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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022

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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है।

और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। असल में हजारों साल में कितनी ही क्रांतियां हो चुकीं, लेकिन सब क्रांतियां असफल हो गयीं। हिप्पी का कहना है, सब क्रांतियां असफल हो गयीं, क्‍योंकि क्रांति सफल हो ही नहीं सकती है। सफल हो सकता है, केवल अनियोजित विद्रोह। 1917 की क्रांति असफल हो गयी, क्योंकि एक जार को मारा और दूसरा जार उसकी जगह बैठ गया। सिर्फ नाम बदल गया है। स्टैलिन हो गया उसका नाम। वह दूसरा जार है। किसी जार ने इतने आदमी न मारे थे।

स्टेलिन ने अपनी जिंदगी में एक करोड़ लोगों की हत्या की, किसी जार ने अथवा सब जारों ने मिलकर भी इतने आदमी नहीं मारे थे! तो बड़ी कठिन बात है कि क्रांति भी होती है तो फिर उसके ऊपर एक जार बैठ जाता है। नाम बदल जाता है, झंडा बदल जाता है, बैठने वाले नहीं बदलते। वही चंगेज, वही तैमूर, फिर वापिस बैठ जाता है।

हिटलर सोशलिस्ट था। उनकी पार्टी का नाम था 'नेशनलिस्ट सोशलिस्ट पार्टी',राष्ट्रीयवादी समाजवादी दल! किसने सोचा था कि हिटलर यह करेगा, जो उसने किया।

क्रांतियां जब सफल होती हैं, तब पता चलता है कि सब व्यर्थ हो गया। जब तक सफल नहीं होतीं, तब तक तो लगता है बहुत कुछ हो रहा है। फिर एकदम व्यर्थ हो जाती हैं।

हमारे ही देश में क्रांति हुई और 1947 के बाद हमने सोचा, आजादी आ जायेगी। फिर 1947 के बाद भी हम सोच ही रहे हैं कि 22 साल हो गये, अभी तक आई नहीं? कब आयेगी? हां, फर्क हो गया है। सफेद चमड़ी के मालिक बदल गये, उनकी जगह काली चमड़ी के लोग बैठ गये। काली चमड़ी वालों को भी लगा कि सफेद चमड़ी होनी चाहिए। चमड़ी तो सफेद करना बहुत मुश्किल थी, कपड़े उसने सफेद कर लिए। बस इतना फर्क हो गया। अंग्रेजों ने जितनी गोलियां नहीं चलायी इस देश में, इन्हें जिनको हम अपने ही आदमी कहें, उन्होंने चलायी। कभी अगर इतिहास पूछेगा तो वह पूछ सकेगा कि गुलाम कौम पर इतनी गोलियां नहीं चलानी पड़ी, आजाद होने के बाद इतनी गोलियां अपने ही लोगों पर चलानी पड़ीं, यह बात क्या है? हो क्या गया है!

कोई क्रांति सफल नहीं हो पायी, न होने का कारण है। एक तो यह कि क्रांति के उपकरण बड़े गैर-क्रांतिकारी होते हैं, बड़े दकियानूसी होते हैं।

दूसरा यह कि क्रांति वस्तुत: प्रतिक्रियाअक, रिक्ष्मानरी होती है। उनके प्राण उसी में होते हैं, जिससे कि वह लड़ती है। फिर इसलिए शत्रु के मरते ही उसके होने का भी कोई कारण नहीं रह जाता है। क्रांति की सफलता ही मृत्यु बन जाती है।

हिप्पी का खयाल यह है कि क्रांति इसलिए भी सफल नहीं होती कि क्रांति पुन: समाज को ही केंद्र मानकर चलती है। वह कहती है, समाज बदले।

विद्रोह व्यक्ति को केंद्र मानता है, क्रांति समाज को केंद्र मानती है।

क्रांति कहती है, समाज बदले।

हिप्पी कहता है भाड़ में जाये तुम्हारा पूरा समाज, मैं बदलता हूं। मैं तुम्हारे समाज के लिए नहीं रुला। मैं अकेला बदल जाता हूं। इसलिए हिप्पी व्यक्तिगत विद्रोही है।

और मेरी समझ में यह बात भी बड़ी कीमती है, क्योंकि सब क्रांतियां सफल हो गयीं, फिर भी हम नयी क्रांतियों की बात सोचते चले जाते हैं। असल में क्रांति करने में जो इलजाम करना पडता है, वह क्रांति की ही हत्या कर देता है। पहले तो क्रांति करने के लिए संगठन बनाना पडता है और जैसे ही संगठन बनता है तो संगठन के अपने नियम हैं। वह संगठन किसी का भी हो-जब संगठन बनता है और कोई विचार इंस्टीट्यूशन बनता है, तब सब रोग वापस लौट आते हैं। जो रोग पुराने संगठन में थे, वे पुराने संगठन की वजह न थे। संगठन के कारण कुछ रोग अनिवार्य हैं।

संगठन होगा तो कोई पद पर होगा, मालिक होगा, कोई अधिनायक, डिक्टेटर होगा। कोई आशा चलायेगा। संगठन होगा तो कुछ थोड़े से लोग शक्तिशाली हो जायेंगे। संगठन होगा तो धन इकट्ठा होगा। संगठन होगा तो भीड़ इकट्ठी होगी। और ध्यान रहे भीड़ सदा परम्परानुगत,

कन्‍फरमिस्ट है। भीड़ सदा 'हां-हुजूर' है।

हिप्पी यह कहता है कि अब क्रांति से नहीं होगा, अब तो विद्रोह करना पड़ेगा।

विद्रोह का मतलब है कि जिसे लगता है गलत है, वह तत्काल गलत से विदा हो जाये।

उनका एक शब्द है 'ड्रापिंग आउट'। वे कहते हैं रास्ते पर भीड़ चली जा रही है, हम कोई आग्रह नहीं करते कि सारी भीड़ को बदलेंगे। हमें लगता है कि गलत है यह भीड़, गलत है यह रास्ता, 'वी जस्ट ड्राप आउट', हम रास्ता छोड़कर नीचे उतर जाते हैं। हम कहते हैं, 'नमस्कार, तुम जाओ। '

यह धारणा बड़ी नयी है, व्यक्तिगत विद्रोह की। बड़ी सबल भी है, क्योंकि शायद किसी क्रांतिकारी ने इतना दांव नहीं लगाया। वे कहते हैं, सब बदलेंगे। तो एक कम्युनिस्ट भी करोड़पति हो सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। वह कहता है जब समाज बदलेगा, जब सबकी संपत्ति बटेगी तो मेरी भी बंट जायेगी। लेकिन जब तक. सबकी नहीं बंटी, तब तक मुझे क्यों बांटने की फिकर करना है। लेकिन हिप्पी कहता है, सम्पत्ति अगर रोग है तो मैं तो बाहर हुआ जाता हूं। फिर जब समाज बदलेगा, बदलेगा। लेकिन फिर तुम मुझे जिम्मेदार न ठहरा सकोगे।

