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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-15)

20 अप्रैल 2022

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सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति

 मेरे प्रिय आत्मन्!

अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न उड़ने वाले पक्षियों के कोई चरण-चिह्न बनते हैं। खुले आकाश में, जिसकी कोई सीमाएं नहीं, उन पक्षियों को उड़ता देख कर मेरे मन में एक सवाल उठा: क्या आदमी की आत्मा भी इतने ही खुले आकाश में उड़ने की मांग नहीं करती है? क्या आदमी के प्राण भी नहीं तड़पते हैं सारी सीमाओं के ऊपर उठ जाने को–सारे बंधन तोड़ देने को? सारी दीवालों के पार–वहां, जहां कोई दीवाल नहीं; वहां, जहां कोई फासले नहीं; वहां, जहां कोई रास्ते नहीं; वहां, जहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते–उस खुले आकाश में उठ जाने की मनुष्य की आत्मा की भी प्यास नहीं है?

उस खुले आकाश का नाम ही परमात्मा है।

लेकिन आदमी तो पैदा होता है, और बंधनों में बंध जाता है। चाहे पैदा कोई स्वतंत्र होता हो, लेकिन बहुत सौभाग्यशाली लोग ही स्वतंत्र जीते हैं; और बहुत कम सौभाग्यशाली लोग स्वतंत्र होकर मर पाते हैं। आदमी पैदा तो स्वतंत्र होता है, और फिर निरंतर परतंत्र होता चला जाता है। किसी आदमी की आत्मा परतंत्र नहीं होना चाहती है, फिर भी आदमी परतंत्र होता चला जाता है!

तो ऐसा प्रतीत होता है कि शायद हमने परतंत्रता की बेड़ियों को फूलों से सजा रखा है; शायद हमने परतंत्रता को स्वतंत्रता के नाम दे रखे हैं; शायद हमने कारागृहों को मंदिर समझ रखा है। और इसीलिए यह संभव हो सका है कि प्रत्येक आदमी के प्राण स्वतंत्र होना चाहते हैं, और प्रत्येक आदमी परतंत्र ही जीता है और मरता है! बल्कि, ऐसा भी दिखाई पड़ता है कि हम अपनी परतंत्रता की रक्षा भी करते हैं! अगर परतंत्रता पर चोट हो, तो हमें तकलीफ भी होती है, पीड़ा भी होती है! अगर कोई हमारी परतंत्रता तोड़ देना चाहे, तो वह हमें दुश्मन भी मालूम होता है!

परतंत्रता से आदमी का ऐसा प्रेम क्या है? नहीं, परतंत्रता से किसी का भी प्रेम नहीं है। लेकिन परतंत्रता को हमने स्वतंत्रता के शब्द और वस्त्र ओढ़ा रखे हैं। एक आदमी अपने को हिंदू कहने में जरा भी अनुभव नहीं करता कि मैं अपनी गुलामी की सूचना कर रहा हूं। एक आदमी अपने को मुसलमान कहने में जरा भी नहीं सोचता कि मुसलमान होना मनुष्यता के ऊपर दीवाल बनानी है। एक आदमी किसी वाद में, किसी संप्रदाय में, किसी देश में अपने को बांध कर कभी भी नहीं सोचता कि मैंने अपना कारागृह अपने हाथों से बना लिया है। बड़ी चालाकी, बड़ा धोखा आदमी अपने को देता रहा है। और सबसे बड़ा धोखा यह है कि हमने कारागृहों को सुंदर नाम दे दिए हैं;, हमने बेड़ियों को फूलों से सजा दिया है; और जो हमें बांधे हुए हैं, उन्हें हम मुक्तिदायी समझ रहे हैं!

यह मैं पहली बात आज कहना चाहता हूं: जो लोग भी जीवन में क्रांति चाहते हैं, सबसे पहले उन्हें समझ लेना होगा कि बंधा हुआ आदमी कभी भी जीवन की क्रांति से नहीं गुजर सकता है। और हम सारे ही लोग बंधे हुए लोग हैं। यद्यपि हमारे हाथों पर जंजीरें नहीं हैं, हमारे पैरों में बेड़ियां नहीं हैं; लेकिन हमारी आत्माओं पर बहुत जंजीरें हैं, बहुत बेड़ियां हैं। हाथ-पैर पर बेड़ियां पड़ी हों तो दिखाई पड़ जाएंगी, आत्मा पर जंजीरें पड़ी हों तो दिखाई भी नहीं पड़तीं। अदृश्य बंधन इस बुरी तरह बांध लेते हैं कि उनका पता भी नहीं चलता और जीवन भी हमारा एक कैद बन जाता है। अदृश्य बंधनों में सबसे अदभुत बंधन सिद्धांतों के, शास्त्रों के और शब्दों के हैं।

एक गांव में एक दिन सुबह-सुबह बुद्ध का प्रवेश हुआ। गांव के द्वार पर ही एक व्यक्ति ने बुद्ध को पूछा, आप ईश्वर को मानते हैं? मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं। आपकी क्या दृष्टि है?

बुद्ध ने कहा, ईश्वर? ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।

बुद्ध गांव के भीतर पहुंचे। एक दूसरे व्यक्ति ने बुद्ध को कहा, मैं आस्तिक हूं, मैं ईश्वर को मानता हूं। आप ईश्वर को मानते हैं?

बुद्ध ने कहा, ईश्वर? ईश्वर है ही नहीं, मानने का कोई सवाल नहीं उठता। ईश्वर एक असत्य है!

