मजबूरी हो जाएगी।

एक बच्चा स्कूल के मैदान पर खेल रहा हो–हाकी खेल रहा हो। पैर में चोट लग गई हो, खून बह रहा हो। उसे पता नहीं चलेगा, वह हाकी में संलग्न है, वह आक्युपाइड है। उसकी सारी अटेंशन, उसका सारा ध्यान हाकी पर लगा हुआ है। वह जो गोल करना है, उस पर अटका हुआ है; वे जो चारों तरफ खिलाड़ी हैं, उनसे अटका हुआ है; वह जो प्रतियोगिता चल रही है, उसमें उलझा हुआ है। उसे पता भी नहीं कि उसके पैर में खून बह रहा है। वह दौड़ता रहेगा, दौड़ता रहेगा…खेल बंद हो जाएगा, और अचानक खयाल आएगा कि पैर से खून बह रहा है! लेकिन खून बहुत देर से बह रहा है, इतनी देर से पता नहीं चला? अब वह भागेगा और मलहम-पट्टी करेगा। लेकिन इतनी देर पता नहीं चला? तब तक सवाल ही नहीं था।

हम बाहर देख रहे हैं। गोल करना है, वह देख रहे हैं। प्रतियोगिता चल रही है, वह देख रहे हैं। लोगों की आंख में देख रहे हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि भीतर कितने कांटे हैं और कितने घाव हैं! भीतर पता नहीं चलता, कितना अंधकार है! भीतर पता नहीं चलता, कितनी बीमारियां हैं! उलझे रहें, उलझे रहें, जिंदगी बीत जाएगी और पता नहीं चलेगा।

एक बार हटाएं आंख बाहर से और भीतर के घावों को देखें! और मैं आपसे कहता हूं, उन्हें देखना उनके बदलने का पहला सूत्र है। वहां दिखाई पड़ा कि फिर आप बरदाश्त नहीं कर सकते। फिर आपको बदलना ही पड़ेगा।

और बदलना कठिन नहीं है। क्योंकि जो दुख दे रहा है, उसे बदलना कभी भी कठिन नहीं होता, सिर्फ भूले रखना आसान है। बदलना कठिन नहीं है, लेकिन भूले रखना बहुत आसान है। और जब तक भूला रहे, तब तक जीवन में कोई क्रांति नहीं होगी।

जीवन की क्रांति का दूसरा सूत्र है: नहीं, दूसरों की आंखों में नहीं। अपनी आंख में, अपने भीतर, अपनी तरफ, मैं क्या हूं? यही सवाल है, यही असली समस्या है व्यक्ति के सामने कि मैं क्या हूं? जैसा भी हूं, उसको ही देखना है और साक्षात करना है।

लेकिन हम? हमें पता ही नहीं। कोई हमसे पूछे कि आप कौन हैं? तो हम कहेंगे–फलां आदमी का बेटा हूं, फलां मोहल्ले में रहता हूं, फलां गांव में रहता हूं। यही परिचय है हमारा। ये लेबल जो हम ऊपर से चिपकाए हुए हैं, यह हमारी पहचान है, यह हमारी जिंदगी का सबूत है, यह हमारी जिंदगी का प्रमाण है, यह हमारी जानकारी है अपने बाबत। पता ही नहीं है कि कौन जीवन-चेतना भीतर खड़ी है। ऊपर से कागज चिपकाए हुए हैं। और वे भी दूसरों के चिपकाए हुए हैं। किसी ने एक नाम चिपका दिया है। उसी नाम को जिंदगी भर लिए घूम रहे हैं। उस नाम को कोई गाली दे दे तो लड़ने को तैयार हो जाएंगे। बड़े पागल हैं, लेबलों को भी गाली देने से लड़ने की तैयारी करनी पड़ती है!

स्वामी राम अमेरिका गए थे। वहां के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि राम को कुछ लोगों ने गालियां दीं, तो राम ने मित्रों को आकर कहा कि आज बड़ा मजा हो गया, बाजार में कुछ लोग मिल गए और राम को खूब गालियां देने लगे। हम भी खड़े सुनते रहे।

लोगों ने कहा, आप पागल हो गए हैं! राम को गालियां देते रहे? कौन राम?