अगर वियतनाम में गलत युद्ध हो रहा है तो क्रांतिकारी कहेगा कि आन्दोलन चलाओ, हड़ताल करो, घेराव करो। हिप्पी कहता है सब घेराव करो, सब हड़ताल करो, सब आंदोलन चलाओ। लेकिन चलाने में हिंसा चाहिए, घेराव करने में हिंसा चाहिए। और अगर जीत गये तुम किसी दिन तो जीतते-जीतते इतने हिंसक हो जाओगे कि वियतनाम की जगह दूसरा वियतनाम तुम चला दोगे। हिप्पी कहता है कि हमको लगता है कि गलत है वियतनाम, हम युद्ध पर जाने से इन्कार करते हैं। तुम हमें गोली मार दो, हम ये बैठे हैं, हम नहीं जायेंगे।

व्यक्तिगत विद्रोह-पहली दफा निपट एक व्यक्ति साहस कर रहा है कि सारा समाज गलत लगता है तो हम बाहर हो जायें। वह यह नहीं कह रहा कि समाज के विवाह के नियम बदलेंगे, तब हम सुधरेंगे। वह यह कह रहा है, हमने बदल दिये हैं नियम अपने लिए। अब जो तकलीफ होगी, वह हम सह लेंगे।

अब हिप्पी ऐसी लड़कियों के साथ रह रहा है जिससे वह विवाहित नहीं है। हिप्पी लड़कियां ऐसे युवकों के साथ रह रही हैं, जिनसे उनका कोई विवाह नहीं हुआ।

क्योंकि हिप्पी कहता है कि विवाह जो है, वह 'लीगलाइब्द प्रॉस्टीट्यूशन' है। समाज के द्वारा आदेशित, लाइसेस्ट वेश्यागिरी है।

माज लाइसेंस देता है दो आदमियों के लिए कि अब हम तुम्हारे बीच में बाधा नहीं बनेंगे। लाइसेंस देने की कई तरकीबें है। कहीं सात चक्कर लगा कर लाइसेंस देता है, कहीं माला पहनवा कर देता है, कहीं दफ्तर में रजिस्टर पर दस्तखत करवाकर देता है। वे विधियां तो गैर-महत्वपूर्ण, नॉन-एसेन्यिायल हैं। महत्वपूर्ण यह है कि समाज एक लाइसेंस देता है कि अब इन दो आदमियों के बीच जो यौन संबंध होंगे, उनमें हम बाधा न देंगे।

हिप्पी यह कहता है कि मेरा प्रेम मेरी निजी बात है। और जिससे मेरा प्रेम है, यह दो व्यक्तियों की बात है, इसमें हमें समाज से स्वीकृति का सवाल कहां है। इसमें पूरे समाज का संबंध कहां है? यह पूरा समाज हमारे प्रेम तक पर भी काबू रखने की कोशिश क्यों करता है? यह हमें स्वतंत्र व्यक्ति बिल्‍कुल नहीं रहने देना चाहता। प्रेम पर भी इसका काबू होना चहिए।

लेकिन वह तकलीफें झेल रहा हैं। क्योंकि बच्चा हो जायेगा हिप्पी लड़की को, स्कूल में भरती करने जायेगी तो वहां शिक्षक पूछता है, इसके बाप का नाम? तो हिप्पी लड़की लिखवाती है कि नहीं, इसका कोई बाप नहीं है? मां ही है। बड़ी तकलीफ है, जिस गांव में एक लड़की यह कह सकती हो कि इसका बाप नहीं है, सिर्फ मां दे। आप अगर बिना बाप के नाम लिख सकते हों तो ठीक।

मुझे उपनिषद की एक कहानी याद आती है, सत्यकाम जाबाल की। वक्त बदल जाता है इसलिए हम कहानी 'तो बढ़िया रूप दे देते हैं। सत्यकाम गुरु के आश्रम गया तो पूछा, तेरे पिता का नाम क्या है? तो वह वापिस लौटा। उसने अपनी मां को कहा कि मेरे पिता का नाम क्या है? तो उसकी मां ने कहा, जब मैं युवा थी और तेरा जन्म हुआ तो बहुत लोगों की मैं सेवा करती थी। कौन तेरा पिता है, मुझे पता नहीं। तो तू जा वापस। अपने गुरु को कह देना सत्यकाम मेरा नाम है, जाबाल मेरी मां का नाम है, इसलिए सत्यकाम जाबाल आप मुझे कह सकते हैं। और मेरी मां ने कहा है कि जब वह युवा थी तो बहुत लोगों के सम्पर्क में आयी। पता नहीं पिता कौन है।

सत्यकाम वापस गया उसने गुरु से कहा कि मेरी मां ने कहा है कि जब मैं युवा थी, तब बहुत लोगों के सम्पर्क में आयी, पता नहीं कि तेरा पिता कौन है। इतना ही उसने कहा कि मेरा नाम सत्यकाम है और मां का नाम जाबाल है इसलिए आप मुझे सत्यकाम जाबाल कह सकते हैं।

मैंने तो सुना है, कोई कह रहा था कि जबलपुर जाबाल के नाम पर ही निर्मित है। पता नहीं मुझे, मुझे कोई कह रहा था, हो सकता है।

लेकिन गुरु ने कहा कि तब तुझे मैं ले लेता हूं क्योंकि मैं मान लेता हूं कि तू निश्रित ही ब्राह्मण है, क्योंकि इतना सत्य सिर्फ ब्राह्मण ही बोल सकता है। इतना सत्य तेरी मां ने बोला कि मुझे पता नहीं बहुत लोगों के सम्पर्क में आयी, पता नहीं कौन पिता था। इतना सत्य सिर्फ ब्राह्मण ही बोल सकता है।

हिप्पी एक अर्थ में ब्राह्मण है। इस अर्थ में ब्राह्मण है कि जीवन का जो सत्य है, जैसा है, वह वैसा बोल रहा है, कह रहा है। ये तीन बातें।

और चौथी अन्तिम बात। फिर मेरी दृष्टि क्या है हिप्पी के बाबत, वह मैं आपको कहूं। चौथी बात।

मनुष्य ने इतनी सम्पत्ति, इतनी सुविधा, इतनी सामग्री पैदा की है, लेकिन किसी गहरे अर्थ में मनुष्य भीतर दरिद्र हो गया है, चेतना संकुचित हो गयी है।

तो हिप्पी का चौथा सूत्र है, चेतना का विस्तार, एक्सपान्‍शन ऑफ कान्‍शसनेस। वह यह कह रहा है कि हम अपनी चेतना को कैसे फैलायें। तो चेतना फैलाने के लिए वह सब तरह के प्रयोग कर रहा है। गांजा, अफीम, भांग, हशीश, एल एस डी, मेस्केलिन, मारीजुआना,योग-ध्यान, वह यह सब कर रहा है कि चेतना कैसे फैले, संकुचित चेतना का विस्तार कैसे उपलब्ध हो जाये। तो केमिकल ड्रग्स का भी उपयोग कर रहा है। एल एस डी, मेस्केलीन, जिनके द्वारा थोड़ी देर के लिए चित्त नये लोक में प्रवेश कर जाता है।