पहले आदमी ने पहला उत्तर सुना था, दूसरे आदमी ने दूसरा उत्तर सुना था। लेकिन बुद्ध के साथ एक भिक्षु था, आनंद। उसने दोनों उत्तर सुने, वह बहुत हैरान हो गया! सुबह ही बुद्ध ने कहा कि ईश्वर है! दोपहर बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है! आनंद बहुत चिंतित हो गया कि बुद्ध का प्रयोजन क्या है? लेकिन सांझ फुरसत होगी, रात सब लोग विदा हो जाएंगे, तब पूछ लेगा।

लेकिन सांझ तो मुश्किल और बढ़ गई। एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा कि मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। मैं आपसे पूछता हूं, आप मानते हैं–ईश्वर है? या नहीं?

बुद्ध उसकी बात सुन कर चुप रह गए और उन्होंने कोई भी उत्तर न दिया!

रात जब सारे लोग विदा हो गए, तो आनंद बुद्ध को पूछने लगा कि मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे बहुत झंझट में डाल दिया आपने। सुबह कहा, ईश्वर है; दोपहर कहा, नहीं है; सांझ चुप रह गए। मैं क्या समझूं?

बुद्ध ने कहा, उन तीनों उत्तर में कोई भी उत्तर तेरे लिए नहीं दिया गया था। तूने वे उत्तर क्यों लिए? जिनको उत्तर दिए गए थे, उनके लिए दिए गए थे। तुझे तो कोई उत्तर नहीं दिया गया था।

आनंद ने कहा, क्या मैं अपने कान बंद रखता? मैंने तीनों बातें सुन ली हैं। यद्यपि उत्तर मुझे नहीं दिए गए थे, लेकिन देने वाले तो आप एक थे। और आपने तीन उत्तर दिए!

बुद्ध ने कहा, तू नहीं समझा। मैं उन तीनों की मान्यताएं तोड़ देना चाहता था। सुबह जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। जो नास्तिकता में बंध गया है, उस आदमी की आत्मा भी परतंत्र हो गई है। मैं चाहता था, वह अपनी जंजीर से मुक्त हो जाए। उसकी जंजीर तोड़ देने को मैंने कहा–ईश्वर है। ईश्वर है, मैंने सिर्फ इसलिए कहा कि वह जो नहीं मान कर बैठा है, अपनी जगह से हिल जाए, उसकी जड़ें उखड़ जाएं, उसकी दीवाल गिर जाए, वह फिर से सोचने को मजबूर हो जाए। वह चुप हो गया है। उसने सोचा है कि यात्रा समाप्त हो गई। और जो भी आदमी समझ लेता है कि यात्रा समाप्त हो गई, वह कारागृह में पहुंच जाता है। जीवन है अनंत यात्रा, वह यात्रा कभी भी समाप्त नहीं होती। लेकिन हिंदू की यात्रा समाप्त हो गई है, बौद्ध की यात्रा समाप्त हो गई है, जैन की यात्रा समाप्त हो गई है, गांधीवादी की यात्रा समाप्त हो गई है, माक्र्सवादी की यात्रा समाप्त हो गई है; जिसको भी वाद मिल गया है, उसकी यात्रा समाप्त हो गई है। उसने सत्य को पा लिया, वह सत्य को उपलब्ध हो गया है; अब आगे, आगे खोज समाप्त हो गई है। सभी संप्रदायों की, सभी धर्मों की, सभी पकड़ वालों की खोज समाप्त हो जाती है।

बुद्ध ने कहा, मैं उसे तोड़ देना चाहता था उसकी जंजीरों से, ताकि वह फिर से पूछे, वह फिर से खोजे, वह आगे बढ़ जाए।

दोपहर जो आदमी आया था, वह आदमी आस्तिक था। वह मान कर बैठ गया था कि ईश्वर है। उससे मुझे कहना पड़ा कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर है ही नहीं। ताकि मैं उसकी भी जंजीरों को ढीला कर सकूं, उसके मत को भी तोड़ सकूं। क्योंकि सत्य को वे ही लोग उपलब्ध होते हैं, जिनका कोई मत नहीं।

और सांझ जो आदमी आया था, उसका कोई मत नहीं था। उसने कहा, मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। इसलिए मैं भी चुप रह गया। मैंने उससे कहा कि तू चुप रह कर खोज, मत की तलाश मत कर, सिद्धांत की तलाश मत कर। चुप हो। इतना चुप हो जा कि सारे शब्द खो जाएं। तो शायद जो है, उसका तुझे पता चल सके।

बुद्ध के साथ आप भी रहे होते तो मुश्किल में पड़ गए होते। अगर एक उत्तर सुना होता तो शायद बहुत मुसीबत न होती। लेकिन अगर तीनों उत्तर सुने होते, तो बहुत मुसीबत हो जाती।

बुद्ध का प्रयोजन क्या है? बुद्ध चाहते क्या हैं?

बुद्ध आपको कोई सिद्धांत नहीं देना चाहते; बुद्ध आपके जो सिद्धांत हैं, उनको भी छीन लेना चाहते हैं। बुद्ध आपके लिए कोई कारागृह नहीं बनाना चाहते; आपका जो बना कारागृह है, उसको भी गिरा देना चाहते हैं। ताकि वह खुला आकाश जीवन का, खुली आंखों से देखने की क्षमता उपलब्ध हो सके।

लेकिन इससे क्या होता है! बुद्ध चिल्लाते रहेंगे कि तोड़ दो सिद्धांत, और बुद्ध के पीछे लोग इकट्ठे हो जाएंगे और बुद्ध का सिद्धांत भी निर्मित कर लेंगे। दुनिया में जिन थोड़े से लोगों ने मनुष्य को मुक्त करने की चेष्टा की है–मनुष्य अजीब पागल है–उन्हीं लोगों को उसने अपना बंधन बना लिया! चाहे फिर वह बुद्ध हों, चाहे महावीर हों, चाहे माक्र्स हो और चाहे गांधी हों–चाहे कोई भी आदमी हो–जो भी मनुष्य को मुक्त करने की चेष्टा करता है, आदमी अजीब पागल है, उसी को अपना बंधन बना लेता है! उसी को अपनी जंजीर बना लेता है! और जिंदा आदमी तो कोशिश भी कर सकता है कि उसकी जंजीर न बने, मुर्दा आदमी क्या कर सकता है?

