तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में।
पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नहीं कर सकता है। और वे लोग, जिनके हाथों में जंजीरें हैं, उतने बड़े गुलाम नहीं हैं, जितने वे लोग, जिनकी आत्मा पर विचारों की जंजीरें हैं; वादों, सिद्धांतों, संप्रदायों की जंजीरें हैं। आदमी की असली गुलामी मानसिक है।
दूसरे दिन दूसरे सूत्र पर बात की है: भीड़ की आंखों में अपने प्रतिबिंब से बचने की–पब्लिक ओपीनियन–वह दूसरी जंजीर है। आदमी जीवन भर यही देखता रहता है कि दूसरे मेरे संबंध में क्या सोचते हैं! और दूसरे मेरे संबंध में ठीक सोचें, इस भांति का अभिनय करता रहता है। ऐसा व्यक्ति अभिनेता ही रह जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में चरित्र जैसी कोई बात नहीं होती। ऐसा व्यक्ति बाहर के अभिनय में ही खो जाता है, भीतर की आत्मा से उसका कभी संबंध नहीं होता। दूसरा सूत्र था: भीड़ से मुक्ति।
तीसरा सूत्र था: दमन से मुक्ति।
वे जो अपने चित्त को दबाने में ही जीवन नष्ट कर देते हैं, जिस बात को दबाते हैं, उसी बात से बंधे रह जाते हैं। अगर उन्होंने धन से छूटने की कोशिश की, लोभ को दबाया, तो वे परम लोभी हो जाएंगे। अगर उन्होंने काम को, सेक्स को दबाया, तो कामुक हो जाएंगे। जिसको आदमी दबाता है, वही हो जाता है, यह कल तीसरे सूत्र की बात हुई।
आज चौथे सूत्र की बात करेंगे। इसके पहले कि हम चौथे सूत्र को समझें, दमन के संबंध में प्रास्ताविक रूप से कुछ समझ लेना जरूरी है।
मनुष्य को पता ही नहीं चलता जन्म के बाद कब दमन शुरू हो गया है! हमारी सारी शिक्षा, सारी संस्कृति, सारी सभ्यता दमनवादी है। जगह-जगह मनुष्य पर रोक है। क्रोध! तो क्रोध मत करो! लेकिन कोई नहीं समझाता कि अगर क्रोध नहीं किया, तो क्रोध भीतर सरक जाएगा, उसका क्या होगा? अगर क्रोध को पी गए, तो वह खून में मिल जाएगा, हड्डी तक उतर जाएगा, उस क्रोध का क्या होगा?
क्रोध को दबा लेने से क्रोध का अंत नहीं होता। दबा हुआ क्रोध भीतर प्राणों में प्रविष्ट हो जाता है। निकला हुआ क्रोध शायद थोड़ी देर का होता, दबा हुआ क्रोध जीवन भर के लिए साथी हो जाता है। क्रोध को दबाया कि पूरा व्यक्तित्व क्रोध से भर जाता है। लेकिन बचपन से ही सिखाया जाता है: क्रोध–क्रोध मत करना! ऐसी ही सारी बातें सिखाई जाती हैं। लेकिन कोई भी क्रोध से मुक्त नहीं हो पाता।
एक पूर्णिमा की रात एक छोटे से गांव में एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली। और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए और शराबघर से बाहर निकले, तो चांद की बरसती चांदनी में उन्हें खयाल आया कि नदी पर जाएं और नौका-विहार करें।
रात बड़ी सुंदर और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नावें वहां बंधी थीं। मछुए नाव बांध कर घर जा चुके थे। रात आधी हो गई थी। वे एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवार उठा ली और नाव खेना शुरू किया। फिर सुबह होने तक वे नाव को खेते रहे। सुबह की ठंडी हवाएं आईं, तब होश आया थोड़ा, किसी ने पूछा, कहां आ गए होंगे अब तक हम? आधी रात तक हमने यात्रा की है, न-मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे। उतर कर कोई देख ले–किस दिशा में चल पड़े हैं, कहां पहुंच गए हैं? जो उतरा था, वह उतर कर हंसने लगा। और उसने कहा कि दोस्तो, तुम भी उतर आओ! हम कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। हम वहीं खड़े हैं, जहां रात नाव खड़ी थी।
वे बहुत हैरान हुए। रात भर उन्होंने पतवार चलाई थी और वहीं खड़े थे! उतर कर देखा तो पता चला, नाव की जंजीरें किनारे से बंधी रह गई थीं, उन्हें वे खोलना भूल गए थे!
जीवन भी, पूरे जीवन नाव खेने पर, पूरे जीवन पतवार खेने पर, कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। मरते समय आदमी वहीं पाता है, जहां वह जन्मा था! ठीक उसी किनारे पर, जहां आंख खोली थीं, वहीं आंख बंद करते समय आदमी पाता है कि वहीं खड़ा हूं। और तब बड़ी हैरानी होती है कि जीवन भर जो दौड़-धूप की थी उसका क्या हुआ? वह जो श्रम किया था कहीं पहुंचने को, वह जो यात्रा की थी, वह सब निष्फल गई? मृत्यु के क्षण में आदमी वहीं पाता है, जहां जन्म के क्षण में था! तब सारा जीवन एक सपना मालूम पड़ने लगता है। नाव कहीं बंधी रह गई किसी किनारे से!
हां, कुछ लोग–कुछ सौभाग्यशाली–मरते क्षण वहां पहुंच जाते हैं, जहां जन्म ने उन्हें नहीं बांधा। वहां जहां जीवन का आकाश है, वहां जहां जीवन का प्रकाश है, वहां जहां सत्य है, वहां जहां परमात्मा का मंदिर है–वहां पहुंच जाते हैं। लेकिन वे वे ही लोग हैं, जो किनारे से, खूंटे से जंजीर खोलने की याद रखते हैं।
इन चार दिनों में कुछ जंजीरों की मैंने बात की है। पहले दिन मैंने कहा कि शास्त्रों-सिद्धांतों की जंजीर है बड़ी गहरी। और जो शास्त्रों-सिद्धांतों से बंधा रह जाता है, वह कभी जीवन के सागर में यात्रा नहीं कर पाता है।
जीवन का सागर है–अज्ञात; और सिद्धांत और शास्त्र सब हैं–ज्ञात।
ज्ञात से अज्ञात की तरफ जाने का कोई भी मार्ग नहीं है, सिवाय ज्ञात को छोड़ने के। जो भी हम जानते हैं वह जानते हैं और जो जीवन है वह अनजान है, अननोन है; वह परिचित नहीं है। तो जो हम जानते हैं, उसके द्वारा उसे नहीं पहचाना जा सकता जिसे हम नहीं जानते हैं। जो ज्ञात है, जो नोन है, उससे अननोन को, अज्ञात को जानने का कोई द्वार नहीं है, सिवाय इसके कि ज्ञात को छोड़ दिया जाए। ज्ञात को छोड़ते ही अज्ञात के द्वार खुल जाते हैं।
पहले दिन पहले सूत्र में मैंने यही कहा: छोड़ें हम शास्त्र को, छोड़ें शब्द को! क्योंकि सब शब्द उधार हैं–बारोड; बासे; मरे हुए। और सब शास्त्र पराए हैं–कोई कृष्ण का, कोई राम का, कोई बुद्ध का, कोई जीसस का, कोई मोहम्मद का। जो उन्होंने कहा है, वह उनके लिए सत्य रहा होगा। निश्चित ही, जो उन्होंने कहा है, उसे उन्होंने जाना होगा। लेकिन दूसरे का ज्ञान किसी और दूसरे का ज्ञान नहीं बनता है, नहीं बन सकता है। कृष्ण जो जानते हैं, जानते होंगे। हमारे पास कृष्ण का शब्द ही आता है, कृष्ण का सत्य नहीं।
मैंने सुना है, एक कवि समुद्र की यात्रा पर गया है। जब वह सुबह समुद्र के तट पर जागा, इतनी सुंदर सुबह थी! इतना सुंदर प्रभात था! पक्षी गीत गाते थे वृक्षों पर। सूरज की किरणें नाचती थीं लहरों पर। लहरें उछलती थीं। हवाएं ठंडी थीं। फूलों की सुवास थी। वह नाचने लगा उस सुंदर प्रभात में। और फिर उसे याद आया कि उसकी प्रेयसी तो एक अस्पताल में बीमार पड़ी है। काश, वह भी आज यहां होती! लेकिन वह तो नहीं आ सकती। वह तो बिस्तर से बंधी है। उसके तो उठने की कोई संभावना नहीं।
तो उस कवि को सूझा कि फिर मैं यह करूं, समुद्र की इन ताजी हवाओं को, इन सूरज की नाचती किरणों को, इस संगीत को, इस सुवास को एक पेटी में बंद करके ले जाऊं। और अपनी प्रेयसी को कहूं–देख, कितनी सुंदर सुबह से एक टुकड़ा तेरे लिए ले आया हूं!
वह गांव गया और एक पेटी खरीद कर लाया। बहुत सुंदर पेटी थी। और उस पेटी में उसने समुद्र के किनारे खोल कर हवाएं भर लीं, सूरज की नाचती किरणें भर लीं, सुगंध भर ली। उस सुबह का एक टुकड़ा उस पेटी में बंद करके, ताला लगा कर सब रंध्र-रंध्र बंद कर दी, कि कहीं से वह सुबह बाहर न निकल जाए। और उस पेटी को अपने पत्र के साथ अपनी प्रेयसी के पास भेजा कि सुबह का सुंदर एक टुकड़ा, एक जिंदा टुकड़ा सागर के किनारे का तेरे पास भेजता हूं। नाच उठेगी तू! आनंद से भर जाएगी! ऐसी सुबह मैंने कभी देखी नहीं।
उस प्रेयसी के पास पत्र भी पहुंच गया, पेटी भी पहुंच गई। पेटी उसने खोल ली, लेकिन उसके भीतर तो कुछ भी न था–न सूरज की किरणें थीं, न हवाएं थीं, न कोई सुवास थी। वह पेटी तो बिलकुल खाली थी, निहायत खाली थी, उसके भीतर तो कुछ भी न था। पेटी पहुंचाई जा सकती है, जिस सौंदर्य को सागर के किनारे जाना, उसे नहीं पहुंचाया जा सकता।
जो लोग सत्य के, जीवन के सागर के तट पर पहुंच जाते हैं, वे वहां क्या जानते हैं–कहना मुश्किल है। क्योंकि हमारा सूरज, जिस प्रकाश को वे जानते हैं, उसके सामने अंधकार है। पता नहीं वे जिस सुवास को जानते हैं, हमारे किसी फूल में वह सुवास नहीं है, उसकी दूर की गंध भी नहीं है। वे जिस आनंद को जानते हैं, हमारे सुखों में उस आनंद की एक किरण भी नहीं है। वे जिस जीवन को जानते हैं, हमारे शरीर में उस जीवन का हमें पता भी नहीं है। उनके मन को भी होता है: भेज दें उनके लिए जो रास्ते पर पीछे भटक रहे हैं। थोड़ा सा टुकड़ा शब्दों की पेटियों में भर कर वे भेजते हैं–गीता में, कुरान में, बाइबिल में। हमारे पास पेटियां आ जाती हैं, शब्द आ जाते हैं; लेकिन जो भेजा था, वह पीछे छूट जाता है, वह हमारे पास नहीं आता है। फिर हम इन्हीं पेटियों को सिर पर ढोए हुए घूमते रहते हैं। कोई गीता को लेकर घूम रहा है, कोई कुरान को, कोई बाइबिल को। और चिल्ला रहा है कि सत्य मेरे पास है! मेरी किताब में है!