कानून विरोध में है, क्योंकि कानून तो हर नई चीज के विरोध में है। क्योंकि कानून तो बनता है कभी और युग बदल जाता है। कानून तो विरोध में है। कानून तो एल एस डी को पाप मानता है। मैं नहीं समझ पा रहा हूं। एल एस डी और मेस्केलीन में बड़ी संभावनाएं हैं। इस बात की बहुत संभावनाएं हैं कि ये दोनों चीजें मनुष्य की चेतना को नये दर्शन कराने में सफल रूप से प्रयुक्त की जा सकती हैं। ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि इनके द्वारा कोई समाधि को उपलब्ध हो जायेगा, लेकिन समाधि की एक झलक मिल सकती है। और झलक ?? जाये तो समाधि की प्यास पैदा हो जाती है। आज तो पश्‍चिम में योग और ध्यान के लिए इतना आकर्षण है, उसके बहुत गहरे में एल एस डी है। लाखों लोग एल एस डी लेकर देख रहे हैं।

जब कोई आदमी एल एस डी की एक टिकिया लेता है तो कई घंटों के लिए उसकी सारी दुनिया बदल जाती है। जैसे 'ब्लेक' की कविता हम पढ़ें तो ऐसा लगता है कि ब्लेक कुछ ऐसे रंग जानता है, जो हम नहीं जानते। उसे फूल कुछ ऐसा दिखायी देता पड़ता है, जैसा हमें दिखाई नहीं पडता।

लेकिन एल एस डी लेकर हम भी वही जान पाते हैं। पत्ते-पत्ते रंगीन हो जाते हैं फूल-फूल अदभुत हो जाता है। एक आदमी की आख में इतनी गहराई दिखाई पड़ने लगती है, जितनी कभी नहीं दिखाई पड़ी। एक साधारण-सी कुर्सी भी एक जीवंत अर्थ ले लेती हैं। थोड़ी देर के लिए जगत और ढंग का दिखाई पड़ने लगता है। जैसे कि बिजली चमक जाये अंधेरी रात में, और एक सेकेंड को वृक्ष दिखाई पड़े, फूल दिखाई पड़े, रास्ता दिखाई पड़े। बिजली तो गयी तो फिर अंधेरा भर गया, लेकिन अब हम वही आदमी नहीं हो सकते, जो बिजली के पहले है। 

इन साइकेडेलिक ड्रग्स का, इन रासायनिक तत्वों का हिप्पी बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहे हैं। मेरी समझ में सोमरस इससे भिन्न बात न थी। अस्तुअस हक्सले ने तो एक किताब लिखी है। तो उसमें सन 2000 वर्ष के बाद जो विकसित साइकेडेलिक ड्रग, रासायनिक द्रव्य होगा उसका नाम ही सीमा दिया है, सोमरस के आधार पर ही।

और एल एस डी और मेस्केलीन जिन्होंने लिया है तो पहली दफा उनको खयाल आया कि वैदिक ऋषियों को देवी-देवता एकदम जमीन पर चलते-चलते नजर क्यों आते थे। वे हमको भी आ सकते हैं। भांग में कुछ थोड़ी-सी बात है, बहुत ज्यादा नहीं, बहुत थोड़ी। लेकिन भांग के पीछे थोड़ा-सा 'हैंग ओवर' होता है। एल एस डी का कोई 'हैंग ओवर' नहीं है। गांजे में कुछ थोडी बात है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। हजारों साल से साधु, भांग, गांजा, अफीम का उपयोग करते रहे हैं। वह अकारण नहीं है। और इधर जितनी खोज होती है, उससे कुछ हैरानी के तथ्य सामने आते हैं।

अगर एक आदमी बहुत देर तक उपवास करे तो भी शरीर में जो फर्क होते हैं, वे केमिकल हैं। अब ऊपर से देखने में लगता है कि महावीर तो गांजे के बिल्‍कुल खिलाफ हैं। लेकिन उपवास के बहुत पक्ष में हैं। हालांकि उपवास से भी 30 दिन भूखा रहने से शरीर में जो फर्क होंगे, वे केमिकल हैं। कोई फर्क नहीं है।

प्राणायम से भी जो फर्क होते हैं, वे केमिकल हैं। अगर एक आदमी विशेष विधि से श्वास लेता है तो आक्सीजन की मात्रा के अन्तर पड़ने शुरू हो जाते हैं। ज्यादा ऑक्सीजन कुछ तत्वों को जला देती है, कुछ तत्वों ही बचा लेती है। भीतर जो फर्क होते हैं, वे केमिकल हैं।

हिप्पी यह कह रहा है कि अब तक की जितनी साधना पद्धतियां हैं, वे किसी न किसी रूप में केमिकल फर्क ही ला रही हैं। तो केमिकल फर्क एक गोली से भी लाया जा सकता है। चौथा जो हिप्पी का जोर है, जिसकी वजह से वह परेशानी में पड़ा हुआ है, वह इन ड्रग्स के कारण है। कानून इनके खिलाफ है। कानून उन्होंने बनाया था, जिनको एल एस डी का कुछ भी पता नहीं था।

डा. लियरी एक अदभुत आदमी हैं इस दिशा में, जिस आदमी ने इधर बहुत काम किया कि ड्रग्स कैसे मनुष्य को समाधि तक पहुंचा सकते हैं।

और जिन लोगों ने एक बार इस तरह का प्रयोग किया है, वे आदमी और ही तरह के हो गये, उनकी जिन्दगी और ही तरह की हो जाती है। जैसे हम जीते हैं एक तनाव में, जैसे ही कोई इस तरह के ड्रग्स लेता है तो सारा मन रलेक्‍स्‍ड, विश्रामपूर्ण हो जाता है। जीते हैं फिर आप तनाव में नहीं, अभी और यहां। हिप्पीज का जो शब्द है उसके लिए, वह है, 'टर्निंग आन' -कोई एक टर्न है, मोड़ है, दरवाजा है, जो एक गोली देने से आपके लिए खुल जाता है। जैसे 'ड्रापिंग आफ', रास्ते के किनारे उतर जाना; ऐसे ही 'टर्निंग आन ' जहां हम हैं, वहां से कहीं और मुड़ जाना-उस दुनिया में, उस आयाम, डायमेशन में जिसका हमें कोई पता नहीं है। रासायनिक प्रयोग के द्वारा मनुष्य की चेतना विस्तीर्ण हो सकती है और सौंदर्यबोध, एस्थेटिक से भर सकती है।

इस दिशा में डा. लियरी बड़े गहरे प्रयोग कर रहे हैं। छोटी-छोटी उनकी जमातें बनी हुई हैं-जंगलों में, पहाड़ों में, गांवों के बाहर। पुलिस उनका पीछा कर रही है। उन्हें उखाड़ रही है।

केवल अमेरिका में दो लाख हिप्पी हैं। और यह तो ठीक गणना की संख्या है। लेकिन बहुत-से लोग जो पीरियाडिकल, सावधिक हिप्पी हो जाते हैं-कोई दो चार महीने के लिए; फिर वापिस दुनिया में लौट आते हैं, उनकी संख्या भी बड़ी है। बहुत से सेंटर्स हैं, जहां बैठकर इन सबका प्रयोग चल रहा है। जहां बिल्‍कुल ही ठीक सायंटीफिक निरीक्षण में लोग एल एस डी और ये सारी चीजें ले रहे हैं।