मरे हुए नेता, मरे हुए संत बहुत खतरनाक सिद्ध होते हैं–अपने कारण नहीं, आदमी की आदत के कारण। दुनिया के सभी महापुरुष, जो कि मनुष्य को मुक्त कर सकते थे, कोई भी मनुष्य को मुक्त नहीं कर पाया, मनुष्य ने उनको ही अपने बंधन में रूपांतरित कर लिया। इसलिए मनुष्य के इतिहास में एक अजीब घटना घटी है: जो भी संदेश लेकर आता है मुक्ति का, हम उसको ही अपना एक नया कारागृह बना लेते हैं! इस भांति जितने मुक्ति के संदेश दुनिया में आए, उतने रंग- रूप की जंजीरें दुनिया में तय और निर्मित होती चली गईं। आज तक यही हुआ है। क्या आगे भी यही होगा? अगर आगे भी यही होगा तो फिर मनुष्य के लिए कोई भविष्य दिखाई नहीं पड़ता है।

लेकिन ऐसा मुझे नहीं लगता कि जो आज तक हुआ है, वह आगे भी होना जरूरी है। वह आगे होना जरूरी नहीं है। यह संभव हो सकता है कि जो आज तक हुआ है, वह आगे न हो। और न हो सके तो मनुष्यता मुक्त हो सकती है। लेकिन मनुष्यता मुक्त हो या न हो, एक-एक मनुष्य को भी अगर मुक्त होना है, तो उसे अपने चित्त पर, अपने मन पर, अपनी आत्मा पर लगाई सारी जंजीरों को तोड़ देने की हिम्मत जुटानी पड़ती है।

जंजीरें बहुत मधुर हैं, बहुत सुंदर हैं, सोने की हैं, इसलिए और भी कठिनाई हो जाती है। महापुरुषों से मुक्त होना बहुत कठिन मालूम पड़ता है, सिद्धांतों से मुक्त होना बहुत कठिन मालूम पड़ता है, शास्त्रों से मुक्त होना बहुत कठिन मालूम पड़ता है। और अगर कोई कहे, तो वह आदमी दुश्मन मालूम होगा। क्योंकि हम इन सारी चीजों को मान कर निश्चिंत हो गए हैं; अब खोजने की और कोई जरूरत न रही। और अगर कोई आदमी कहता है, इनसे मुक्त हो जाओ! तो फिर खोजने की जरूरत शुरू हो जाती है; फिर मंजिल खो जाती है; फिर रास्ता सामने आ जाता है। रास्ते पर चलने में तकलीफ मालूम पड़ती है; मंजिल पर पहुंच जाने में आराम मालूम पड़ता है। क्योंकि मंजिल पर पहुंचने के बाद फिर कोई यात्रा नहीं, कोई श्रम नहीं। मनुष्य ने अपने आलस्य के कारण झूठी मंजिलें तय कर ली हैं। और हमने सब मंजिलें पकड़ रखी हैं।

पहली बात, पहला सूत्र जीवन-क्रांति का मैं आपसे कहना चाहता हूं, और वह यह: एक स्वतंत्र चित्त चाहिए। एक मुक्त चित्त चाहिए।

एक बंधा हुआ, कैप्सूल के भीतर बंद, दीवालों के भीतर बंद, पक्षपातों के भीतर बंद, वाद और सिद्धांत और शब्दों के भीतर बंद चित्त कभी भी जीवन की क्रांति से नहीं गुजर सकता है।

और अभागे हैं वे लोग जिनका जीवन एक क्रांति नहीं बन पाता; क्योंकि वे वंचित ही रह जाते हैं इस सत्य को जानने से कि जीवन में क्या छिपा था! क्या था राज, क्या था आनंद, क्या था सत्य, क्या था संगीत, क्या था सौंदर्य–उस सबसे ही वे वंचित रह जाते हैं!

मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपनी सुरक्षा के लिए एक महल बनाया था। उसने ऐसा इंतजाम किया था कि महल के भीतर कोई दुश्मन न आए। उसने सारे द्वार-दरवाजे बंद कर दिए थे। सिर्फ एक दरवाजा महल में रखा था। और दरवाजे पर हजार नंगी तलवारों का पहरा था। एक छोटा छेद भी नहीं था मकान में। सारे महल के द्वार-दरवाजे बंद कर दिए थे और फिर वह बहुत निश्चिंत हो गया था। अब किसी खिड़की से, किसी द्वार से, दरवाजे से किसी डाकू की, किसी हत्यारे की, किसी दुश्मन के आने की कोई संभावना न थी।

पड़ोस के राजा ने सुना, वह उसके महल को देखने आया। वह भी उसके महल को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ।

आदमी ऐसा पागल है, बंद दरवाजों को देख कर बहुत प्रसन्न होता है। क्योंकि बंद दरवाजों को वह समझता है–सुरक्षा, सिक्योरिटी, सुविधा।

उस राजा ने भी महल देख कर कहा, हम भी एक ऐसा महल बनाएंगे। यह महल तो बहुत सुरक्षित है। इस महल में तो निश्चिंत रहा जा सकता है।

जब पड़ोसी राजा द्वार पर आकर विदा हो रहा था और इस मित्र राजा के महल की प्रशंसा कर रहा था, तब सड़क पर बैठा हुआ एक बूढ़ा भिखारी जोर से हंसने लगा। उस भवन के मालिक ने पूछा, तू हंसता क्यों है? कोई भूल तुझे दिखाई पड़ती है?