सत्य किसी भी किताब में न है, न हो सकता है। सत्य किसी शब्द में न है, न हो सकता है। सत्य तो वहां है, जहां सब शब्द क्षीण हो जाते हैं और गिर जाते हैं। जहां चित्त मौन हो जाता है, निर्विचार, वहां है सत्य। न वहां कोई शास्त्र जाता है, न कोई सिद्धांत जाते हैं।
इसलिए जो सिद्धांतों और शास्त्रों की खूंटियों से बंधे हैं, वे कभी जीवन के सागर के तट पर नहीं जा सकेंगे। यह मैंने पहले सूत्र में कहा।
दूसरे सूत्र में मैंने कहा: जो लोग भीड़ से बंधे हैं और भीड़ की आंखों में देखते रहते हैं कि लोग क्या कहते हैं, वे लोग असत्य हो जाते हैं। क्योंकि भीड़ असत्य है। भीड़ से ज्यादा असत्य इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं।
सत्य जब भी अवतरित होता है, तब व्यक्ति के प्राणों पर अवतरित होता है। सत्य भीड़ के ऊपर अवतरित नहीं होता। सत्य को पकड़ने के लिए व्यक्ति का प्राण ही वीणा बनता है। वहीं से झंकृत होता है सत्य। भीड़ के पास कोई सत्य नहीं है। भीड़ के पास उधार बातें हैं, जो कि असत्य हो गई हैं। भीड़ के पास किताबें हैं, जो कि मर चुकी हैं। भीड़ के पास महात्माओं, तीर्थंकरों, अवतारों के नाम हैं, जो सिर्फ नाम हैं; जिनके पीछे अब कुछ भी नहीं बचा, सब राख हो गया है। भीड़ के पास परंपराएं हैं; भीड़ के पास याददाश्तें हैं; भीड़ के पास हजारों-लाखों साल की आदतें हैं; लेकिन भीड़ के पास वह चित्त नहीं, जो मुक्त होकर सत्य को जान लेता है। जब भी कोई उस चित्त को उपलब्ध करता है, तो अकेले में, व्यक्ति की तरह उस चित्त को उपलब्ध करना पड़ता है।
इसलिए जहां-जहां भीड़ है, जहां-जहां भीड़ का आग्रह है–हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, ईसाइयों की भीड़, जैनियों की भीड़, बौद्धों की भीड़–सब भीड़ असत्य हैं। हिंदू भी, मुसलमान भी, ईसाई भी, जैन भी–और बीमारियों के कोई भी नाम हों, सब। भीड़ का कोई संबंध सत्य से नहीं है। लेकिन हम भीड़ को देख कर जीते हैं। हम देखते हैं कि भीड़ क्या कह रही है? भीड़ क्या मान रही है?
जो आदमी भीड़ को देख कर जीता है, वह अपने बाहर ही भटकता रह जाता है; क्योंकि भीड़ बाहर है। जिस आदमी को भीतर जाना है, उसे भीड़ से आंखें हटा लेनी पड़ती हैं। और अपनी तरफ, जहां वह अकेला है, उस तरफ आंखें ले जानी पड़ती हैं। लेकिन हम सब भीड़ से बंधे हैं; भीड़ की खूंटी से बंधे हैं।
मैंने सुना है कि एक सम्राट था। और उस सम्राट के दरबार में एक दिन एक आदमी आया और उस आदमी ने कहा कि महाराज, आपने सारी पृथ्वी जीत ली, लेकिन एक चीज की कमी है आपके पास।
उस सम्राट ने कहा, कमी? कौन सी है कमी, जल्दी बताओ! क्योंकि मैं तो बेचैन हुआ जाता हूं। मैं तो सोचता था, सब मैंने जीत लिया।
उस आदमी ने कहा, आपके पास देवताओं के वस्त्र नहीं हैं। मैं देवताओं के वस्त्र आपके लिए ला सकता हूं।
सम्राट ने कहा, देवताओं के वस्त्र तो कभी न देखे, न सुने! कैसे लाओगे?
उस आदमी ने कहा, लाना ऐसे तो बहुत मुश्किल है, क्योंकि पहले तो देवता बहुत सरल थे। और आजकल हिंदुस्तान के सब राजनीतिज्ञ मर कर स्वर्गीय हो गए हैं, वहां बड़ी बेईमानी, बहुत करप्शन सब तरह के शुरू हो गए हैं।
हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ मर कर सब स्वर्गीय हो जाते हैं, नरक में तो कोई जाता नहीं। हालांकि कोई राजनीतिज्ञ स्वर्ग में नहीं जा सकता। और अगर राजनीतिज्ञ जिस दिन स्वर्ग में जाने लगेंगे, उस दिन स्वर्ग भले आदमियों के रहने योग्य जगह न रह जाएगी। लेकिन होते तो सभी स्वर्गीय हैं।
तो उसने कहा कि जब से ये सब पहुंचने लगे हैं वहां, बड़ी मुश्किल हो गई है, बहुत रिश्वत चल पड़ी है वहां। लाने भी पड़ेंगे अगर देवताओं के वस्त्र तो करोड़ों रुपये खर्च हो जाएंगे।
उस सम्राट ने कहा, करोड़ों रुपये!
उस आदमी ने कहा कि दिल्ली में जाइए तो लाखों खर्च हो जाते हैं। तो वह तो स्वर्ग है, वहां करोड़ों रुपये खर्च हो जाएंगे। चपरासी भी वहां करोड़ों से नीचे की बात नहीं करता है।
उस राजा ने कहा, धोखा देने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो?
उस आदमी ने कहा कि सम्राटों को धोखा देना मुश्किल है, क्योंकि उनसे बड़े धोखेबाज जमीन पर दूसरे नहीं हो सकते। उनको क्या धोखा दिया जा सकता है? डाकुओं को क्या लूटा जा सकता है? हत्यारों की क्या हत्या की जा सकती है? मैं निरीह आदमी, आपको क्या धोखा दूंगा? और फिर चाहें तो आप पहरा लगा दें, मुझे एक महल के भीतर बंद कर दें। मैं महल के भीतर ही रहूंगा। क्योंकि देवताओं के वहां जाने का रास्ता आंतरिक है, इसलिए बाहर की कोई यात्रा नहीं करनी है। लेकिन करोड़ों रुपये खर्च होंगे और छह महीने लग जाएंगे।
राजा ने कहा, छह महीने! मैं तो सोचता था, तू दिन, दो दिन में ले आएगा।
उसने कहा कि दिन, दो दिन में तो दिल्ली में फाइल नहीं सरकती, तो स्वर्ग में क्या इतना आसान है आप समझते हैं? कोशिश मैं अपनी करूंगा।
राजा ने कहा, ठीक है।
दरबारियों ने कहा, यह आदमी धोखेबाज मालूम पड़ता है। देवताओं के वस्त्र कभी सुने हैं आपने?
राजा ने कहा, लेकिन धोखा देकर यह जाएगा कहां?
नंगी तलवारों का पहरा लगा दिया और उस आदमी को महल में बंद कर दिया। वह रोज कभी करोड़, कभी दो करोड़ रुपये मांगने लगा। छह महीने में उसने अरबों रुपये मांग लिए। लेकिन राजा ने कहा, कोई फिक्र नहीं। जाएगा कहां?
ठीक छह महीने पूरे हुए। वह आदमी पेटी लेकर बाहर आ गया। उसने सैनिकों से कहा, मैं कपड़े ले आया हूं, चलें महल की तरफ। तब तो शक की कोई बात न रही। सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई। दूर-दूर से लोग देखने आ गए थे। दूर-दूर से राजे बुलाए गए थे, सेनापति बुलाए गए थे, बड़े लोग बुलाए गए थे, धनपति बुलाए गए थे। दरबार ऐसा सजा था, जैसा कभी न सजा होगा। वह आदमी पेटी लेकर जब उपस्थित हुआ, तो राजा की हिम्मत में हिम्मत आई। अभी तक डरा हुआ था कि अगर बेईमान न हुआ और पागल हुआ, तो भी हम क्या करेंगे? अगर उसने कह दिया कि नहीं मिलते! लेकिन वह पेटी लेकर आ गया तो विश्वास आ गया।
उस आदमी ने आकर पेटी रखी और कहा, महाराज, वस्त्र ले आया हूं। आ जाएं आप, अपने वस्त्र छोड़ दें, मैं आपको देवताओं के वस्त्र देता हूं। पगड़ी लेकर राजा की उसने पेटी के भीतर डाल दी, पेटी के भीतर से हाथ अंदर निकाल कर बाहर लाया, हाथ बिलकुल खाली था। और उसने कहा, यह सम्हालिए देवताओं की पगड़ी। दिखाई पड़ती है न आपको? क्योंकि देवताओं ने चलते वक्त कहा था: ये कपड़े उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने बाप से पैदा हुए हों।
पगड़ी थी नहीं, दिखाई बिलकुल नहीं पड़ती थी, लेकिन एकदम दिखाई पड़ने लगी!
उस सम्राट ने कहा, क्यों नहीं दिखाई पड़ती!