      एल्‍डुअस हक्सले ने एक किताब लिखी है, 'डोर्स ऑफ परसेपान्स'। उस किताब में उसने कहा है कि कबीर और नानक को जो हुआ, मैं अब जानता हूं कि क्या हुआ। एल एस डी लेने के बाद हक्सले को लगता है कि क्या दुआ! क्योंकि जिस तरह की बातें वे कह रहे हैं कि अनहद नाद बज रहा है और अमृत की वर्षा हो रही है और आकाश में बादल ही बादल घिरे हैं और अमृत ही अमृत बरस रहा है और कबीर नाच रहे हैं। अब यह जो हम कविता में पढ़कर समझने की कोशिश करते हैं, लेकिन न तो कभी कोई बादल दिखाई पड़ते हैं, जिनमें अमृत भरा हो। न कभी अमृत बरसता दिखाई पड़ता है, न कोई अनहद नाद सुनाई पड़ता है।

लेकिन एल एस डी लेने पर ऐसी ध्वनियां सुनाई पड़नी शुरू होती हैं, जो कभी नहीं सुनी गयीं। और ऐसी बरखा शुरू हो जाती है, जो कभी नहीं हुई। और इतना मन हल्का और नया हो जाता है, जैसा कभी न था।

चौथी बात, हिप्पीज को जो नवीनतम है वह है, 'एक्सपांशन आफ कान्दासनेस भू ड्रग्स', रासायनिक द्रव्यों द्वारा चेतना का विस्तार। ये चार सूत्र मैं मौलिक मानता हूं।

मेरी क्या प्रतिक्रिया है, वह मैं संक्षेप में कहूं।

हिप्पियों ने छोटी-छोटी कयून बना रखी हैं। वे कयून वैकल्पिक समाज, आलरनेट सोसायटी हैं। वे कहते हैं, एक समाज तुम्हारा है 'हां-हुजूरों' का, वियतनाम में लड़ने वालों का, कश्मीर किसका है यह दावा करने वालों का। और एक हमारा है, जिनका कोई दावा नहीं है। जिनका वियतनाम में किसी से कोई संघर्ष नहीं, कश्मीर में जिनका कोई झगड़ा नहीं राजधानियों में जाने की जिनकी कोई इच्छा नहीं।

एक समाज तुम्हारा है, जिसमें तुम कहते हो कि भविष्य में सब कुछ होगा। एक हमारा है जो कहते हैं, अभी और यहीं, जो होना है वह हो। एक आलरनेट सोसायटी, एक वैकल्पिक समाज है हिप्पियों का। तो इस समाज से जो ऊब गये, घबड़ा गये, परेशान हो गये, वे उस समाज में प्रवेश कर जाते हैं।

हिप्पी अभी और यहीं-सदा आनन्द में है। जो कहता है इसी वक्त आनंद में हूं और कल की चिन्ता नहीं करता।

हिप्पियों के विद्रोह के संबंध में मेरी पहली दृष्टि तो यह है-पीछे से शुरू करूं, साइकेडेलिक ड्रग्स से-निश्रय ही रासायनिक तत्वों के द्वारा झलक पायी जा सकती है, लेकिन सिर्फ झलक, अवस्था नहीं।

महावीर या कबीर या बुद्ध के पास जो है, वह अवस्था है, झलक नहीं।

लेकिन झलक भी कीमती चीज है। झलक को अवस्था समझ लेना भूल है। तो हिप्पियों से यहां मेरा फर्क है। वे झलक को अवस्था समझ रहे हैं! झलक सिर्फ झलक है। और झलक किसी गोली पर निर्भर है, वह व्यक्ति को रूपांतरित, ट्रांसफार्म नहीं कर पाती। गोली के असर के बाद आदमी वहीं का वहीं होता है।

लेकिन बुद्ध दूसरे आदमी हैं। उस अनुभव के बाद वे दूसरे आदमी हैं। सत्य की, ब्रह्म की, आत्मा की, मोक्ष की, निर्वाण की प्रतीति के बाद आदमी दूसरा आदमी है, पहला आदमी मर गया। यह दूसरा जन्म हुआ उसका, वह द्विज हुआ। यह दूसरा ही आदमी है। यह वही आदमी नहीं है।

लेकिन ड्रग्स के द्वारा जो झलक मिलती है, वह झलक ही है अवस्था नहीं है। हिप्पी इतना तो ठीक कहते हैं कि यह झलक कीमती है। और जिन्हें नहीं मिली उन्हें मिल जाए तो शायद वह अनुभव, अवस्था की भी तलाश करें। जैसे यहां मैं बैठा हूं। लंदन मैं नहीं गया हूं न्यूयार्क मैं नहीं गया हूं; लेकिन एक फिल्म यहां बनाई जा सकती है, जिसमें मैं लंदन को देख लूं। लेकिन यह मेरा लंदन में होना नहीं है। हालांकि फिल्म को देखकर -लंदन में होने का खयाल पैदा हो सकता है। एक यात्रा शुरू हो सकती है।

 ड्रग्स यात्रा के पहले बिन्दु पर उपयोगी हो सकते हैं। इससे मैं हिप्पियों से राजी हूं। और हिप्पी विरोधियों के विरोध में हूं जो कहते हैं ड्रग्स का कोई उपयोग नहीं, कोई अर्थ नहीं। दूसरी बात में मैं हिप्पी विरोधियों से राजी हूं क्योंकि यह अवस्था नहीं है। और हिप्पियों के विरोध में हूं क्योंकि उन्होंने अगर झलक को अवस्था समझा और बाहर से आरोपित, फोर्स्ट केमिकल प्रभाव को उन्होंने समझा कि मेरी आत्मा नयी हो गयी तो वे निश्रित ही भूल में पड़े जा रहे हैं

शराबी सदा से इसी भूल में है। इस भूल के मैं विरोध में हूं। लेकिन यह मुझे लगता है कि आने वाले मनुष्य के लिए साइक्खैलिक ड्रग्स का बहुत कीमती उपयोग किया जा सकता है।

दूसरी बात। हिप्पी क्रांति के विरोध में हैं, विद्रोह के पक्ष में। लेकिन मजा यह है कि जितने हिप्पी गये छोड़कर समाज को उनका भी पैटर्न, ढांचा बन गया है। अगर आप बाल काटकर हिप्पियों में पहुंच जायें तो हिप्पी आपको ऐसे गुस्से से देखेंगे, जैसे गुस्से से बाल बड़े आदमी कौ समाज देखता है! अगर आप हिप्पी समाज में कहें कि संभोग से समाधि की ओरा मैं रोज स्‍नान करूंगा तो आप उसी क्रोध से देखे जायेंगे, जिस तरह से किसी ब्राह्मण के घर में ठहरा हूं और कहूं कि आज खान न करूंगा। ऐसा यह जो विद्रोह है, वह विद्रोह रिएक्‍शनरी, प्रतिक्रियाअक है।