उस भिखारी ने कहा, एक भूल रह गई है, महाराज! जब आप यह मकान तैयार करवाते थे, तभी मुझे लगता था कि एक भूल रह गई है।

उस सम्राट ने कहा, कौन सी भूल?

उस भिखारी ने कहा, एक दरवाजा आपने रखा है, यही भूल रह गई है। यह दरवाजा और बंद कर लें, और भीतर हो जाएं, तो फिर आप बिलकुल सुरक्षित हो जाएंगे। फिर कोई भी किसी हालत में भीतर नहीं पहुंच सकता है।

उस सम्राट ने कहा, पागल, फिर तो यह मकान कब्र हो जाएगा। अगर मैं एक दरवाजा और बंद कर लूं, तो मैं मर जाऊंगा भीतर। फिर तो यह मौत हो जाएगी।

उस भिखारी ने कहा, इतना आपको समझ आता है कि एक दरवाजा और बंद कर लेने से आप मर जाएंगे, क्या आपको यह समझ में नहीं आता कि जितने दरवाजे आपने बंद किए हैं, उसी मात्रा में आप मर गए हैं? एक-एक दरवाजा आपने बंद किया है, उसी मात्रा में जीवन से आपके संबंध टूट गए हैं। अब एक दरवाजा बचा है, तो थोड़ा सा संबंध बचा है, आप थोड़े से जीवित हैं। इसको भी बंद कर देंगे, तो बिलकुल मर जाएंगे। लेकिन यह मकान कब्र है जिसमें एक दरवाजा है। यह दरवाजा और बंद हो जाए तो कब्र पूरी हो जाएगी। और अगर आपको यह लगता है कि एक दरवाजा बंद करने से मौत हो जाएगी, तो जो दरवाजे बंद हैं उनको खोल लें। और अगर मेरी बात समझें तो सब दीवालें गिरा दें, ताकि खुले सूरज के नीचे और खुले आकाश के नीचे पूरा जीवन उपलब्ध हो।

लेकिन शरीर के लिए मकान जरूरी है, और शरीर के लिए दीवालें भी जरूरी हैं। पर आत्मा के लिए न तो मकान जरूरी है और न दीवालें जरूरी हैं। लेकिन जिनके पास शरीर को छिपाने के लिए मकान नहीं, उन्होंने भी अपनी आत्मा को छिपाने के लिए दीवालें और मकान बना रखे हैं! जो खुले आकाश के नीचे सोते हैं, उनकी आत्माएं भी खुले आकाश में नहीं उड़ती हैं! जिनके शरीर पर वस्त्र नहीं हैं, उन्होंने भी आत्मा के लिए लोहे के वस्त्र पहना रखे हैं! और फिर आदमी पूछता है, हम दुखी क्यों हैं? फिर आदमी पूछता है, हम पीड़ित क्यों हैं? फिर आदमी पूछता है, आनंद कहां मिलेगा?

कभी परतंत्र चित्त को आनंद मिला है? कभी परतंत्रता ने सुख जाना है? कभी परतंत्र व्यक्ति कभी भी किसी भी स्थिति में सत्य को, सौंदर्य को उपलब्ध हुआ है?

मैं एक घर में मेहमान था। एक बहुत प्यारी चिड़िया उस घर के लोगों ने कैद कर रखी थी। जिस पिंजड़े में वह चिड़िया बंद थी, वह चारों तरफ कांच से घिरा था। चिड़िया को बाहर का जगत दिखाई पड़ता होगा, लेकिन उस कांच की दीवाल के भीतर बंद चिड़िया को पता भी नहीं हो सकता कि बाहर एक खुला आकाश है, और उस बाहर खुले आकाश में उड़ने का भी आनंद है। शायद वह चिड़िया उड़ने का खयाल भी भूल गई होगी। शायद उसके पंख किसलिए हैं, यह भी उसे पता नहीं रहा होगा। और अगर आज उसे बाहर भी कर दिया जाए, तो शायद वह घबड़ाएगी और अपने सुरक्षित पिंजड़े में वापस आ जाएगी। उसके पास पंख किसलिए हैं, यह भी उस चिड़िया को पता नहीं है। शायद पंख उसे निरर्थक लगते होंगे, बोझ लगते होंगे। और उसे यह भी पता नहीं है कि उस खुले आकाश में सूरज की तरफ बादलों के पार उड़ जाने का भी एक आनंद है, एक जीवन है। वह उसे कुछ भी पता नहीं है।

उस चिड़िया को कुछ भी पता नहीं है; हमें पता है? हमने भी कांच की दीवालें बना रखी हैं। उन कांच की दीवालों के पार, बियांड, उनके अतीत भी कोई लोक है–जहां कोई सीमा नहीं छूटती; जहां आगे, और आगे अनंत विस्तार है; जहां सूरज है, जहां बादलों के अतीत आगे खुला आकाश है।