सम्राट लेकिन मन में सोचा कि मेरा बाप धोखा दे गया है, पगड़ी दिखाई तो नहीं पड़ती है! लेकिन वह भीतर की बात अब भीतर ही रखनी उचित थी।
दरबारियों ने भी देखा, गर्दनें बहुत ऊपर उठाईं, आंखें साफ कीं, लेकिन पगड़ी नहीं थी। लेकिन सबको दिखाई पड़ने लगी! सब दरबारी आगे बढ़ कर कहने लगे, महाराज, ऐसी पगड़ी कभी देखी न थी। कोई पीछे रह जाए तो कोई यह न समझ ले कि इसको दिखाई नहीं पड़ती, तो सब एक-दूसरे के आगे होने लगे, जोर-जोर से कहने लगे, कि कहीं धीरे कहो तो किसी को और यह शक न हो जाए कि यह आदमी धीरे बोल रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसको दिखाई न पड़ती हो।
जब सम्राट ने देखा कि सब दरबारियों को दिखाई पड़ती है, तो उसने सोचा, दिखाई ही पड़ती होगी, जब इतने लोगों को दिखाई पड़ रही है।
फिर हर एक ने यही सोचा कि मैं ही कुछ गड़बड़ में हूं, भीड़ को दिखाई पड़ रही है।
पगड़ी पहन ली। कोट पहन लिया, जो नहीं था। कमीज पहन ली, जो नहीं थी। फिर धोती भी निकल गई। फिर आखिरी वस्त्र के निकलने की नौबत आ गई। तब राजा घबड़ाया कि कहीं कुछ धोखा तो नहीं है, अन्यथा मैं नंगा खड़ा हो जाऊंगा! डरने लगा।
तो उस आदमी ने कहा, झिझकिए मत महाराज, नहीं तो लोगों को शक हो जाएगा। जल्दी से निकाल दीजिए!
झूठ की यात्रा बड़ी खतरनाक है। पहले कदम पर कोई रुक जाए तो रुक जाए, फिर बाद में रुकना बहुत मुश्किल होता है।
अब उसने भी सोचा कि इतनी दूर चल ही आए, और अब इनकार करना, तो आधे नंगे भी हो गए और पिता भी गए, बहुत गड़बड़ है। अब जो कुछ होगा, होगा। उसने हिम्मत करके आखिरी कपड़ा भी निकाल दिया। लेकिन सारा दरबार कह रहा था कि महाराज धन्य! अदभुत वस्त्र हैं, दिव्य वस्त्र हैं! तो उसे हिम्मत थी कि कोई फिक्र नहीं, नंगा मुझे खुद ही पता चल रहा है। तो अपना नंगापन तो अपने को पता रहता ही है। इसलिए इसमें कोई हर्जा भी नहीं है ज्यादा। चलेगा।
लेकिन उस बेईमान आदमी ने, जो ये वस्त्र लाया था देवताओं के…।
और देवताओं से वस्त्र लाने वाले और देवताओं की खबर लाने वाले और देवताओं तक पहुंचाने वाले लोग, सब बेईमान होते हैं। सबसे सावधान रहना। इधर आदमी तक पहुंचना मुश्किल है, देवताओं तक पहुंचना आसान है! आदमी को समझना मुश्किल है, और स्वर्ग के नक्शे बनाए हुए बैठे हैं! बड़ौदा की ज्योग्राफी का जिनको पता नहीं, वे स्वर्ग और नरक के नक्शे बनाए बैठे हुए हैं!
उस आदमी ने कहा कि महाराज, देवताओं ने चलते वक्त कहा था, पहली दफे पृथ्वी पर जा रहे हैं ये वस्त्र, इनकी शोभायात्रा नगर में निकलनी बहुत जरूरी है। रथ तैयार है। अब आप चल कर रथ पर सवार हो जाइए। लाखों-लाखों जन भीड़ लगाए खड़े हैं, उनकी आंखें तरस रही हैं, वस्त्रों को देखना है।
राजा ने कहा, क्या कहा? अब तक महल के भीतर थे, अपने ही लोग थे। महल के बाहर, सड़कों पर?
लेकिन उस आदमी ने धीरे से कहा, घबड़ाइए मत, जिस तरकीब से यहां सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे हैं, उसी तरकीब से वहां भी सबको दिखाई पड़ेंगे। आपके रथ के पहले यह डुंडी पीट दी जाएगी सारे नगर में कि ये वस्त्र उसी को दिखाई पड़ते हैं जो अपने बाप से पैदा हुआ है। आप घबड़ाइए मत। अब जो हो गया, हो गया। अब चलिए।
राजा समझ तो गया कि वह बिलकुल नंगा है और किसी को वस्त्र दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, लेकिन अब कोई भी अर्थ न था। जाकर बैठ गया रथ पर। स्वर्ण-सिंहासन रथ पर लगा था। नंगा राजा, स्वर्ण-सिंहासन पर!
स्वर्ण-सिंहासनों पर नंगे लोग ही बैठे हैं। जिनकी शोभायात्राएं निकल रही हैं, नंगे लोगों की ही हैं।
लेकिन नगर के लाखों लोगों को बस एकदम वस्त्र दिखाई पड़ने लगे! वही लोग जो महल के भीतर थे, वही महल के बाहर भी हैं। वही आदमी, वही भीड़ वाला आदमी। सब वस्त्रों की प्रशंसा करने लगे। कौन झंझट में पड़े! जब सारी भीड़ को दिखाई पड़ता है तो व्यक्ति की हैसियत से अपने को कौन इनकार करे! कौन कहे कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता! इतना बल जुटाने के लिए बड़ी आत्मा चाहिए। इतना बल जुटाने के लिए बड़ा धार्मिक व्यक्ति चाहिए, इतना बल जुटाने के लिए परमात्मा की आवाज चाहिए। कौन इतनी हिम्मत जुटाए? इतनी बड़ी भीड़! फिर मन में यह भी शक होता है कि जब इतने लोग कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। इतने लोग गलत क्यों कहेंगे?
लेकिन कोई भी यह नहीं सोचता कि ये इतने लोग अलग-अलग उतनी ही हैसियत के हैं, जितनी हैसियत का मैं हूं। ये इतने लोग इकट्ठे नहीं हैं, ये एक-एक आदमी ही हैं आखिर में, मेरे ही जैसा। जैसा मैं कमजोर हूं, वैसा ही यह कमजोर है। यह भी भीड़ से डर रहा है, मैं भी भीड़ से डर रहा हूं।
जिससे हम डर रहे हैं, वह कहीं है ही नहीं। एक-एक आदमी का समूह खड़ा हुआ है, और सब भीड़ से डर रहे हैं।
लोग अपने बच्चों को घर ही छोड़ आए थे, लाए नहीं थे भीड़ में। क्योंकि बच्चों का कोई विश्वास नहीं। कोई बच्चा कहने लगे कि राजा नंगा है! तो बच्चों का क्या विश्वास है? बच्चों को बिगाड़ने में वक्त लग जाता है। स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, सब इंतजाम करो, फिर भी बड़ी मुश्किल से बिगाड़ पाते हो। एकदम आसान नहीं है बिगाड़ देना।
छोटे-छोटे बच्चों को कोई नहीं लाया था। लेकिन कुछ बच्चे जोरदार थे। और कुछ बच्चे ऐसे थे जिनकी माताओं की वजह से पिताओं को उनसे डरना पड़ता था, उनको लाना पड़ा था। वे कंधों पर सवार होकर आ गए थे। उन बच्चों ने देखते ही से कहा, अरे! राजा नंगा है!
उनके बाप ने कहा, चुप नादान! अभी तुझे अनुभव नहीं है, इसलिए नंगा दिखाई पड़ता है। ये बातें बड़े गहरे अनुभव की हैं, अनुभवियों को दिखाई पड़ती हैं। जब उम्र तेरी बढ़ेगी, तुझको भी दिखाई पड़ने लगेंगी। यह उम्र से आता है ज्ञान।
उम्र से दुनिया में कोई ज्ञान कभी नहीं आता। उम्र के भरोसे मत बैठे रहना। उम्र से बेईमानी आती है, चालाकी आती है, कनिंगनेस आती है; उम्र से ज्ञान कभी नहीं आता। लेकिन सब चालाक लोग यह कहते हैं कि उम्र से ज्ञान आता है।
फिर बेटे कहने लगे कि आप कहते हैं कि…आपको दिखाई पड़ रहे हैं वस्त्र?
हां, हमें दिखाई पड़ रहे हैं, उनके पिताओं ने कहा, बिलकुल दिखाई पड़ रहे हैं। हम अपने ही बाप से पैदा हुए हैं, ऐसा कैसे हो सकता है कि हमको दिखाई न पड़ें! और तुम अभी बच्चे हो, नासमझ हो, भोले हो; अभी तुम्हें समझ नहीं आ रहा है।
जिन बच्चों को सत्य दिखाई पड़ा था, उन्हें भीड़ के भय का कोई पता नहीं था, इसीलिए दिखाई पड़ा था। बड़े होंगे, भीड़ से भयभीत हो जाएंगे। फिर उनको भी वस्त्र दिखाई पड़ने लगते हैं। यह भीड़ डराए हुए है चारों तरफ से एक-एक आदमी को।
इसलिए जीसस ने कहा है…एक बाजार में वे खड़े थे। कुछ लोग उनसे पूछने लगे कि तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में, तुम्हारे परमात्मा के दर्शन को कौन उपलब्ध हो सकता है? तो जीसस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई, और एक छोटे से बच्चे को उठा कर ऊपर कर लिया और कहा कि जो इस बच्चे की तरह है।
क्या मतलब रहा होगा? क्या साइज छोटी होगी तो ईश्वर के राज्य में चले जाइएगा? कि उम्र कम होगी तो ईश्वर के राज्य में चले जाइएगा? नहीं! क्या बच्चे मर जाएंगे तो सब ईश्वर के राज्य में चले जाएंगे? नहीं! लेकिन बच्चों की तरह होंगे, इसका मतलब है, जो भीड़ से भयभीत नहीं। जो सीधे और साफ हैं। जिन्हें जो दिखता है, वही कहते हैं कि दिखता है। जिन्हें जो नहीं दिखता, कहते हैं कि नहीं दिखता है। जो झूठ को मान लेने को राजी नहीं। जो बच्चों की तरह होंगे, वे। बच्चे नहीं, बच्चों की तरह!
बच्चों की तरह का मतलब?