हिप्पी स्‍नान नहीं करता। महावीर को मानने वाले मनुष्‍यों को बड़ा प्रसन्न हो जाना चाहिए। वे भी स्‍नान नहीं करते। हिप्पी गंदगी को ओढ़ता है। क्योंकि वह कहता है, जैसा मैं हूं हूं। अगर मेरे पसीने में बदबू आती है तो मैं सुगंध परफ्यूम न डालूंगा। आने दो पसीने में बदबू। पसीने में बदबू है। यह बिल्‍कुल ठीक है। लेकिन यह प्रतिक्रिया अगर है तो खतरनाक है। माना कि पसीने में बदबू है, लेकिन परफ्यूम से बदबू मिटाई जा सकती है। और दूसरे आदमी को बदबू झेलने के लिए मजबूर करना, दूसरे की सीमाओं का अनधिकृत अतिक्रमण, ट्रेसपास दै। मेरे पसीने में बदबू है, मैं मजे से अपने पसीने में रहूं। लेकिन जब भी दूसरा आदमी मेरे पड़ोस में है, तो उसको 'भी मेरी बदबू झेलने के लिए मजबूर करना, तो हिंसा शुरू हो गयी। यानी उसकी स्वतंत्रता में बाधा डालना शुरू हो गया।

एक् घटना मैंने कहीं सुनी है कि रवीन्द्रनाथ के पास गांधीजी मेहमान थे। सांझ को जा रहे थे दोनों घूमने तो रवीन्द्रनाथ ने कहा, मैं जरा तैयार हो लूं। पर उन्हें तैयार होने में बहुत देर लगी। गांधीजी को तैयार होने की बात में ही हैरानी थी। फिर देर होते देख उन्होंने झांककर भीतर देखा तो पाया कि रवीन्द्रनाथ आदम कद आइने के सामने खड़े स्वयं को सजाने में लीन हैं! गांधीजी ने कहा, यह क्या कर रहे हैं, और इस उम्र में! तो कवि ने कहा, 'जब उम्र कम थी, तब तो बिना सजे भी चला जाता था, अब नहीं चलता है। और मैं किसी को कुरूप दिलू तो लगता है कि उसके साथ हिंसा कर रहा हूं। '

मैं मानता हूं कि रिक्ष्मानरी कभी भी ठीक अर्थों में रिबेलियस नहीं हो पाता है। प्रतिक्रियावादी जो सिर्फ प्रतिक्रिया कर रहा है, वह समाज से उलटा हो जाता है। तुम ऐसे कपड़े पहनते हो, हम ऐसे पहनेंगे। तुम स्वच्छता से रहते हो, हम गंदगी से रहेंगे। तुम ऐसे हो, हम उलटे चले जायेंगे। लेकिन उलटा जाना विद्रोह नहीं है, प्रतिक्रिया है। मैं मानता हूं, विद्रोह की बड़ी कीमत है। लेकिन हिप्पी प्रतिक्रिया में पड़ गया है। प्रतिक्रिया की कोई कीमत नहीं है। विद्रोह तो एक मूल्य है, लेकिन प्रतिक्रिया एक रोग है।

और ध्यान रहे प्रतिक्रियावादी हमेशा उससे बंधा रहता है, जिसकी वह प्रतिक्रिया कर रहा है। अब ऐसा जरूरी नहीं है, कि एक आदमी नंगा आकर इस कमरे में बैठे तो वह सहज ही हो। यह भी हो सकता है कि वह सिर्फ कपड़े पहनने वाले लोगों की प्रतिक्रिया में इधर नंगा आकर बैठ गया हो, सहज बिल्‍कुल न हो। सहजता का तो मूल्य है, लेकिन असहजता कपड़े पहनने में हो ही नहीं सकती, ऐसा कौन कह सकता है। प्रतिक्रिया पकड़ रही है। प्रतिक्रिया के परिणाम खतरनाक हैं और प्रतिक्रिया ज्यादा स्थायी नहीं होती, सिर्फ संक्रमण की बात होती है। इसलिए धीरे- धीरे प्रतिक्रिया भी सेटल, व्यवस्थित होती जा रही है। हिप्पियों का भी एक समाज बन गया, उसके भी नियम और कानून बन गये। उनकी भी आर्थोडाक्सी बन गयी है! उनका भी पुरोहित, पंडित, नेता सब हो गया है! वहां भी आप जायें तो आप जैसे हैं, वे आपको बेचैनी देना शुरू कर देंगे।

अभी मैं एक घटना पढ़ रहा था। एक अमेरिकन पत्रकार महिला हिप्पियों का अध्ययन करने बहुत से समाजों मैं गई। वह एक समाज में गई है, वहां भोजन चल रहा है हिप्पियों का, तो उन्होंने चम्मचें नहीं ली है। हिन्दुस्तान में क्या करेंगे? अगर हिप्पी आयें तो बडा मुश्किल पड़ेगा। अमेरिका में तो हाथ से खाना बगावत है। हिन्दुस्तान में चम्मच से खाना भी बगावत हो सकता है।

हाथ से ही भोजन खा रहे हैं वे! हाथ से खाने की आदत भी नहीं है तो सब गंदे हाथ हो गये हैं। और इकट्ठा भोजन रखा हुआ है, वह सब गंदा हो गया है! और इस तरह भोजन खा रहे हैं! अब यह जो महिला पत्रकार है यह अपनी चम्मच उठाती है तो किसी ने उसकी चम्मच छीन ली। और उसका हाथ भोजन में डाल दिया है। अब वह बहुत घबड़ा गयी तै। लेकिन वहां यही नियम है! अगर वह महिला हां भरती है तो मैं कहता हूं अब वह महिला फिर कन्‍फरमिस्ट हो गयी है। उसे इंकार करना चाहिए। लेकिन वहां इंकार करना मुश्किल है।

वहां एक हिप्पी ने एक स्‍त्री का ब्लाऊज फाड़ डाला है। उसके ऊपर उसने सब खाना डाल दिया और उसके शरीर से चाट रहा है। अब यह सब प्रतिक्रियाएं हो गयीं। यह पागलपन हो गया। हां, किसी प्रेम के क्षण में किसी सी के शरीर का स्वाद भी अर्थपूर्ण हो सकता है। वह अनिवार्यत: अनर्थ नहीं है। लेकिन बस किसी क्षण में। लेकिन किसी स्‍त्री के शरीर पर शोरवा डालकर, उसे चाटकर तो वे सिर्फ मुंह दिखा रहे हैं तुम्हारे समाज को; वे यह कह रहे हैं कि क्या तुम समझते हो हमें।

गिन्सबर्ग हिप्पी कवि है। एक छोटी-सी 'पोयट्स गेदरिग', कवि सम्मेलन में बोल रहा है। साहस पर कोई कविता बोल रहा है। और उसमें अश्लील शब्दों का प्रयोग कर रहा है। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि इसमें कौन सा साहस है-इस गाली-गलौज का उपयोग करने में। तो गिन्सबर्ग ने उत्तर में कहा, फिर साहस देखोगे? असली साहस दिखलाये? उस आदमी ने कहा, दिखलाओ। तो उसने पैंट खोल दिया और वह नंगा खडा हो गया! और उसने उस आदमी से कहा कि तुम भी नंगे खड़े हो जाओ, अगर साहसी हो तो। लेकिन नंगे खड़े होने में कौन सा साहस है? नंगे खड़े होने में साहस है, ऐसा कहने वाला आदमी नंगा खड़ा होने से डरा हुआ होना चाहिए। अन्यथा साहस दिखाना न पड़े!