नहीं, हमें भी उसका कोई पता नहीं है। शायद हमें भी आत्मा एक बोझ मालूम पड़ती है। और हममें से बहुत से लोग अपनी आत्मा को खो देने की हर चेष्टा करते हैं। हमें आत्मा भी एक बोझ मालूम पड़ती है, इसलिए शराब पीकर आत्मा को भुला देने की कोशिश करते हैं, संगीत सुन कर भुला देने की कोशिश करते हैं। किसी तरह आत्मा भूल जाए, इसकी चेष्टा करते हैं। वह आत्मा भी एक बोझ है, जैसे उस चिड़िया को पंख बोझ मालूम होते होंगे। क्योंकि हमें पता नहीं कि एक आकाश है, जहां आत्मा भी पंख बन जाती है। और आकाश की एक उड़ान है, जिस उड़ान की उपलब्धि का नाम ही प्रभु है, परमात्मा है।

धर्म मनुष्य को मुक्त करने की कला है। अगर ठीक से कहूं तो धर्म मनुष्य के जीवन में क्रांति लाने की कला है। इसलिए कायर कभी धार्मिक नहीं हो सकते। डरे हुए लोग, भयभीत लोग कभी धार्मिक नहीं हो सकते। बल्कि भयभीत और डरे लोगों ने जो धर्म पैदा किया है, वह धर्म जरा भी नहीं है। वह धर्म से बिलकुल उलटी चीज है। वह अधर्म से भी बदतर है। क्योंकि अधार्मिक आदमी भी साहसी हो सकता है। और जो आदमी साहसी है, वह बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता। अधार्मिक आदमी भी विचारशील होता है। और जो आदमी विचारशील है, वह बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता।

रामकृष्ण के पास केशवचंद्र मिलने गए थे। केशवचंद्र विवाद करने गए थे रामकृष्ण से, रामकृष्ण की बातों का खंडन करने गए थे। सारे कलकत्ते में खबर थी कि चलें, केशवचंद्र की बातें सुनें! रामकृष्ण तो गांव के गंवार हैं, क्या उत्तर दे सकेंगे केशवचंद्र का? केशवचंद्र बड़ा पंडित है! बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। रामकृष्ण के शिष्य बहुत डरे हुए थे, केशव के सामने रामकृष्ण क्या बात कर सकेंगे! कहीं ऐसा न हो कि फजीहत हो जाए! सब तो मित्र डरे थे, लेकिन रामकृष्ण बार-बार द्वार पर आकर पूछते थे, केशव अभी तक आए नहीं?

एक भक्त ने कहा भी कि आप पागल होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं! और आपको पता नहीं कि आप दुश्मन की प्रतीक्षा कर रहे हैं! वे आकर आपकी बातों का खंडन करेंगे। वे बहुत बड़े तार्किक हैं।

रामकृष्ण कहने लगे, वही देखने के लिए मैं आतुर हो रहा हूं; क्योंकि इतना तार्किक आदमी अधार्मिक कैसे रह सकता है, यही मुझे देखना है। इतना विचारशील आदमी कैसे धर्म के विरोध में रह सकता है, यही मुझे देखना है। यह असंभव है।

केशव आए, और केशव ने विवाद शुरू किया। केशव ने सोचा था, रामकृष्ण उत्तर देंगे। लेकिन केशव एक-एक तर्क देते थे और रामकृष्ण उठ-उठ कर गले लगा लेते थे; और आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर किसी को धन्यवाद देते थे। थोड़ी देर में केशव बहुत मुश्किल में पड़ गए। उनके साथ आए लोग भी मुश्किल में पड़ गए। आखिर केशव ने पूछा कि आप करते क्या हैं? मेरी बातों का जवाब नहीं देते? और हाथ जोड़ कर आकाश में धन्यवाद किसको देते हैं?

रामकृष्ण ने कहा, मैंने बहुत चमत्कार देखे, यह चमत्कार मैंने नहीं देखा। इतना बुद्धिमान आदमी, इतना विचारशील आदमी धर्म के विरोध में कैसे रह सकता है? जरूर भगवान का चमत्कार है। इसलिए मैं उसको ऊपर धन्यवाद देता हूं। और तुमसे मैं कहता हूं कि तुम्हें मैं जवाब नहीं दूंगा, लेकिन जवाब तुम्हें मिल जाएंगे। क्योंकि जिसका चित्त इतना मुक्त होकर सोचता है, वह किसी तरह के बंधन में नहीं रह सकता। वह अधर्म के बंधन में भी नहीं रह सकता। झूठे धर्म के बंधन तुमने तोड़ डाले हैं, अब जल्दी ही अधर्म के बंधन भी टूट जाएंगे। क्योंकि विवेक अंततः सारे बंधन तोड़ देता है। और जहां सारे बंधन टूट जाते हैं, वहां जिसका अनुभव होता है, वही धर्म है, वही परमात्मा है। मैं कोई दलील न दूंगा। तुम्हारे पास दलील देने वाला बहुत अदभुत मस्तिष्क है। वह खुद ही दलील खोज लेगा।

केशव सोचते हुए वापस लौटे। और उस दिन रात में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: आज मेरा एक धार्मिक आदमी से मिलना हो गया। और शायद उस आदमी ने रूपांतरण शुरू कर दिया है। मैं पहली बार सोचता हुआ लौटा हूं। और उस आदमी ने मुझे कोई उत्तर भी नहीं दिया और मुझे विचार में डाल दिया है!

मनुष्य के पास विवेक है, लेकिन विवेक बंधन में है! और जो विवेक बंधन में है, वह सत्य तक नहीं पहुंच सकता है। हमें सोच लेना है–एक-एक व्यक्ति को–हमारा विवेक बंधन में तो नहीं है?