बच्चे अकेले हैं, बच्चे इंडिविजुअल हैं। बच्चों को भीड़ से कोई मतलब नहीं है। अभी भीड़ की उन्हें फिक्र नहीं है। अभी भीड़ का उन्हें पता भी नहीं है कि भीड़ भी है। और भीड़ बड़ी अदभुत चीज है। उसकी बड़ी अनजानी ताकत चारों तरफ से जकड़े हुए है आदमी को।
इसलिए दूसरा सूत्र मैंने कहा कि जिन्हें जीवन की सत्य के तरफ जाना है, भीड़ की खूंटी से मुक्त हो जाएं।
यह मतलब नहीं है कि आप भीड़ से भाग जाएं। भागेंगे कहां? भीड़ सब जगह है। कहां भागेंगे? जहां जाएंगे वहीं भीड़ है। और अभी तो थोड़ी-बहुत पहाड़ियां बच गई हैं जहां भाग भी सकते हैं, लेकिन कुछ ही दिनों में पहाड़ियां भी नहीं बचेंगी। वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ वर्षों में अगर भारत, चीन जैसे देश बच्चों को पैदा करने के अपने महान कार्य में संलग्न रहे, तो दुनिया में कुहनी हिलाने की जगह नहीं रह जाने वाली। सभा-वभा करने की जरूरत नहीं रहेगी, कहीं भी खड़े हो जाइए और सभा हो जाएगी।
कहां भागिएगा भीड़ से? जंगलों में, पहाड़ों में? कोई मतलब नहीं है! भीड़ वहां भी बहुत सूक्ष्म रूप में पीछा करती है।
एक आदमी साधु हो जाता है, भाग जाता है जंगल में। जंगल में बैठा है, उससे पूछिए, आप कौन हैं? वह कहता है, मैं हिंदू हूं!
भीड़ पीछा कर रही है उसका। अब तुम हिंदू कैसे हो? तुम जब छोड़ कर भाग आए तो तुम हिंदू कैसे रह गए? अभी तक आदमी नहीं हुए?
आदमी होना बहुत मुश्किल है, हिंदू होना बहुत आसान है।
एक आदमी साधु हो गया, वह कहता है, मैं जैन हूं!
अब तुम समाज को छोड़ दिए तो तुम जैन कैसे हो? यह जैन-वैन होना तो समाज ने सिखाया था।
साधु भी हिंदू, जैन और मुसलमान हैं, तो फिर असाधुओं का क्या हिसाब रखना। तो ठीक है! गांधी जैसे अच्छे आदमी भी इस भ्रम से मुक्त नहीं होते कि मैं हिंदू हूं। चिल्लाए चले जाते हैं कि मैं हिंदू हूं। तो साधारण लोगों की क्या हैसियत है! गांधी जैसा अच्छा आदमी भी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि कहे कि मैं आदमी हूं बस; और कोई विशेषण नहीं लगाऊंगा। अगर अकेले गांधी ने भी हिम्मत जुटा ली होती और यह कहा होता कि मैं सिर्फ आदमी हूं, जिन्ना की जान निकल गई होती। लेकिन गांधी के हिंदू ने जिन्ना की जान न निकलने दी। हिंदुस्तान बंटा, गांधी के हिंदू होने की वजह से बंटा; हिंदुस्तान कभी नहीं बंटता।
लेकिन खयाल में नहीं आता हमें यह कि इतनी छोटी सी बातें कितने बड़े परिणाम ला सकती हैं। गांधी का हिंदू होना संदिग्ध करता रहा मन को मुसलमान के। गांधी का आश्रम, गांधी के हिंदू ढंग, गांधी की प्रार्थना, पूजा-पत्री–सब यह वहम पैदा करती रही कि हिंदू महात्मा हैं। और हिंदू महात्मा से सावधान होना जरूरी है मुसलमान को। एक भीड़ से दूसरी भीड़ सदा सावधान होती है; क्योंकि एक भीड़ से दूसरी भीड़ को डर है; एक दुकान से दूसरी दुकान को डर है।
जिन्ना का मुसलमान खत्म हो जाता, गांधी का हिंदू खत्म नहीं हो सका। और जिन्ना से हम आशा नहीं करते हैं कि उसका खत्म हो, वह आदमी साधारण है; गांधी से हम आशा कर सकते हैं। लेकिन गांधी से ही खत्म नहीं हो सका, तो जिन्ना से क्या खत्म हो सकता है!
भीड़ पीछा करती है; भीड़ बहुत सटल, बहुत सूक्ष्म रास्ते से पीछा करती है।
बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं कहा है कि मैंने पढ़-लिख कर, बहुत कुछ सोचा और समझा और पाया कि बुद्ध से अदभुत आदमी दूसरा नहीं हुआ है। लेकिन जब भी मैं यह सोचता हूं कि बुद्ध सबसे महान हैं, तभी मेरे भीतर कोई बेचैनी होने लगती है और कोई कहता है कि नहीं, क्राइस्ट से महान नहीं हो सकता!
भीड़ बैठी है। बचपन से सिखाया है जो, वह भीतर बैठी है। वह कहती है, नहीं! सवाल नहीं है कि कौन महान है, किसी के महान का हिसाब लगाना भी नासमझी है। लेकिन बचपन से जो भीड़ सिखा देती है, जो कंडीशनिंग, जो चित्त को संस्कारित करती है, वह जीवन भर पीछा करता है; मरते दम तक पीछा करता है।
एक सज्जन हैं। बहुत बड़े विचारशील आदमी हैं। उनका नाम नहीं लूंगा; क्योंकि किसी का नाम लेना इस मुल्क में ऐसा खतरनाक है जिसका कोई हिसाब नहीं। किसी का नाम ही नहीं लिया जा सकता। अंधेरे में ही बात करनी पड़ती है। एक बड़े विचारक हैं। वे मुझसे कहते थे कि मेरा सब छूट गया। जप, तप, पूजा-पाठ, सब छोड़ दिया। मैं सबसे मुक्त हो गया हूं।
मैंने कहा, इतना आसान नहीं है मामला। यह मुक्त होना इतना आसान नहीं है। क्योंकि जब आप कहते हैं कि मैं मुक्त हो गया हूं, तब भी मैं आपकी आंख में झांकता हूं और मुझे लगता है कि आप मुक्त नहीं हुए हैं। अगर मुक्त हो गए होते, तो “मुक्त हो गया हूं’, यह खयाल भी छूट गया होता। मुक्त आप नहीं हुए हैं।
उन्होंने कहा कि नहीं, मैं मुक्त हो गया हूं!
मैंने कहा, जितने जोर से आप कहेंगे, मुझे शक उतना ही बढ़ता चला जाएगा। वक्त आएगा, कहूंगा।
उन पर हार्ट-अटैक हुआ। हार्ट-अटैक हुआ तो मैं उनको देखने गया। आंख बंद थी, कुछ बेहोश से पड़े थे और राम-राम, राम-राम, राम-राम का जाप चल रहा था।
मैंने उनको हिलाया। मैंने कहा, क्या कर रहे हैं?
उन्होंने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में पड़ गया हूं। जिस क्षण से हार्ट-अटैक हुआ और ऐसा लगा कि मर जाऊंगा, जिस पूजा-पाठ को सदा के लिए छोड़ दिया था, वह एकदम चलना शुरू हो गया है! अब मैं रोकना भी चाहता हूं तो नहीं रुकता; मेरे भीतर चल रहा है जोर से–राम-राम, राम-राम, राम-राम। मैं सोचता था छोड़ दिया, आप कहते थे–शायद ठीक ही कहते थे–छोड़ना बहुत मुश्किल है।
इतने गहरे में उसकी जड़ें बैठी हैं भीड़ की। वह जो सिखा देती है, वह भीतर बैठा हुआ है। वह भीतर गहरे से गहरे में बैठ गया है।
अब गांधी जी कितना कहते थे–अल्लाह ईश्वर तेरे नाम। लेकिन जब गोली लगी, तो अल्लाह का नाम याद नहीं आया। नाम याद आया–हे राम! अल्लाह का नाम याद नहीं आया। गोली लगी तो याद आया–हे राम! वह हिंदू भीतर बैठा है। वह वहां भीतर आत्मा के भीतर से भीतर घुस गया है। वह वहां से जब गोली लगी, तो सब भूल गया अल्लाह ईश्वर तेरे नाम। निकला–हे राम! हे अल्लाह निकल जाता शायद गांधी से…बड़ा मुश्किल था लेकिन, नहीं निकल सकता था। यह असंभव था। वह हिंदू भीतर बैठा है।
गहरे में भीड़ घुस जाती है आदमी के। भीड़ से भागने का मतलब यह नहीं है कि जंगल चले जाना। भीड़ से भागने का मतलब–अपने भीतर खोजना। और जहां-जहां भीड़ के चिह्न पाएं, उनको उखाड़ कर फेंक देना। और धीरे-धीरे कोशिश जारी रखना कि व्यक्ति का आविर्भाव हो जाए। भीड़ से मुक्त चित्त ऊपर उठ आए; भीड़ छूट जाए। भीतर, अंतस में, चित्त में…।
जो आदमी अपने चित्त की वृत्तियों को दबाता है, वह जिन वृत्तियों को दबाता है, उन्हीं से बंध जाता है। जिससे बंधना हो, उसी से लड़ना शुरू कर देना। दोस्त से उतना गहरा बंधन नहीं होता, जितना दुश्मन से होता है। दोस्त की तो कभी-कभी याद आती है; सच तो यह है कि कभी नहीं आती। जब मिलता है, तभी कहते हैं कि बड़ी याद आती है। लेकिन दुश्मन की चौबीस घंटे याद बनी रहती है। रात सो जाओ, तब भी वह साथ सोता है। सुबह उठो, दुश्मन साथ उठता है। जितनी गहरी दुश्मनी हो, उतना गहरा साथ हो जाता है। इसलिए दोस्त कोई भी चुन लेना, दुश्मन थोड़ा सोच-विचार कर चुनना चाहिए। क्योंकि उसके चौबीस घंटे साथ रहना पड़ता है। दोस्त कोई भी चल जाता है–ऐरा-गैरा, क, ख, ग–कोई भी चल जाता है। लेकिन दुश्मन? दुश्मन के साथ हमेशा रहना पड़ता है।
यह मैंने तीसरे सूत्र में कहा कि दमन भूल कर मत करना। क्योंकि दमन अच्छी चीजों का तो कोई करता नहीं है, दमन करता है बुरी चीजों का। और जिनका दमन करता है, जिनसे लड़ता है, उन्हीं से गठबंधन हो जाता है, उन्हीं के साथ फेरा पड़ जाता है। जिस चीज को हम दबाते हैं, उसी से जकड़ जाते हैं।
मैंने सुना है, एक होटल में एक रात एक आदमी मेहमान हुआ। लेकिन होटल के मैनेजर ने कहा, जगह नहीं है, आप कहीं और चले जाएं। एक ही कमरा खाली है और वह हम देना नहीं चाहते। उसके नीचे एक सज्जन ठहरे हुए हैं। अगर ऊपर जरा ही खड़बड़ हो जाए, आवाज हो जाए, कोई जोर से चल दे, तो उनसे झगड़ा हो जाता है। तो जब से उसको पिछले मेहमान ने खाली किया है, हमने तय किया है कि अब खाली ही रखेंगे, जब तक नीचे के सज्जन विदा नहीं ले लेते।
कुछ सज्जन ऐसे होते हैं जिनके आने की राह देखनी पड़ती है, कुछ सज्जन ऐसे होते हैं जिनके जाने की भी राह देखनी पड़ती है। और दूसरी तरह के ही सज्जन ज्यादा होते हैं; पहली तरह के सज्जन तो बहुत मुश्किल हैं, जिनके आने की राह देखनी पड़ती है।
उस मैनेजर ने कहा कि क्षमा करिए, हम उनके जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब वे चले जाएं, तब आप आइए।
उस आदमी ने कहा, आप घबड़ाएं न, मैं सिर्फ दो-चार घंटे ही रात सोऊंगा। दिन भर बाजार में काम करना है, रात दो बजे लौटूंगा, सो जाऊंगा। सुबह छह बजे उठ कर मुझे गाड़ी पकड़ लेनी है। अब नींद में उनसे कोई झगड़ा होगा, इसकी आशा नहीं है। नींद में चलने की मेरी आदत भी नहीं है। और कोई गड़बड़ नहीं है, मैं सो जाऊंगा, आप फिक्र न करें।
मैनेजर मान गया। वह आदमी दो बजे रात लौटा, थका-मांदा दिन भर के काम के बाद। बिस्तर पर बैठ कर उसने जूता खोल कर नीचे पटका। तब उसे खयाल आया कि कहीं नीचे के मेहमान की जूते की आवाज से नींद न खुल जाए! तो उसने दूसरा जूता धीरे से निकाल कर रख कर वह सो गया।
घंटे भर बाद नीचे के मेहमान ने दस्तक दी–कि सज्जन, दरवाजा खोलिए!