मेरे एक शिक्षक थे हाईस्कूल में। उनको जब भी मौका मिल जाये, वे अपनी बहादुरी की बात कहे बिना नहीं रहते थे कि मैं अकेला ही मरघट चला जाता हूं। अंधेरी रात में, और बिल्‍कुल अकेले। मैंने एक दिन उनसे कहा कि आप ऐसी बातें न किया करें। लड़कों को शक होता है कि आप कुछ डरपोक आदमी हैं। इन बातों का क्या बहादुर आदमी भी कहेगा? मैं अकेला ही अंधेरी रात में चला जाता हूं यह तो सिर्फ भयभीत आदमी ही कह सकता है। जिसको भय नहीं है, उसको पता ही नहीं चलता कि कब अंधेरी रात है और कब सूरज निकला। वह बस चला जाता है और हिसाब नहीं रखता!

पीछे गिन्सबर्ग मुझे कभी मिले तो उससे मैं कहना चाहूंगा कि तुमने बहादुरी नहीं बताई, तुमने सिर्फ मुंह बिचकाया। वह आदमी कपड़े पहने हुए है, तुमने कपड़े निकाल दिए, कुछ बहादुरी न हो गई। और इससे उलटा भी हो सकता है कि कल पांच सौ आदमी नंगे बैठे हों और मैं कपड़े पहने पहुंच जाऊँ। और मैं कहूं कि मैं बहादुर हूं। क्योंकि मैं कपड़े पहने हूं। तब भी कोई कठिनाई नहीं है।

मैंने एक घटना सुनी है-नैतिक साहस, मॉरल करेज की। मैंने सुना है एक स्कूल में एक पादरी नैतिक साहस, मॉरल करेज क्या है, यह समझा रहा है। उसने कहा कि 30 बच्चे पिकनिक पर गए हैं। वे दिन भर में थक गए, फिर सांझ को आकर उन्होंने भोजन किया। 29 बच्चे तो तत्काल अपने बिस्तर में चले गए, एक बच्चा ठंडी रात थका—मादा, उसके बाद भी घुटने टेक कर उसने प्रार्थना की। उस पादरी ने कहा इस बच्चे में 'मॉरल करेज' है, इसमें नैतिक साहस है। रात कह रही है सो जाओ, ठंड कह रही है सो जाओ, थकान कह रही है सो जाओ। 29 लड़के कंबलों के भीतर हो गए हैं और एक लडका बैठकर रात की आखिरी प्रार्थना कर रहा है।

महीने भर बाद वह वापस लौटा। उसने कहा, नैतिक साहस पर मैंने तुम्हें कुछ सिखाया था। तुम्हें कुछ याद हो तो मुझे तुम कुछ घटना बताओ। एक लड़के ने कहा, मैं भी आपको एक काल्पनिक घटना बताता हूं। आप जैसे 30 पादरी पिकनिक पर गए। दिन भर थके, भूखे—प्यासे वापस लौटे। २९ पादरी प्रार्थना करने लगे, एक पादरी कंबल ओढ़कर सो गया। तो हम उसको नैतिक साहस कहते हैं। जहां 29 पादरी प्रार्थना कर रहे हों और एक—एक की आंखें कह रही हों कि नर्क जाओगे, अगर प्रार्थना न की; वहां एक पादरी कंबल ओढ़कर सो जाता है।

लेकिन नैतिक साहस का क्या मतलब इतना ही है कि जो सब कर रहे हों, उससे विपरीत करना नैतिक साहस हो जायेगा? सिर्फ विपरीत होना साहस हो जायेगा? नहीं, विपरीत होने से साहस नहीं हो जाता। विपरीत होना जरूरी रूप से सही होना नहीं है।

और अक्सर तो यह होता है कि गलत के विपरीत जब कोई होता है, तब दूसरी गलती करता है और कुछ भी नहीं करता। अक्सर दो गलतियों के बीच में वह जगह होती है, जहां सही होता है। एक गलती से आदमी पेंडुलम की तरह दूसरी गलती पर चला जाता है। बीच में ठहरना बड़ा मुश्किल होता है।

मुझे लगता है, हिप्पी जिसे विद्रोह कह रहे हैं वह विद्रोह तो है—होना चाहिए वैसा विद्रोह, लेकिन वह प्रतिक्रिगा ज्यादा है। और प्रतिक्रिया से मेरा विरोध है।

एक रिबेलियस, विद्रोही आदमी बहुत और तरह का आदमी है। एक विद्रोही आदमी इसलिए 'नहीं' नहीं कहता कि नहीं कहना चाहिए.। अगर नहीं कहना चाहिए, इसलिए कोई नहीं कहता है तो यह 'हां—हुजूरी' है। इसमें कोई फर्क न हुआ। वह 'नहीं' इसलिए कहता है कि उसे लगता है कि नहीं कहना उचित है। और अगर उसे लगता है कि 'हां' कहना उचित है तो दस हजार 'नहीं' कहने वालों के बीच में भी वह 'हां' कहेगा, यानी वह सोचेगा।

मेरा कहना यह है कि विद्रोह अनिवार्य रूप से विवेक है और प्रतिक्रिया अविवेक है।

तो हिप्पी विद्रोह की बात करके प्रतिक्रिया की तरफ चला जाता है। वहां सब बातें व्यर्थ हो जाती हैं।

दूसरी बात मैंने कही कि हिप्पी कह रहा है. सहज जीवन। लेकिन सहज जीवन क्या है? जो मेरे लिये सहज है, वह जरूरी नहीं है कि आपके लिए भी सहज हो। जो आपके लिए सहज है, वह मेरे लिए जरूरी नहीं है कि सहज हो। जो एक के लिए जहर हो, वह दूसरे के लिए अमृत हो सकता है। असल में एक—एक व्यक्ति का अपना— अपना होने का यही अर्थ है। लेकिन हिप्पी कह रहा है कि सहज जीवन, और सहज जीवन के भी नियम बनाये ले रहा है! वह कह रहा है सहज जीवन यही है, जहां पाखाना किया है, उसी के बगल में बैठकर खाना खा लो!

हमारे मुल्क ने भी परमहंस पैदा किये हैं। उनका भी सहज जीवन यही था कि पाखाना पड़ा है, वहीं बैठकर खाना खा लेते। लेकिन एक के लिए यह सहज हो सकता है। और दूसरे के लिए यह बहुत असहज हो सकता है कि पाखाना पडा हो वहां और वह खाना खाये। सहज जीवन का कोई नियम नहीं हो सकता। 

लेकिन हिप्पियों ने भी नियम बना लिए हैं—कितना लम्बा बाल होना चाहिए, किस कट का कोट होना चाहिए! किस छींट की कमीज होनी चाहिए, पैंट की मोरी कितनी संकरी होनी चाहिए! जूते कैसे होने चाहिए, चाल कैसी होनी चाहिए! गले में हिन्दुस्तान की एक रुद्राक्ष की एक माला भी होनी चाहिए! उसके भी नियम, उसकी भी सारी व्यवस्था हो गयी है! असल में आदमी कुछ ऐसा है कि वह व्यवस्था के बाहर हो ही नहीं पाता। इधर से व्यवस्था तोड़ता है, उधर से व्यवस्था बना लेता है। यहां मैं हिप्पियों से राजी नहीं हूं।