अगर मन में कोई भी संप्रदाय है, तो विवेक बंधन में है। अगर मन में कोई भी शास्त्र है, तो विवेक बंधन में है। अगर मन में कोई भी महात्मा है, तो विवेक बंधन में है। और जब मैं यह कहता हूं तो लोग सोचते हैं, शायद मैं महात्माओं और महापुरुषों के विरोध में हूं।

मैं किसी के विरोध में क्यों होने लगा? मैं किसी के भी विरोध में नहीं हूं। बल्कि सारे महापुरुषों का काम ही यही रहा है कि आप बंध न जाएं। सारे महापुरुषों की आकांक्षा यही रही है कि आप बंध न जाएं। क्योंकि जिस दिन आपके बंधन गिर गए, आप भी वही हो जाएंगे जो महापुरुष हो जाते हैं। महापुरुष मुक्त हो जाता है। और हम अजीब पागल लोग हैं, हम उसी मुक्त महापुरुष के पीछे बंध जाते हैं!

समस्त वाद बांध लेते हैं। वाद से छूटे बिना जीवन में क्रांति नहीं होती है, नहीं हो सकती है।

लेकिन हमें खयाल भी नहीं आता कि हम बंधे हुए लोग हैं। अगर मैं अभी कहूं कि हिंदू धर्म व्यर्थ है, या मैं कहूं कि इस्लाम व्यर्थ है, या मैं कहूं कि गांधीवाद से छुटकारा जरूरी है, तो आपके मन को चोट लगती है। अगर चोट लगती है तो आप समझ लेना कि आप बंधे हुए आदमी हैं। चोट किसको लगती है? चोट का कारण क्या है? चोट कहां लगती है हमारे भीतर? चोट वहीं लगती है जहां हमारे बंधन हैं। जिस चित्त पर बंधन नहीं है, उसे कोई भी चोट नहीं लगती।

इस्लाम खतरे में है–तो वे जो इस्लाम के बंधन से बंधे हैं, खड़े हो जाएंगे युद्ध के लिए, संघर्ष के लिए! उनके छुरे बाहर निकल आएंगे! हिंदू धर्म खतरे में है–तो वे जो हिंदू धर्म के गुलाम हैं, वे खड़े हो जाएंगे लड़ने के लिए! और अगर कोई माक्र्स को कुछ कह दे, तो जो माक्र्स के गुलाम हैं, वे खड़े हो जाएंगे! और अगर कोई गांधी को कुछ कह दे, तो जो गांधी के गुलाम हैं, वे खड़े हो जाएंगे! लेकिन यह गुलामी चाहे किसी के साथ हो…मेरे साथ हो सकती है…।

अभी मुझे बंबई में किसी ने कहा, कि किसी मेरे मित्र ने कुछ अखबार में मेरे संबंध में लेख लिखे होंगे, तो किन्हीं दो व्यक्तियों ने उन मित्र को कहीं रास्ते में पकड़ लिया और कहा कि अब अगर आगे लिखा तो गर्दन दबा देंगे! मुझे बंबई में किसी ने कहा। तो मैंने कहा कि जिन्होंने उनको पकड़ कर कहा कि गर्दन दबा देंगे, वे मेरे गुलाम हो गए, वे मुझसे बंध गए।

मैं अपने से नहीं बांध लेना चाहता हूं किसी को। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति किसी से बंधा हुआ न रह जाए। एक ऐसी चित्त की दशा हो कि हम किसी से बंधे हुए नहीं हैं। उसी हालत में एक क्रांति तत्काल होनी शुरू हो जाती है। एक एक्सप्लोजन, एक विस्फोट हो जाता है। जो आदमी किसी से भी बंधा हुआ नहीं है, उसकी आत्मा पहली दफे अपने पर खोल लेती है खुले आकाश में और उड़ने के लिए तैयार हो जाती है।

बंधे हुए आदमी का मतलब है: पंख बंधे हैं जमीन से, पैर गड़े हैं जमीन में। उड़ेंगे कैसे? और फिर हम पूछेंगे कि चित्त दुखी है, अशांत है, परेशान है! आनंद कैसे मिले? परमात्मा कैसे मिले? सत्य कैसे मिले? मोक्ष कैसे मिले? निर्वाण कैसे मिले?

कहीं आकाश में नहीं है निर्वाण। कहीं दूर सात आसमानों के पार नहीं है मोक्ष। यहीं है और अभी है। और उस आदमी को उपलब्ध हो जाता है जो कहीं भी बंधा हुआ नहीं है। जिसकी कोई क्लिंगिंग नहीं है। जिसके हाथ किसी दूसरे के हाथ को नहीं पकड़े हुए हैं। जो अकेला है और अकेला खड़ा है। और जिसने इतना साहस और इतनी हिम्मत जुटा ली है कि अब वह किसी का अनुयायी नहीं है, किसी के पीछे चलने वाला नहीं है, किसी का अनुकरण करने वाला नहीं है। अब वह किसी का मानसिक गुलाम नहीं है, मेंटल स्लेवरी उसकी नहीं है।

लेकिन हम कहेंगे कि मैं जैन हूं, और कभी न सोचेंगे कि हम महावीर के मानसिक गुलाम हो गए! कहेंगे मैं कम्युनिस्ट हूं, और कभी न सोचेंगे कि हम माक्र्स और लेनिन के मानसिक गुलाम हो गए! कहेंगे मैं गांधीवादी हूं, और कभी न सोचेंगे कि हम गांधी के गुलाम हो गए!