वह बहुत हैरान हुआ कि घंटा भर मेरी नींद भी हो चुकी, अब क्या गलती हो गई होगी? दरवाजा खोला डरा हुआ। उस आदमी ने पूछा कि दूसरा जूता कहां है? मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया। जब पहला जूता गिरा, मैंने समझा कि अच्छा, महाशय आ गए। फिर दूसरा जूता गिरा ही नहीं! अब मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि दूसरा जूता अब गिरे, अब गिरे। फिर मैंने अपने मन को समझाया–मुझे किसी के जूते से क्या लेना-देना? हटाओ, कुछ भी हो! लेकिन जितना मैंने हटाने की कोशिश की, दूसरा जूता मेरी आंखों में झूलने लगा। आंख बंद करता हूं, जूता लटका दिखता है। आंख खोलता हूं…! बड़ी बेचैनी हो गई, नींद आनी मुश्किल हो गई। धक्का देने लगा। बहुत समझाया कि कैसा पागल है तू! किसी के जूते से अपने को क्या मतलब! चाहे एक जूता पहन कर सो रहा हो, सोने दो। जो चाहे, करने दो उसे। लेकिन जितना मैंने मन को समझाया, दबाया, लड़ा, उतना ही वह जूता बड़ा होता गया और सिर पर घूमने लगा।
अपनी-अपनी खोपड़ी की तलाश अगर आदमी करे, तो पाएगा कि दूसरों के जूते वहां घूम रहे हैं, जिनसे कुछ लेना-देना नहीं है। लड़े, कि खतरा हुआ।
उस आदमी ने कहा, क्षमा करिए! इसलिए मैं पूछने आया, पता चल जाए तो मैं सो जाऊं शांति से, यह झगड़ा बंद हो।
जो उस आदमी के साथ हुआ, वह सबके साथ होगा।
सप्रेसिव माइंड, दमन करने वाला चित्त हमेशा व्यर्थ की बातों में उलझ जाता है।
सेक्स को दबाओ, और चौबीस घंटे सेक्स का जूता सिर पर घूमने लगेगा। क्रोध को दबाओ, और चौबीस घंटे क्रोध प्राणों में घुस कर चक्कर काटने लगेगा। और एक तरफ से दबाओ, और दूसरी तरफ से निकलने की चेष्टा होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति एक ऊर्जा है, एनर्जी है। आप दबाओगे एनर्जी को तो वह कहीं से निकलेगी। एक झरने को आप इधर से दबा दो, वह दूसरी तरफ से फूट कर बहेगा। उधर से दबाओ, तीसरी तरफ से बहेगा। झरना है, तो दबाने से काम नहीं हो सकता।
एक आदमी दफ्तर में है। उसका मालिक कुछ बेहूदी बातें कह दे। और मालिक बेहूदी बातें कहते हैं; नहीं तो मालिक होने का मजा ही खत्म। मजा क्या है मालिक होने में? किसी से बेहूदी बातें कह सकते हो, और वह आदमी यह भी नहीं कह सकता कि आप बेहूदी बातें कह रहे हैं। और फिर मालिक बेहूदी बातें कहे या न कहे, नौकर को मालिक की सब बातें बेहूदी मालूम पड़ती हैं। नौकर होना ही इतनी बेहूदगी है कि अब और जो भी कुछ कहा जाए वह बेहूदगी मालूम पड़ती है।
अगर मालिक या बॉस जोर से बोलता है, क्रोध की बातें कहता है, तो भी नौकर को खड़े होकर मुस्कुराना पड़ता है। भीतर आग लग रही है कि गर्दन दबा दें! ऐसा कौन नौकर होगा जिसको मालिक की गर्दन दबाने का खयाल न आता हो? आता है, जरूर आता है। आना भी चाहिए, नहीं तो दुनिया बदलेगी भी नहीं! मगर ऊपर से मुस्कुराहट, ओंठ फैला देगा छह इंच और कहेगा कि बड़ी अच्छी बातें कह रहे हैं। बड़े वेद-वचन बोल रहे हैं। बड़ी वाणी आपकी मधुर है। उपनिषद के ऋषि भी क्या बोलते होंगे ऐसी बातें! धन्यभाग कि आपके अमृत-वचन मेरे ऊपर गिरे!
भीतर आग जल रही है। दबा लेगा अपने क्रोध को। लेकिन क्रोध को दबा कर कितनी देर चल सकते हो? साइकिल चलाएगा तो पैडल जोर से चलेगा। कार ड्राइव करेगा तो कार एकदम साठ से सौ पर भागने लगेगी। वह जो क्रोध दबाया है, वह सब तरफ से निकलने की कोशिश करेगा।
अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आदमी के क्रोध की कोई समझ पैदा हो सके, तो अमेरिका के एक्सीडेंट पचास प्रतिशत कम हो जाएंगे। वे जो एक्सीडेंट हो रहे हैं, वे सड़क की वजह से कम हो रहे हैं, दिमाग की वजह से ज्यादा हो रहे हैं।
आपको पता है, जब क्रोध में साइकिल चलाते हैं तो किस तरह चलती है साइकिल? एकदम हवा लग जाती है उसे! फिर कोई नहीं दिखता। ऐसा मालूम पड़ता है–रास्ता खाली है एकदम। और सामने कोई आ जाए तो और ऐसा मन होता है कि टकरा दूं जोर से; क्योंकि वह भीतर जो टकराहट चल रही है।
वह आदमी तेजी से साइकिल चलाता हुआ घर पहुंचेगा। रास्ते में दो-चार बार बचेगा टकराने से। क्रोध और भारी हो जाएगा। अब जाकर वह घर प्रतीक्षा करेगा कि कोई मौका मिल जाए और पत्नी की गर्दन दबा ले।
पत्नी बड़ी सरल चीज है। वह है ही इसलिए कि आप घर आइए और उसकी गर्दन दबाइए। उसका मतलब क्या है? उसका उपयोग क्या है और? उसका असली उपयोग यह है कि जिंदगी भर का जो कुछ आपके ऊपर गुजरे, वह जाकर पत्नी पर रिलीज करिए। उसको निकालिए वहां पर।
घर पहुंचते से ही सब गड़बड़ी दिखाई पड़ने लगेगी। पत्नी जिसको कल रात ही आपने कहा था कि तू बड़ी सुंदर है, एकदम मालूम पड़ेगी कि यह शूर्पणखा कहां से आ गई? सब खत्म हो जाएगा। फिल्म की अभिनेत्रियां याद आएंगी कि सौंदर्य उसको कहते हैं। यह औरत? रोटी जली हुई मालूम पड़ेगी। सब्जी में नमक नहीं मालूम पड़ेगा। सब गड़बड़ मालूम पड़ेगा। घर अस्तव्यस्त घूमता हुआ मालूम पड़ेगा। टूट पड़ेंगे उस पर।
कल भी रोटी ऐसी ही थी; क्योंकि कल भी पत्नी यही थी। कल भी पत्नी यही थी जो आज है; लेकिन आज सब बदला हुआ मालूम पड़ेगा। वह जो भीतर दबाया है, वह निकलने के लिए मार्ग खोज रहा है। और ध्यान रहे, जैसे पानी ऊपर की तरफ नहीं चढ़ता, ऐसे क्रोध भी ऊपर की तरफ नहीं चढ़ता। पानी भी नीचे की तरफ उतरता है, क्रोध भी नीचे की तरफ उतरता है। कमजोर की तरफ उतरता है, ताकतवर की तरफ नहीं उतरता। मालिक की तरफ नहीं चढ़ सकता है क्रोध। चढ़ाना हो तो बड़े पंप लगाना जरूरी है। कम्युनिज्म वगैरह के पंप लगाओ, तब चढ़ सकता है मालिक की तरफ; नहीं तो नहीं चढ़ता। पत्नी की तरफ एकदम उतर जाता है। और पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती, क्योंकि पति परमात्मा है।
ये पति लोग ही समझा रहे हैं पत्नियों को कि हम परमात्मा हैं। बड़े मजे की बातें दुनिया में चल रही हैं! और कोई स्त्री नहीं कहती कि महाशय, आप और परमात्मा? आप ही परमात्मा हैं? तो परमात्मा पर भी शक पैदा हो जाएगा अगर आप ही परमात्मा हैं! आपकी इज्जत नहीं बढ़ती परमात्मा होने से, परमात्मा की इज्जत घटती है आपके होने से। कृपा करके परमात्मा को बाइज्जत जीने दो, आप परमात्मा मत बनो।
लेकिन कोई स्त्री नहीं कहेगी! स्त्री के पास फिजूल की बकवास करने के लिए बहुत ताकत है, लेकिन बुद्धिमत्ता की एक बात स्त्री से नहीं निकल सकती। परमात्मा की तरफ तो क्रोध नहीं किया जा सकता। उसको भी राह देखनी पड़ेगी। आग लग जाएगी उसके भीतर भी, बच्चे का रास्ता देखना पड़ेगा कि आओ बेटा, आज तुम्हारा सुधार किया जाए। उस बेचारे को पता नहीं, वह अपना नाचता हुआ, अपना बस्ता लिए हुए स्कूल से चला आ रहा है। उसको पता ही नहीं कि वह कहां जा रहा है। उधर मां तैयार है, प्रतीक्षा कर रही है सुधार करने की।
जितने लोग सुधार की प्रतीक्षा करते हैं–ध्यान रखना–भीतर कोई क्रोध है, जिसकी वजह से सुधार की आयोजना चलती है। जिनके अपने बेटे नहीं होते, वे अनाथालय खोल लेते हैं; जिनका अपना घर नहीं होता, वे आश्रम बना लेते हैं; लेकिन सुधार करते हैं! जिनको कोई नहीं मिलता, वे समाज की कोई भी तरकीब निकाल कर सुधार करने में लग जाते हैं। भीतर क्रोध है, भीतर आग है; किसी को तोड़ने, मरोड़ने, बदलने की इच्छा है।
वह बच्चा आते ही से फंस जाएगा। कल भी वह ऐसे ही आया था नाचता हुआ, लेकिन आज नाचना उसका उपद्रव मालूम पड़ेगा।
हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हमारे भीतर है। हमारा सब देखना प्रोजेक्शन है।
आज उसके कपड़े गंदे मालूम पड़ेंगे। वह रोज ऐसे ही आता है। बच्चे कपड़े गंदे नहीं करेंगे तो बूढ़े कपड़े गंदे करेंगे? बच्चे तो कपड़े गंदे करेंगे। क्योंकि बच्चों को कपड़ों का पता ही नहीं है। कपड़ों का पता रखने के लिए भी आदमी को बहुत चालाक होने की जरूरत है। बच्चों को कहां होश? कपड़े फट गए हैं, किताब फट गई है, स्लेट फूट गई है–और आज बच्चे का सुधार किया जाएगा।