मैं मानता हूं कि एक सहज दूनिया सब तरह के लोग को स्वीकार करेगी। यानी वह इस आदमी को भी स्वीकार करेगी, जिसको हम समझते हों कि सहज नहीं है। लेकिन उसके लिए वह सहज होना हो सकता है। सबका स्वीकार ही सहजता का आधार बन सकता है।

लेकिन हिप्पी के लिए सब स्वीकार नहीं है। वह दूसरों को ऐसे ही देखता है, जैसे कि दूसरे उसको देखते हैं। कंडेमनेशन से, निन्दा की नजर से। दूसरे लोगों को वह कहता है 'स्कवॉयर', चौखटे लोग। वह स्वयं भर स्कवॉयर नहीं है। बाकी जितने लोग हैं, वे चौखटे हैं—जों दफ्तर जा रहे हैं, स्कूल में पढ़ा रहे हैं, दुकान कर रहे हैं, पति हैं, पिता हैं। लेकिन किसी के लिए पति होना उतना ही सहज हो सकता है, जितना किसी के लिए प्रेमी होना। और किसी के लिए एक ही सी जीवन भर के लिए सहज हो सकती है, जितना किसी अन्य का स्‍त्री को बदल लेना। लेकिन हिप्पी यदि कहे कि सी का बदलना ही सहज है, तब फिर दूसरी अति पर वही भूल शुरू हो गयी। इसलिए मैं इस सूत्र में भी उनसे राजी नहीं हूं। मैं राजी हूं कि प्रत्येक व्यक्ति का अंगीकार होना जरूरी है।

      और अंतिम बात। जब कोई वादों को भी जानकर और चेष्टा से विरोध करता है, तब चाहे वह कितना ही कहे कि वाद नहीं है, वाद बनना शुरू हो जाता है। जिसको हम अ—कविता कहते हैं, वह भी कविता ही बन जाती है। जिसको जापान में अ—नाटक, 'नो ड्रामा' कहा जाता है, वह भी ड्रामा है। और जिसको हम अ—वाद कहते हैं, वह भी नये तरह का वाद हो जाता है। असल में मनुष्य जब तक वाद का विरोध भी करेगा तो भी वाद निर्मित हो जायेगा। अगर अ—वादी किसी को होना है तो उसे तो मौन ही होना पड़ेगा। उसे वाद के विरोध का भी उपाय है। इसलिए अ—वादी तो दूनिया में सिर्फ वे ही लोग थे, जो चुप ही रह गये। क्योंकि बोले तो वाद बन जाये।

      अब नागार्जुन है, वह सारे वादों का खंडन करता है। कोई उससे पूछे कि तुम्हारा वाद क्या है तो वह कहता है, मेरा कोई वाद नहीं है। वह सबका खण्‍डन करता है और उसका अपना कोई वाद नहीं है। लेकिन तब सबका खंडन करना भी वाद बन सकता है।

असल में एंटी—फिलासफी भी फिलासफी ही है। नान—फिलासफिक होना बहुत मुश्किल है। एंटी—फिलासफिक होना बहुत आसान है। दर्शन के विरोध में होने में कठिनाई नहीं है। क्योंकि एक दर्शन विकसित हो जायेगा, जो दर्शन का विरोध करेगा। लेकिन नान—फिलासफिक होना—दर्शन के ऊपर चले जाना, बियांड—पार चले जाना तो सिर्फ मिस्टिक के लिए संभव है, रहस्यवादी के लिए संभव है, संत के लिए सं० है। जो कहता है, सत्य के, सिद्धान्त के, वाद के पार। इतना ही नहीं, वह कहता है बुद्धि के पार, विचार के पार, मन के पार, जहां मैं ही नहीं हूं वहां। जब सबके पार जो शेष रह जाता है, वही है। लेकिन उसे तो कैसे कहें। अ हिप्पी वहां नहीं पहुंचा, लेकिन कभी पहुंच सकता है।

फिर हिप्पी बड़ी जमात है। उसमें वर्ग भी हैं। अगर हमें रास्ते में एक पीत वस्त्रधारी भिक्षु मिल जाये तो उसे देखकर बुद्ध को नहीं तौलना चाहिए। काशी में जो हिप्पी भीख मांग रहा है सड़क पर, उसे देखकर डा. तिमोती लियरी को या डा. पर्ल्‍स को नहीं तौलना चाहिये। वे बड़े अद्भुत लोग हैं। लेकिन सभी वर्ग के लोग इकट्ठे हो जाते हैं।

हिप्पियों का एक श्रेष्ठ वर्ग निश्‍चित ही पार जा रहा है। और इस बात की संभावना है कि पश्‍चिम में मिस्टिसिज्य का जन्म हिप्पियों का जो श्रेष्ठतम वर्ग है, उससे पैदा होगा। एक नये वैज्ञानिक युग में भी, बुद्धि को आग्रह करने वाले युग में भी, बुद्धि—अतीत की ओर इशारा करने वाला एक वर्ग पैदा होगा।

लेकिन ये दो चार हिप्पियों की बात है। बाकी जो बड़ा समूह है, वह भीड़— भाड़ है। वह सिर्फ घर से भागे हुए छोकरों का समूह है। कोई पढ़ना नहीं चाहता है, कोई बाप से क्रोध में है। कोई किसी लड़की से विवाह करना चाहता है। कोई गांजा पीना चाहता है। कोई कैसे भी रहना चाहता है। कोई सुबह दस बजे तक सोना चाहता है। इन सारे लोगों का समूह है। इसलिए मैं दो बातें अंत में कह दूं।

एक यह कि हिप्पी में जो श्रेष्ठतम फूल हैं, उनसे तो मुझे आशा बंधती है कि उनसे एक नये तरह के मिस्टिसिज्य, एक नये तरह के रहस्‍य का जन्म होगा।

लेकिन हिप्पियों में जो नीचे का वर्ग है, उनसे कोई आशा नहीं बंधती। वे सिर्फ घर—भगोड़े हैं। हिप्पी शब्द भी 'हिप' से ही बनता है, अर्थात पीठ दिखाकर भाग जाने वाले। ऐसे भगोड़े थोड़े दिन में वापिस भी लौट जाते हैं। वे घर लौट जायेंगे ही।

इसलिए आपको 35 साल से ऊपर का हिप्पी मुश्‍किल से मिलेगा,नीचे का ही मिलेगा। अधिकतर तो टीन एजर्स, उन्नीस वर्ष के भीतर के हैं। क्योंकि जैसे ही उनको एक बच्चा हुआ और प्रेम हो गया एक सी से कि घर बनाने का सवाल शुरू हो जाता है। फिर उन्हें नौकरी चाहिए। फिर वे वापस लौट आते हैं। स्कवॉयर लोगों की दुनिया में, चौखटे लोगों की दूनिया में वे फिर वापस आ जाते हैं। फिर किसी दफ्तर में नौकरी। फिर घर है, फिर गृहस्थी है, फिर सब चलने लगता है।

लेकिन ऐसा मैं जरूर सोचता हूं कि हिप्पियों ने एक सवाल खड़ा किया है सारी मनुष्य संस्कृति पर और उस सवाल के उत्तर में भविष्य के लिए बड़े संकेत हो सकते हैं। इसलिए सोचने योग्य है हमारे लिए बहुत। हिन्दुस्तान तो अभी हिप्पी नहीं पैदा कर सकता।

गरीब कौम हिप्पी पैदा नहीं करती। समृद्धि ही हिप्पी पैदा करती है।

गौतम बुद्ध राजा के बेटे है। महावीर राजा के बेटे हैं। जैनियों के सब तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं। राम, कृष्ण, सब राजाओं के बेटे हैं। जहां सब मिल जाता है, वहां से बगावती और आगे जाने वाला आदमी पैदा होता है।

हिप्पी का अभी यहां भारत में सवाल नहीं है। अभी हम हिप्पी भी पैदा करेंगे तो वह सिर्फ बाल बढ़ाने वाला आदमी होगा और कुछ भी नहीं। उसको कहो कि एक आदमी दस हजार रुपये दे रहा है, लड़की की शादी के लिए तो वह कहेगा, फिर घोड़ा कहां है!