दुनिया में गुलामों की कतारें लगी हैं। गुलामी के नाम अलग-अलग हैं, लेकिन गुलामी कायम है। मैं गुलामी नहीं बदलना चाहता कि एक आदमी से छुड़ा कर दूसरे की गुलामी आपको पकड़ा दी जाए। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह वैसे ही है, जैसे लोग मरघट लाश को ले जाते हैं कंधे पर रख कर, एक कंधा दुखने लगता है तो दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। थोड़ी देर में दूसरा कंधा दुखने लगता है, फिर कंधा बदल लेते हैं।

आदमी गुलामियों में कंधे बदल रहा है। अगर गांधी से छूटता है तो माक्र्स से जकड़ जाता है; अगर महावीर से छूटता है तो मोहम्मद को पकड़ लेता है; अगर एक वाद से छूटता है तो फौरन पहले इंतजाम कर लेता है कि किसको पकडूंगा!

लोग मेरे पास पूछने आते हैं–कि आप कहते हैं यह गलत है; वह गलत है। आप हमें यह बताइए कि सही क्या है?

वे असल में यह पूछ रहे हैं कि फिर हम पकड़ें क्या, वह हमें बताइए। जब तक हमें पकड़ने को न हो, तब तक हम छोड़ेंगे नहीं!

और मैं आपसे कह रहा हूं, पकड़ना गलत है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्या पकड़ें। मैं आपसे कह रहा हूं, पकड़ना गलत है–क्लिंगिंग एज सच! वह गांधी से है, बुद्ध से है या मुझसे है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी से भी है! पकड़ने वाले चित्त का स्वरूप एक ही है कि पकड़ने वाला चित्त खाली नहीं रहना चाहता। वह चाहता है कहीं न कहीं मेरी मुट्ठी बंधी रहनी चाहिए। मुझे कोई सहारा होना चाहिए। और जब तक कोई आदमी किसी के साथ सहारा खोजता है, तब तक उसकी आत्मा के पंख खुलने की स्थिति में नहीं आते हैं। जब आदमी बेसहारा हो जाता है, सारे सहारे छोड़ देता है, सब सहारे छोड़ देता है, हेल्पलेस खड़ा हो जाता है, और जानता है कि मैं अकेला हूं–और यही सच है कि एक-एक आदमी बिलकुल अकेला है–जिस दिन आदमी इस बात की तैयारी कर लेता है कि मैं अकेला हूं और जिस दिन मान लेता है कि खुले आकाश में कोई चरण-चिह्न नहीं हैं…।

कहां हैं महावीर के चरण-चिह्न जिन पर आप चल रहे हैं? कहां हैं कृष्ण के चरण-चिह्न? जीवन में कहीं कोई चिह्न नहीं बनते। सिर्फ आपकी स्मृति में कल्पना और खयाल है। किसको पकड़े हैं आप? कहां है कृष्ण का हाथ? कहां हैं गांधी के चरण जिनको आप पकड़े हैं? सिर्फ आंख बंद करके सपना देख रहे हैं! सपने देखने से कोई आदमी मुक्त नहीं होता। न गांधी के चरण आपके हाथ में हैं, न कृष्ण के, न राम के। कोई चरण आपके हाथ में नहीं हैं। आप अकेले खड़े हैं। आंख बंद करके कल्पना कर रहे हैं कि मैं किसी को पकड़े हूं। जितनी देर तक आप यह कल्पना किए हुए हैं, उतनी देर तक आपकी अपनी आत्मा के जागरण का अवसर पैदा नहीं होगा। और तब तक आपके जीवन में वह क्रांति नहीं हो सकती, जो आपको सत्य के निकट ले आए। न जीवन में वह क्रांति हो सकती है कि जीवन के सारे पर्दे खुल जाएं, उसका रहस्य खुल जाए, उसकी मिस्ट्री खुल जाए और आप जीवन को जान सकें और देख सकें।

बंधा हुआ आदमी आंख पर चश्मे लगाए हुए जीता है। खिड़कियों में से, छेदों में से देखता है दुनिया को। जैसे कोई एक छेद कर ले दीवाल में और उसमें से देखे आकाश को! उसे जो भी दिखाई पड़ेगा, वह उस छेद की सीमा से बंधा होगा, वह आकाश नहीं होगा। जिसे आकाश देखना है, उसे दीवालों के बाहर आ जाना चाहिए।

और कई बार कितनी छोटी चीजें बांध लेती हैं, हमें पता भी नहीं होता!

रवींद्रनाथ एक रात नाव में यात्रा कर रहे थे। छोटी सी मोमबत्ती जला कर कोई किताब पढ़ते रहे थे। आधी रात को थक गए, तब मोमबत्ती फूंक मार कर बुझा दी, किताब बंद की–एकदम देख कर हैरान हो गए! वह छोटा सा बजरा, नाव, उसमें बैठे थे। जैसे ही मोमबत्ती बुझी–चारों तरफ से पूर्णिमा की रात थी बाहर, उस मोमबत्ती के कारण पता ही नहीं चलता था कि बाहर पूर्णिमा की रात भी है। छोटी सी मोमबत्ती इतने बड़े चांद को रोक सकती है! मोमबत्ती के बुझते ही सारे चांद की किरणें बजरे के रंध्र-रंध्र, छिद्र-छिद्र से, खिड़की से, द्वार से भीतर आकर नाचने लगीं। रवींद्रनाथ भी उन किरणों के साथ खड़े होकर नाचने लगे। उस रात उन्होंने एक गीत गाया और उस गीत में कहा कि मैं कैसा पागल था! एक छोटी सी मोमबत्ती के प्रकाश में, मद्धिम, धीमे, गंदे प्रकाश में बैठा रहा। और चांद का प्रकाश बाहर बरसता था, उसका मुझे कुछ पता ही न था। मैं अपनी मोमबत्ती से ही बंधा रहा। जब मोमबत्ती बुझ गई, तब मुझे पता चला कि बाहर द्वार पर अनंत आलोक भी प्रतीक्षा करता था। मोमबत्ती के बुझते ही वह भीतर आ गया।