लेकिन मां को पता भी नहीं चलेगा कि वह बच्चे की शक्ल में पति को चांटे मार रही है; चांटे पति को पड़ रहे हैं। और बच्चे भलीभांति जानते हैं कि उनकी पिटाई कब होती है! जब मां-बाप में वार चलता है तब। मां-बाप लड़ते हैं, बच्चे पिटते हैं।
इसलिए जिनके बच्चे नहीं होते, उनके घर में बड़ी मुश्किल हो जाती है; क्योंकि पिटने के लिए कोई कॉमन एनिमी नहीं है; किसको पीटो! फिर अगर ऐसा न हो तो प्लेटें टूट जाती हैं, रेडियो गिर जाता है; फिर दूसरे उपाय खोजने पड़ते हैं। आपको मालूम होगा भलीभांति कि प्लेट कब टूटती है। और पत्नियों को भी मालूम है कि कब एकदम हाथ से प्लेटें छूटने लगती हैं।
लेकिन बच्चा पिटेगा। बच्चा क्या कर सकता है? मां के लिए क्या कर सकता है? मां के प्रति क्रोध कैसे करे? अगर मां के प्रति क्रोध करना है तो जरा प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पंद्रह-बीस साल बहुत लंबी प्रतीक्षा है, जब एक औरत और आ जाए पीछे ताकत देने को। क्योंकि किसी भी औरत से लड़ना हो तो एक औरत का साथ जरूरी है, नहीं तो हार निश्चित है। औरत से औरत ही लड़ सकती है, आदमी नहीं लड़ सकता। राह देखनी पड़ेगी। लेकिन वह बहुत लंबा वक्त है। और वक्त देखना पड़ेगा कि जब मां बूढ़ी हो जाए; क्योंकि तब पांसा बदल जाएगा। अभी मां ताकतवर है, बच्चा कमजोर है। तब बच्चा ताकतवर होगा, मां कमजोर हो जाएगी।
वह जो बूढ़े मां-बाप को बच्चे सताते हैं, वह डिलेड रिवेंज है, वह लंबी प्रतीक्षा करता हुआ क्रोध है। और जब तक मां-बाप बच्चों को सताते रहेंगे, तब तक बूढ़े मां-बापों को सावधान रहना चाहिए, बच्चे उनको सताएंगे। लेकिन वह बहुत लंबी बात है। उतनी देर तक प्रतीक्षा नहीं की जा सकती है। क्रोध इतनी देर के लिए मानने को राजी नहीं हो सकता। फिर बच्चा क्या करे? जाएगा, अपनी गुड़िया की टांग तोड़ देगा! किताब फाड़ देगा! कुछ करेगा। जो भी वह कर सकता है, वह करेगा!
दबाया हुआ क्रोध इतने रास्ते लेगा, इतनी तकलीफों में डालेगा, इतनी मुश्किलों में उलझा देगा। दबाया हुआ अहंकार नये-नये रास्ते खोजेगा। दबाया हुआ लोभ नये-नये रास्ते खोजेगा।
मैं एक संन्यासी के पास था। वे संन्यासी मुझसे बार-बार कहने लगे…।
और संन्यासियों के पास बेचारों के पास और कुछ कहने को होता ही नहीं। धनपति के पास जाइए, तो वह अपने धन का हिसाब बताता है कि इतने करोड़ थे, अब इतने करोड़ हो गए; मकान तिमंजिला था, सात मंजिला हो गया। पंडितों के पास जाइए तो वे अपना बताते हैं कि अभी एम.ए. थे, अब पीएच.डी. भी हो गए, अब डी.लिट. भी हो गए; अब यह हो गए, वह हो गए! पांच किताबें छपी थीं, अब पंद्रह छप गईं! वे अपना बताएंगे। त्यागी संन्यासी क्या बताए? वह भी अपना हिसाब रखता है त्याग का!
वे मुझसे रोज-रोज कहने लगे, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी!
वे सत्य ही कहते होंगे। चलते वक्त मैंने पूछा कि महाराज, यह लात मारी कब? कहने लगे, कोई पैंतीस साल हो गए। मैंने कहा, लात ठीक से लग नहीं पाई, नहीं तो पैंतीस साल तक याद रखने की क्या जरूरत है? पैंतीस साल बहुत लंबा वक्त है। और बेचारी लात मार दी, मार दी, खत्म करो! अब इसे पैंतीस साल याद रखने की क्या जरूरत है?
लेकिन वे अखबार की कटिंग रखे हुए थे अपनी फाइल में, जिसमें छपी थी पैंतीस साल पहले यह खबर। कागज पुराने पड़ गए थे, पीले पड़ गए थे, लेकिन मन को बड़ी राहत देते होंगे। दिखाते-दिखाते गंदे हो गए थे, अक्षर समझ में नहीं आते थे। लेकिन उनको तृप्ति हो जाती होगी–पैंतीस साल पहले उन्होंने लाखों रुपयों पर लात मारी।
मैंने उनसे कहा, लात ठीक से लग जाती तो रुपये भूल जाते। लात ठीक से लगी नहीं। लात लौट कर वापस आ गई। पहले अकड़ रही होगी कि मेरे पास लाखों रुपये हैं। अहंकार रहा होगा। सड़क पर चलते होंगे तो भोजन की कोई जरूरत न रही होगी, बिना भोजन के भी चल जाते होंगे। ताकत, गर्मी रही होगी भीतर–लाखों रुपये मेरे पास हैं! फिर लाखों को छोड़ दिया, तब से अकड़ दूसरी आ गई होगी कि मैंने लाखों पर लात मार दी! मैं कोई साधारण आदमी हूं? और पहली अकड़ से दूसरी अकड़ ज्यादा खतरनाक है। पहले अहंकार से दूसरा अहंकार ज्यादा सूक्ष्म है। दबाया हुआ अहंकार वापस लौट आया है। अब वह और बारीक होकर आया है कि तुम पहचान न जाना।
जो भी आदमी चित्त के साथ दमन करता है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म उलझनों में उलझता चला जाता है। यह मैंने तीसरा सूत्र कहा: दमन से सावधान रहना! दमन करने वाला आदमी रुग्ण हो जाता है, अस्वस्थ हो जाता है, बीमार हो जाता है। और दमन का अंतिम परिणाम विक्षिप्तता है, मैडनेस है।
ये तीन बातें मैंने इन तीन दिनों में कहीं। आज चौथी बात और अंतिम बात आपसे कहना चाहता हूं। और वह यह कि फिर क्या करें? न शास्त्र को मानें, न समाज को, न नीतिशास्त्र को–जो कहता है कि दबाओ, दमन करो, लड़ो–फिर क्या करें?
एक ही बात, एक छोटा सा सूत्र। छोटा है, सूत्र है, लेकिन बड़ी विस्फोट की, बड़ी एक्सप्लोजन की शक्ति है उसमें। जैसे एक छोटे से अणु में इतनी ताकत है कि सारी पृथ्वी को नष्ट कर दे, ऐसे ही इस छोटे से सूत्र में शक्ति है।
इन तीनों जंजीरों से मुक्त होने के लिए एक ही सूत्र है। और वह सूत्र है–जागरण, जागना, अवेयरनेस, ध्यान, अमूर्च्छा, होश, माइंडफुलनेस–कोई भी नाम दें। जागो! एक ही सूत्र है छोटा सा।
उन सिद्धांतों के प्रति जागो जो पकड़े हुए हैं। और जागते ही उन सिद्धांतों से छुटकारा शुरू हो जाएगा। क्योंकि सिद्धांत आपको नहीं पकड़े हैं, आप उन्हें पकड़े हुए हैं। और जैसे ही आप जागे और आपको लगा कि अजीब बात है, गुलाम मैं बना हूं और गुलामी की जंजीर मेरी ही अपने हाथ में है! फिर छूटने में देर नहीं लगती।
पहला जागरण चित्त के सिद्धांतों, वादों, संप्रदायों, धर्मों, गुरुओं, महात्माओं के प्रति, जिनको हम जोर से पकड़े हुए हैं। कुछ भी नहीं है हाथ में, कोरी राख है शब्दों की, लेकिन जोर से पकड़े हुए हैं। कभी हाथ खोल कर भी नहीं देखते हैं। डर लगता है कि कहीं देखा और कुछ न पाया, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। उसे गौर से देखना जरूरी है कि मैं किस-किस चीजों से जकड़ा हुआ हूं? मेरी जंजीरें कहां हैं? मेरी स्लेवरी, मेरी गुलामी कहां है? मेरी आध्यात्मिक दासता कहां छिपी है? उसके प्रति एक-एक चीज के प्रति जागना जरूरी है।
और जो आदमी अपने भीतर की गुलामी के प्रति जागेगा, जागने के अतिरिक्त गुलामी को तोड़ने के लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता है। जागते ही गुलामी टूटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि यह गुलामी कोई लोहे की जंजीरों की नहीं है, जिनको तोड़ने के लिए हथौड़े और आग जलानी पड़ेगी। ये जंजीरें कुछ बाहर नहीं हैं। ये जंजीरें सोए हुए होने की जंजीरें हैं। हमने कभी होश से देखा ही नहीं कि हमारी भीतर की मनोदशा क्या है, इसलिए हम चलते रहे हैं अंधेरे में। जाग जाएंगे तो पता चलेगा कि यह तो हमने अपने हाथ से पागलपन कर रखा है। कोई दूसरा इसमें सहभागी नहीं है, हम खुद ही जिम्मेवार हैं। हम तोड़ दे सकते हैं जैसे ही होश आ जाए।
तो जागरण–सिद्धांतों, शास्त्रों, संप्रदायों के प्रति; यह हिंदू होने के प्रति, मुसलमान होने के प्रति; यह भारतीय होने के प्रति, चीनी होने के प्रति; ये सारी सीमाओं के प्रतिबंधन–इसके प्रति बोध, इसके प्रति जागरण। यह कंडीशनिंग जो भीतर है माइंड के–इसके प्रति देखना कि यह क्या है? यह मैं क्यों बंधा हूं इससे? कौन मुझे हिंदू बना गया? किसने मुझे सिद्धांत से अटका दिया?