स्वामी राम ने कहा कि यह राम, जिसको लोग राम कहते हैं। कुछ लोगों ने घेर लिया और बेटे को बहुत गालियां देने लगे। हम भी खड़े होकर देखते रहे कि राम को अच्छी गालियां पड़ रही हैं। अब हम राम हों तो झगड़े में पड़ें। हम तो राम नहीं हैं। हम तो जो हैं, उसका कोई नाम नहीं है। नाम तो किसी का दिया हुआ है। वह तो समाज का दिया हुआ है, हमारा दिया हुआ तो नहीं है। हम तो कुछ और हैं। जब नाम नहीं था, तब भी थे। जब नाम नहीं रह जाएगा, तब भी होंगे।

अभी भी रात सो जाते हैं–नाम मिट जाता है, समाज भी मिट जाता है–फिर भी हम होते हैं। आप मिट जाते हैं रात? न पत्नी रह जाती, न बेटा रह जाता आपका, न घर रह जाता, न धन-दौलत रह जाती, न पद-प्रतिष्ठा रह जाती, फिर भी आप रह जाते हैं। सब मिट जाता है। वह जो सोसायटी देती है, वह बाहर ही छूट जाता है। वह भीतर जाता ही नहीं। मरने के वक्त भी भीतर नहीं जाएगा। और ध्यान के वक्त भी भीतर नहीं जाएगा। वह जो समाज देता है, वह बाहर है, और बाहर ही रह जाता है। लेकिन हम इस बाहर को अपना व्यक्तित्व समझे हुए हैं! वह भूल से मुक्त होना जरूरी है। अन्यथा कोई व्यक्ति जीवन की यात्रा पर एक कदम आगे नहीं बढ़ सकता है।

सुबह मैंने एक सूत्र कहा है: सिद्धांतों से मुक्त हो जाएं। जो सिद्धांतों से बंधा है, वह जीवन के रास्ते पर नहीं जाएगा।

दूसरा सूत्र कहता हूं: भीड़ से मुक्त हो जाएं। जो भीड़ का गुलाम है, वह कभी भी जीवन के रास्ते पर नहीं जाता है।

आने वाले दिनों में और कुछ सूत्र कहूंगा। इन सूत्रों को सुनें, लेकिन सुनने भर से कुछ होने वाला नहीं है। थोड़ा सा भी प्रयोग करेंगे, तो एक द्वार खुलेगा, कुछ दिखाई पड़ना शुरू होगा।

धर्म एक नगद प्रक्रिया है। धर्म एक जीवित विज्ञान है। जो प्रयोग करता है, वह रूपांतरित हो जाता है; और उपलब्ध होता है उस सबको, जिसे पाए बिना हम व्यर्थ जीते हैं और व्यर्थ मर जाते हैं; और जिसे पा लेने पर जीवन एक धन्यता हो जाती है; और जिसे पा लेने पर जीवन कृतार्थ हो जाता है; और जिसे पा लेने पर सारा जगत परमात्मा में रूपांतरित हो जाता है। क्योंकि जिस दिन भीतर दिखाई पड़ता है कि परमात्मा है, उसी दिन यह भ्रम मिट जाता है कि बाहर कोई और है। फिर वही रह जाता है। जो भीतर दिखाई पड़ता है, वही बाहर भी प्रमाणित हो जाता है।

और जगत के मूल सत्य को जान लेना, जीवन को अनुभव कर लेना है। और जीवन को अनुभव कर लेना मृत्यु के ऊपर उठ जाना है।

फिर कोई मृत्यु नहीं है। जीवन की कोई मृत्यु नहीं है।

जो मरता है, वह समाज के द्वारा दिया गया झूठा व्यक्तित्व। जो मरता है, वह प्रकृति के द्वारा दिया गया झूठा शरीर। जो नहीं मरता है, वह जीवन है। लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं है!

पहले समाज से हटें–समाज के झूठे व्यक्तित्व से हटें।

फिर प्रकृति के दिए गए व्यक्तित्व से हटेंगे। उसकी कल मैं बात करूंगा कि प्रकृति के दिए गए शरीर से कैसे हटें। और फिर हम वहां पहुंच सकते हैं, जहां जीवन है।

 

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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संभोग से समाधि की ओर- ओशो
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युवक और यौन एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक मुसलमान फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्हीं मित्रों से मिलन

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संभोग से समाधि की ओर (चौदवां प्रवचन)

28 अक्टूबर 2021
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1. क्या मेरे सूखे हृदय में भी उस परम प्यारे की अभीप्सा का जन्म होगा? 2. आप वर्षों से बोल रहे हैं। फिर भी आप जो कहते हैं वह सदा नया लगता है। इसका राज क्या है? 3. मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं।

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोट

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं, तो वह मिलन एक स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है, एक आध्यात्मिक कृत्य हो जाता है। फिर उसका सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, व

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा ह

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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विद्रोह क्‍या है हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है। और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा सम

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संभोग से समाधि कि ओर (ग्‍याहरवां प्रवचन)

20 अप्रैल 2022
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युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है? युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा है। उम्र का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-12)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह-जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखाई पड़ता है। जगह-जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है: प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड! अध्यापकगण, आप बूढ़े हो गए हैं!

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-13)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते ह

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-15)

20 अप्रैल 2022
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सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-16)

20 अप्रैल 2022
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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है। पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति। दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति। और

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-18)

20 अप्रैल 2022
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तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में। पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नही

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