गरीब कौम हिप्पी पैदा नहीं कर सकती, समृद्ध कौम ही कर सकती है। असल में इसका मतलब यह हुआ कि 'वी केन नाट अफर्ड'—यह हमारे लिए महंगा सौदा है। यह दुखद है। यह सुखद नहीं है। हम अभी हिप्पी पैदा नहीं कर सकते, यह बड़े दुख की बात है। हम गरीब हैं बहुत। अभी हम उस जगह नहीं हैं, जहां कि हमारे लड़के कुछ भी न करें, तो जी सकें।

अगर दो लाख आदमी बिना कुछ किये जी रहे हैं, तो उसका मतलब है कि समाज समृद्ध, एस्थूअंट है, समाज में बहुत पैसा है। एक हिप्पी है, वह दो दिन काम कर आता है गांव में, और महीने भर के लिए कमा है। वह 28 दिन पड़ा रहता है, एक वृक्ष के नीचे ढोल बजाता रहता है। हरि भजन करता रहता है। हरि कीर्तन करता रहता है।

गरीब कौम ऐसा विद्रोह नहीं पैदा कर सकती। लेकिन सदा के लिए तो हम गरीब नहीं रहेंगे। इसलिए छात्रों ने आकर कहा कि हिप्पियों पर कुछ कहें तो मैंने कहा अच्छा है, आज नहीं कल हिप्पी हम भी तो पैदा करेंगे ही। तो उसके पहले साफ हो जाना चाहिये कि हिप्पी याने क्या?

वैसे इस देश ने अपनी समृद्धि के दिनों में बहुत तरह के हिप्पी पैदा किए। जिनका पश्‍चिम को कुछ पता भी नहीं गिन्सबर्ग जब काशी आया तो एक संन्यासी से उसको मिलाने ले गए। उस संन्यासी से जब कहा गया कि '? हिप्पी है तो वह संन्यासी खूब हंसा और उसने कहा, तुम तो सिर्फ हिप्पी हो, हम महाहिप्पी हैं। हम काशीवासी हैं और काशी है नामी महाहिप्पी भगवान शंकर की भूमि। शंकर जैसे परम स्वतन्त्र व्यक्तित्व भारत ने कभी पैदा किए थे। लेकिन वह समृद्ध दिनों की पुरानी याददाश्त है। भविष्य में हम फिर कभी हिप्पी पैदा कर सकते हैं।

लेकिन सोचना तो बहुत जरूरी है। और सोचकर यह देखना जरूरी है कि हिप्पियों की इस घटना में क्‍या मूल्यवान घटित हो रहा है मनुष्य की चेतना के लिए।

मनुष्य—चेतना क्रांति के एक कगार पर खड़ी है और एक निर्णायक छलांग अति निकट है।

बाह्य विस्तार अब सार्थक नहीं है। अंतस विस्तार की खोज बेचैनी से चल रही है अनेक आयामों में।

स्वयं की भावी चेतना को खोज रहा है। सुबह होने के पहले अंधेरा भी निश्‍चित ही गहन हो गया है, लेकिन 'स्वर्ण—प्रभात की योजना भी मिल रही है।

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रचनाएँ
संभोग से समाधि की ओर- ओशो
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'संभोग से समाधि की ओर' ओशो की सबसे चर्चित और विवादित किताब है, जिसमें ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है। साथ ही यह किताब काम और उससे संबंधित सभी मान्यताओं और धारणाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है। ओशो कहते हैं।''जो उस मूलस्रोत को देख लेता है...., यह बुद्ध का वचन बड़ा अद्भुत है : 'वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। ' वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है। जिसको मैने 'संभोग से समाधि की ओर' कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं। एक तो रति है मनुष्य की-सी और पुरुष की।
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संभोग से समाधि की ओर (पहला प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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परमात्मा की सृजन-ऊर्जा मेरे प्रिय आत्मन्! प्रेम क्या है? जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों तरफ,

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संभोग से समाधि की ओर (दूसरा प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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संभोग: अहं-शून्यता की झलक मेरे प्रिय आत्मन्! एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़

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संभोग से समाधि की ओर (चौथा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! एक छोटा सा गांव था। उस गांव के स्कूल में शिक्षक राम की कथा पढ़ाता था। करीब-करीब सारे बच्चे सोए हुए थे। राम की कथा सुनते समय बच्चे सो जाएं, यह आश्चर्य नहीं। क्योंकि राम की कथा सुनते

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संभोग से समाधि की ओर (पांचवा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि मैंने बोलने के लिए सेक्स या काम का विषय क्यों चुना है? इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को

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संभोग से समाधि की ओर (छठा प्रवचन)

26 अक्टूबर 2021
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यौन: जीवन का ऊर्जा-आयाम प्रश्न: धर्मशास्त्रों में स्त्रियों और पुरुषों का अलग रहने में और स्पर्श आदि के बचने में क्या चीज है? इतने इनकार में अनिष्ट वह नहीं होता है? धर्म के दो रूप हैं। जैसे कि सभी च

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संभोग से समाधि की ओर (सातवां प्रवचन)

26 अक्टूबर 2021
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युवक और यौन एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक मुसलमान फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्हीं मित्रों से मिलन

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संभोग से समाधि की ओर (चौदवां प्रवचन)

28 अक्टूबर 2021
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1. क्या मेरे सूखे हृदय में भी उस परम प्यारे की अभीप्सा का जन्म होगा? 2. आप वर्षों से बोल रहे हैं। फिर भी आप जो कहते हैं वह सदा नया लगता है। इसका राज क्या है? 3. मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं।

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोट

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं, तो वह मिलन एक स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है, एक आध्यात्मिक कृत्य हो जाता है। फिर उसका सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, व

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा ह

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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विद्रोह क्‍या है हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है। और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा सम

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संभोग से समाधि कि ओर (ग्‍याहरवां प्रवचन)

20 अप्रैल 2022
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युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है? युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा है। उम्र का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-12)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह-जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखाई पड़ता है। जगह-जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है: प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड! अध्यापकगण, आप बूढ़े हो गए हैं!

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-13)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते ह

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-15)

20 अप्रैल 2022
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सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-16)

20 अप्रैल 2022
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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है। पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति। दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति। और

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-18)

20 अप्रैल 2022
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तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में। पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नही

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