याद ही नहीं है। मन में घुस गई हैं चीजें बाहर से आकर और हमने उन्हें पकड़ लिया है। उन्हें छोड़ देना है। छोड़ते ही एक फ्रीडम, एक मुक्ति, एक चित्त की मोक्ष की अवस्था उपलब्ध होती है।
भीड़ के प्रति जागना है कि मैं जो भी कर रहा हूं वह भीड़ को देख कर तो नहीं कर रहा हूं?
आप मंदिर चले जा रहे हैं सुबह ही उठ कर, भागते हुए, राम-राम जपते हुए। सुबह की सर्दी है, स्नान कर लिया है, भागते चले जा रहे हैं। सोचते हैं कि मंदिर जा रहा हूं। जरा जाग कर देखना कि कहीं सड़क के लोग देख लें कि मैं आदमी धार्मिक हूं, इसलिए तो मंदिर नहीं जा रहे हैं!
कौन मंदिर जाता है? भीड़ देख ले कि यह आदमी मंदिर जाता है, इसलिए आदमी मंदिर जाता है।
किसको प्रयोजन है दान देने से? अगर एक आदमी भीख मांगता है सड़क पर, तो आपको पता है, भिखारी अकेले में किसी से भीख मांगने में झिझकता है, चार-छह आदमियों के सामने जल्दी हाथ फैला कर खड़ा हो जाता है। क्योंकि उसको पता है कि इन पांच आदमियों को देखते हुए यह आदमी इनकार नहीं कर सकेगा। क्योंकि खयाल रखेगा कि पांच आदमी क्या सोचेंगे? कि बड़ा कठोर है, दस पैसे नहीं छूटे! तो भिखमंगा भीड़ में जल्दी से पीछा पकड़ लेता है। और दस आदमियों को देख कर आपको दस पैसे देने पड़ते हैं। वे दस पैसे आप भिखारी को नहीं दे रहे हैं, वे दस पैसे आप इंश्योरेंस कर रहे हैं अपनी इज्जत का दस आदमियों में। उन दस पैसों का आप क्रेडिट बना रहे हैं, इज्जत बना रहे हैं बाजार में।
लेकिन आपको खयाल भी नहीं होगा। आप घर लौट कर कहेंगे कि बड़ा दान किया, आज एक आदमी को दस पैसे दिए! लेकिन थोड़ा भीतर जाग कर देखना, तो पता चलेगा: जिसको दिए उसको तो दिए ही नहीं, उसको तो भीतर से गाली निकल रही थी कि यह दुष्ट कहां से आ गया! दिए उनको, जो साथ खड़े थे।
भीड़ सब तरफ से पकड़े हुए है।
एक मंदिर बनाता था एक आदमी। एक गांव में मैंने देखा, एक मंदिर बन रहा है; भगवान का मंदिर बन रहा है।
कितने भगवान के मंदिर बनते चले जाते हैं!
नया मंदिर बन रहा था। उस गांव में वैसे ही बहुत मंदिर थे! आदमियों को रहने की जगह नहीं है, भगवान के लिए मंदिर बनते चले जाते हैं! और भगवान का कोई पता नहीं है कि वे रहने को कब आएंगे कि नहीं आएंगे; आएंगे भी कि नहीं आएंगे, उनका कुछ पता नहीं है।
नया मंदिर बनने लगा तो मैंने उस मंदिर को बनाने वाले कारीगरों से पूछा कि बात क्या है? बहुत मंदिर हैं गांव में, भगवान का कहीं पता नहीं चलता। और एक किसलिए बना रहे हो?
बूढ़ा था कारीगर, अस्सी साल उसकी उम्र रही होगी, बामुश्किल मूर्ति खोद रहा था। उसने कहा कि आपको शायद पता नहीं कि मंदिर भगवान के लिए नहीं बनाए जाते।
मैंने कहा, बड़े नास्तिक मालूम होते हो। मंदिर भगवान के लिए नहीं बनाए जाते तो और किसके लिए बनाए जाते हैं?
उस बूढ़े ने कहा, पहले मैं भी यही सोचता था। लेकिन जिंदगी भर मंदिर बनाने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भगवान के लिए इस जमीन पर एक भी मंदिर कभी नहीं बनाया गया।
मैंने कहा, मतलब क्या है तुम्हारा?
उस बूढ़े ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि भीतर आओ।
और बहुत कारीगर काम करते थे। लाखों रुपये का काम था। क्योंकि कोई साधारण आदमी मंदिर नहीं बना रहा था। सबसे पीछे, जहां पत्थरों को खोदते कारीगर थे, उस बूढ़े ने ले जाकर मुझे खड़ा कर दिया एक पत्थर के सामने और कहा कि इसलिए मंदिर बन रहा है!
उस पत्थर पर मंदिर को बनाने वाले का नाम स्वर्ण-अक्षरों में खोदा जा रहा है।
उस बूढ़े ने कहा, सब मंदिर इस पत्थर के लिए बनते हैं। असली चीज यह पत्थर है, जिस पर नाम लिखा रहता है कि किसने बनवाया। मंदिर तो बहाना है इस पत्थर को लगाने का। यह पत्थर असली चीज है, इसकी वजह से मंदिर भी बनाना पड़ता है। मंदिर तो बहुत मंहगा पड़ता है; लेकिन इस पत्थर को लगाना है तो क्या करें, मंदिर बनाना पड़ता है। मंदिर पत्थर लगाने के लिए बनते हैं, जिन पर खुदा है कि किसने बनाया!
लेकिन मंदिर बनाने वाले को शायद होश नहीं होगा कि यह मंदिर भीड़ के चरणों में बनाया जा रहा है, भगवान के चरणों में नहीं। इसीलिए तो मंदिर हिंदू का होता है, मुसलमान का होता है, जैन का होता है। मंदिर भगवान का कहां होता है?
भीड़ से सावधान होने का मतलब यह है कि भीतर जाग कर देखना चित्त की वृत्तियों को: कि कहीं भीड़ तो मेरा निर्माण नहीं करती है? चौबीस घंटे भीड़ तो मुझे मोल्ड नहीं करती है? कहीं भीड़ के सांचे में तो मुझे नहीं ढाला जा रहा है? क्योंकि ध्यान रहे, भीड़ के सांचे में कभी किसी आत्मा का निर्माण नहीं होता। भीड़ के सांचे में मुर्दा आदमी ढाले जाते हैं और पत्थर हो जाते हैं। जिनको आत्मा को पाना है जीवंत, वे भीड़ के सांचे को तोड़ कर ऊपर उठने की कोशिश करते हैं।
लेकिन कुछ और करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ जागने की जरूरत है, कि चित्त की वृत्तियों को मैं जाग कर देखता रहूं कि भीड़ मुझे पकड़ तो नहीं रही है? और बड़े मजे की बात है, अगर कोई जाग कर देखता रहे तो भीड़ की पकड़ बंद हो जाती है। और इतना हलकापन, इतनी वेटलेसनेस मालूम होती है, क्योंकि वजन भीड़ का है हमारे सिरों पर।
हम दिखाई पड़ रहे हैं कि हम अकेले खड़े हैं, हमारे सिर पर कोई भी नहीं है। जरा गौर से देखना! किसी के सिर पर गांधी बैठे हैं, किसी के सिर पर मोहम्मद बैठे हैं, किसी के सिर पर महावीर बैठे हैं। और अकेले नहीं बैठे हैं, अपने चेले-चांटियों के साथ बैठे हुए हैं! और एक-दो दिन से नहीं बैठे हुए हैं, हजारों-लाखों साल से बैठे हुए हैं! सिर भारी हो गया है, कतार लग गई है एवरेस्ट की, आकाश को छू रही है, इतने लोग ऊपर बैठे हुए हैं।
इन सबको उतार देने की जरूरत है। अगर अपने को पाना है, तो अपने सिर से सबको उतार देने की जरूरत है। कोई हक नहीं है किसी को कि किसी की आत्मा पर पत्थर होकर बैठ जाए।
लेकिन वे बेचारे नहीं बैठे हैं, आप बिठाए हुए हैं। उनका कोई कसूर नहीं है। वे तो घबड़ा गए होंगे कि यह आदमी कब तक ढोता रहेगा! हमारे प्राण निकले जा रहे हैं, कितने दिन से बिठाए हुए है, हमको छोड़ता ही नहीं!
आप ही बिठाए हुए हैं। जागते ही छूट जाएगा यह मोह। सिर हलका हो जाएगा; मन हलका हो जाएगा। उड़ने की तैयारी शुरू हो जाएगी। पंख खुल सकेंगे।
और तीसरी बात: जागना है दमन के प्रति।
लोग सोचते हैं कि दमन छोड़ देंगे तो भोग शुरू हो जाएगा। लोग सोचते हैं, अगर क्रोध नहीं दबाया तो क्रोध हो जाएगा, और झंझट हो जाएगी। अगर मालिक की गर्दन पकड़ लेंगे, वह और दिक्कत की बात है। उससे पत्नी की गर्दन पकड़ना ज्यादा कनवीनिएंट, ज्यादा सुविधापूर्ण है। यह झंझट की बात हो जाएगी, इसके आर्थिक दुष्परिणाम हो जाएंगे–अगर मालिक की गर्दन पकड़ेंगे। और मालिक की गर्दन पकड़ने के लिए पत्नी भी कहेगी कि मत पकड़ना; उससे तो मेरी ही पकड़ लेना। क्योंकि मालिक की गर्दन पकड़ी तो बच्चे का क्या होगा? पत्नी का क्या होगा? सब दिक्कत में पड़ जाएंगे। तुम तो मेरी ही पकड़ लेना। पत्नी भी यही कहेगी कि यही ज्यादा सुविधापूर्ण, समझदारी का है कि मालिक को छोड़ कर, आकर मुझ पर टूट पड़ना।
नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं: क्रोध को दबाने की जरूरत नहीं है; क्रोध को भी देखने, जानने और जागने की जरूरत है। जब किसी के प्रति मन में क्रोध पकड़े, तो जाग कर देखना कि क्रोध पकड़ रहा है। होश से भर जाना कि क्रोध आ रहा है। देखना अपने भीतर कि क्रोध का धुआं उठ रहा है। क्रोध क्या-क्या कर रहा है, भीतर देखना। और एक अदभुत अनुभव होगा जीवन में पहली बार–देखते ही क्रोध विलीन हो जाता है; न दबाना पड़ता है, न करना पड़ता है।
आज तक दुनिया में कोई आदमी जाग कर क्रोध नहीं कर पाया है।
बुद्ध एक गांव से गुजरते थे। कुछ लोगों ने भीड़ लगा ली और बहुत गालियां दीं बुद्ध को।
अच्छे लोगों को हमने सिवाय गालियां देने के आज तक कुछ भी नहीं किया। हां, जब वे मर जाते हैं तो पूजा वगैरह भी करते हैं। लेकिन वह मरने के बाद की बात है। जिंदा बुद्ध को तो गाली देनी ही पड़ेगी। क्योंकि ऐसे लोग थोड़े डिस्टघबग होते हैं; थोड़ी गड़बड़ कर देते हैं; नींद तोड़ देते हैं। तो गुस्सा आता है तो आदमी गाली देता है, कसूर भी क्या है!
उस गांव के लोगों ने घेर कर बुद्ध को बहुत गालियां दीं। बुद्ध ने उनसे कहा कि मित्रो, तुम्हारी बात अगर पूरी हो गई हो तो अब मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।
वे लोग कहने लगे, बात? हम गालियां दे रहे हैं सीधी-सीधी, समझ नहीं आतीं आपको! क्या बुद्धि बिलकुल खो दी है? सीधी-सीधी गालियां दे रहे हैं, बात नहीं कर रहे हैं।
बुद्ध ने कहा, तुम गालियां दे रहे हो, वह मैं समझ गया। लेकिन मैंने गालियां लेना बंद कर दिया है। तुम्हारे देने से क्या होगा जब तक मैं लूं न? और मैं ले नहीं सकता। क्योंकि जब से जाग गया हूं, तब से गाली लेना असंभव हो गया है। जागते में कोई गलत चीज कैसे ले सकता है?
आप बेहोशी में चलते हों तो पैर में कांटा गड़ जाता है; सड़क को देख कर चलते हों तो कैसे कांटा गड़ सकता है! गलती से आदमी दीवाल से टकरा सकता है; लेकिन आंखें खुली हों तो दरवाजे से निकलता है।
बुद्ध ने कहा कि मैं आंखें खोल कर जब से जीने लगा हूं, जाग कर, तब से गालियां लेने का मन ही नहीं करता है। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तुम्हें दस साल पहले आना चाहिए था। तुम जरा देर करके आए। दस साल पहले आते तो मजा आ जाता। तुमको मजा आ जाता, हमको तो बहुत तकलीफ होती। हमको तो अभी मजा आ रहा है। लेकिन तुम्हें बहुत मजा आ जाता; क्योंकि मैं भी दुगने वजन की गाली तुम्हें देता। लेकिन अब बड़ी मुश्किल है; होश से भरा हुआ आदमी गाली नहीं ले सकता। तो मैं जाऊं?
वे लोग बड़े हैरान हो गए।
बुद्ध ने कहा, जाते वक्त एक बात और तुमसे कह दूं। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे। मैंने कहा कि मेरा पेट भरा है। वह भी जागा हुआ था, इसलिए कह सका; क्योंकि सोया हुआ आदमी मिठाइयां देख कर भूल जाता है कि पेट भरा है।
पता है आपको? बेहोश आदमी भूख देख कर नहीं खाता; बेहोश आदमी चीजें देख कर खाता है। होश भरा आदमी पेट की भूख देख कर खाता है। बात खतम हो गई।
बुद्ध ने कहा, मेरा पेट भरा था। वह भी होश की वजह से। दस साल पहले वे भी आए होते, तो उनकी थालियां उन्हें वापस न ले जानी पड़तीं। मैं उनको जरूर खा लेता। लेकिन जब से होश आ गया है, जाग कर देखता रहता हूं। तो गलती करनी बहुत मुश्किल हो गई है। वे बेचारे थालियां वापस ले गए। तो मैं तुमसे पूछता हूं, दोस्तो, उन्होंने उन मिठाइयों का क्या किया होगा?
उस गाली देने वाली भीड़ में से एक आदमी ने कहा, क्या किया होगा? घर में जाकर मिठाइयां बांट दी होंगी।
बुद्ध ने कहा, यही मुझे चिंता हो रही है कि तुम क्या करोगे? तुम गालियों की थालियां लेकर आए हो, और मैं लेता नहीं। अब तुम इन गालियों का क्या करोगे? किसको बांटोगे?
बुद्ध कहने लगे, मुझे बड़ी दया आती है तुम पर। अब तुम करोगे क्या? इन गालियों का क्या करोगे? मैं लेता नहीं; मैं ले सकता नहीं। चाहूं भी तो नहीं ले सकता, मुश्किल में पड़ गया हूं, जाग जो गया हूं।
कोई आदमी जाग कर क्रोध नहीं कर सकता।
दमन निद्रा में चलता है, जाग्रत आदमी को दमन की कोई जरूरत नहीं है।
देखें एक प्रयोग। एक आदमी मेरे पास आया कुछ ही समय हुआ। उसने कहा, मुझे बहुत क्रोध आता है। आप कहते हैं, जागो! जागो! मुझसे नहीं होता यह जागना-वागना। जब आता है, तब आ ही जाता है। फिर पीछे जागते हैं जब सब मामला ही खतम हो जाता है। फिर कोई फायदा नहीं होता।
तो मैंने एक कागज पर उसको लिख कर दे दिया कि इस कागज पर लिखा हुआ है–“अब मुझे क्रोध आ रहा है’–बड़े-बड़े अक्षरों में। इसको खीसे में रख लो, और जब आए तो इसको निकाल कर एक दफे पढ़ कर खीसे में रख लेना, और जो तुम्हें समझ में आए सो करना।
वह आदमी पंद्रह दिन बाद आया और कहने लगा, बड़ी हैरानी की बात है। यह कागज में कैसा मंत्र है! क्योंकि जब क्रोध आता है, हाथ ले गए खीसे की तरफ कि क्रोध की जान निकल जाती है! वह जैसे ही यह खयाल आया कि आ रहा है–कि भीतर कोई चीज जग जाती है और वह नहीं आता।
मैंने कहा, बस इतना ही थोड़ी सी समझ की जरूरत है जीवन के प्रति।
जीवन छोटे से राजों पर निर्भर होता है। और बड़े से बड़ा राज यह है कि सोया हुआ आदमी भटकता चला जाता है चक्कर में, जागा हुआ आदमी चक्कर के बाहर हो जाता है।
जागने की कोशिश ही धर्म की प्रक्रिया है।
जागने का मार्ग ही योग है।
जागने की विधि का नाम ही ध्यान है।
जागना ही एकमात्र प्रार्थना है।
जागना ही एकमात्र उपासना है।
जो जागते हैं, वे प्रभु के मंदिर को उपलब्ध हो जाते हैं।
क्योंकि पहले वे जागते हैं, तो वृत्तियां, व्यर्थताएं, कचरा, कूड़ा-करकट चित्त से गिरना शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे चित्त निर्मल हो जाता है जागे हुए आदमी का। और जब चित्त निर्मल हो जाता है, तो चित्त दर्पण बन जाता है। जैसे झील निर्मल हो, तो चांदत्तारों की प्रतिछवि बनती है। और आकाश में भी चांदत्तारे उतने सुंदर नहीं मालूम पड़ते, जितने झील की छाती पर चमक कर मालूम पड़ते हैं। जब चित्त निर्मल हो जाता है जागे हुए आदमी का, तो उस चित्त की निर्मलता में परमात्मा की छवि दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। फिर वह निर्मल आदमी कहीं भी जाए–फूल में भी उसे परमात्मा दिखता है, पत्थर में भी, मनुष्यों में भी, पक्षियों में भी, पदार्थ में भी–उसके लिए जीवन परमात्मा हो जाता है।
जीवन की क्रांति का अर्थ है: जागरण की क्रांति।
इन तीन दिनों में इस जागरण के बिंदु को समझाने के लिए मैंने ये सारी बातें की हैं। लेकिन मैं कहूं, इससे जागरण समझ में नहीं आ सकता है। वह तो आप जागेंगे तो समझ में आ सकता है। और कोई दूसरा आपको नहीं जगा सकता, आप ही–बस आप ही–अपने को जगा सकते हैं।
तो देखें अपने भीतर और एक-एक चीज के प्रति जागना शुरू करें। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे जीवन बढ़ेगा, मृत्यु कम होगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा, उस दिन मृत्यु विलीन हो जाती है; जैसे थी ही नहीं। जैसे कोई अंधेरे कमरे में एक आदमी दीया लेकर चला जाए। दीया लेकर पहुंचता है कि अंधेरा खो जाता है; जैसे था ही नहीं। ऐसे ही जो आदमी जागरण का दीया लेकर भीतर जाता है, मृत्यु खो जाती है, दुख खो जाता है, अशांति खो जाती है। अमृत–वह जिसका कोई अंत नहीं; वह जिसका कोई प्रारंभ नहीं; वह जो असीम है; वह जो प्रभु है–उसके मंदिर में प्रवेश हो जाता है।
अंत में यही प्रार्थना करता हूं कि उस मंदिर में सबका प्रवेश हो सके। लेकिन किसी की कृपा से नहीं होगा यह; किसी के प्रसाद से, आशीर्वाद से नहीं होगा। अपने ही श्रम, अपने ही संकल्प, अपनी ही साधना से होता है। जो जागते हैं, वे पाते हैं। जो सोए रह जाते हैं, वे खो देते हैं।
मेरी बातों को इन चार दिनों में इतने प्रेम और शांति से सुना, उस सबके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।