जो आदमी भी मत की, सिद्धांत की, शास्त्र की मोमबत्तियों को जलाए बैठे रहते हैं, वे परमात्मा के अनंत प्रकाश से वंचित रह जाते हैं। मत बुझ जाए, तो सत्य प्रवेश करता है। और जो आदमी सब पर पकड़ छोड़ देता है, उस पर परमात्मा की पकड़ शुरू हो जाती है। जो आदमी सब सहारे छोड़ देता है, उसे परमात्मा का सहारा उपलब्ध हो जाता है।

बेसहारा होना परमात्मा का सहारा पा लेने का रास्ता है। सब रास्ते छोड़ देना, उसके रास्ते पर खड़े हो जाने की विधि है। सब शब्द, सब सिद्धांतों से मुक्त हो जाना, उसकी वाणी को सुनने का अवसर निर्मित करना है।

मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, कृष्ण भोजन करने बैठे हैं, रुक्मणि पंखा झलती थीं। अचानक वे थाली छोड़ कर उठ पड़े, द्वार की तरफ भागे। रुक्मणि ने कहा, क्या हुआ है? कहां भागते हैं? लेकिन शायद इतनी जल्दी थी कि वे उत्तर देने को भी रुके नहीं, द्वार तक गए पागल की तरह भागते हुए, फिर द्वार पर ठिठक कर खड़े हो गए, फिर उदास वापस लौट आए, फिर थाली पर बैठ गए। रुक्मणि ने पूछा, मुझे बहुत हैरानी में डाल दिया! एक तो पागल की भांति भागना बीच भोजन में, मैंने पूछा तो उत्तर भी नहीं दिया! फिर द्वार से वापस भी लौट आना! क्या था प्रयोजन?

कृष्ण ने कहा, बहुत जरूरत आ गई थी। मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा है। राजधानी के लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। उसके माथे से खून बह रहा है। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया है। उसके कपड़े उन्होंने फाड़ डाले हैं। भीड़ उसे घेर कर पत्थरों से मारे डाल रही है। और वह खड़ा हुआ गीत गा रहा है। न वह गालियों के उत्तर दे रहा है, न पत्थरों के उत्तर दे रहा है। जरूरत पड़ गई थी कि मैं जाऊं, क्योंकि वह कुछ भी नहीं कर रहा है, वह बिलकुल बेसहारा खड़ा है। मेरी एकदम जरूरत पड़ गई थी।

रुक्मणि ने पूछा, लेकिन आप लौट कैसे आए? द्वार से वापस आ गए हैं!

कृष्ण ने कहा कि द्वार तक गया, तब तक सब गड़बड़ हो गई। वह आदमी बेसहारा न रहा। उसने पत्थर अपने हाथ में उठा लिया। अब वह खुद ही पत्थर का उत्तर दे रहा है। अब मेरी कोई जरूरत न रही। मैं वापस लौट आया। वह आदमी खुद ही सहारा खोज लिया है। अब वह बेसहारा नहीं है।

यह कहानी सच हो कि झूठ। इस कहानी के सच और झूठ होने से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन एक बात मैं अपने अनुभव से कहता हूं, जिस दिन आदमी बेसहारा हो जाता है, उसी दिन परमात्मा के सारे सहारे उसे उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन हम इतने कमजोर हैं, हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम कोई न कोई सहारा पकड़े रहते हैं। और जब तक हम सहारा पकड़े रहते हैं तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं हो सकता है।

स्वतंत्र हुए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं है। और सारी जंजीरों को तोड़े बिना कोई परमात्मा के द्वार पर अंगीकार नहीं होता है।

लेकिन हम कहेंगे–महापुरुषों को कैसे छोड़ दें? गांधी इतने प्यारे हैं, उनको कैसे छोड? दें?

कौन कहता है गांधी प्यारे नहीं हैं? कौन कहता है महावीर प्यारे नहीं हैं? कौन कहता है कृष्ण प्यारे नहीं हैं? प्यारे हैं, यही तो मुश्किल है। इसी से छोड़ना मुश्किल हो जाता है। लेकिन इन प्यारों को भी छोड़ देना पड़ता है, तभी वह जो परम प्यारा है वह उपलब्ध होता है।

महात्मा, परमात्मा और मनुष्य की आत्मा के बीच में खड़े हैं। महात्मा अपनी इच्छा से नहीं खड़े हुए हैं। हमने जिनको महात्मा समझ लिया है, उनको खड़ा कर लिया है। और वे हमारे लिए दीवाल बन गए हैं। व्यक्तियों से मुक्त होने की जरूरत है, ताकि वह जो अव्यक्ति है, वह जो महाव्यक्ति है, उसके और हमारे बीच कोई बाधा न रह जाए। शब्दों और सिद्धांतों से मुक्त होने की जरूरत है, ताकि सत्य जैसा है वैसा हम देख सकें। अभी हम सत्य को वैसा ही देखते हैं जैसा हम देखना चाहते हैं। हमारी इच्छा काम करती है, हमारी मान्यता काम करती है, हमारे चश्मे काम करते हैं। हम वही देखना चाहते हैं, वही देख लेते हैं। जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और जो है, वही सत्य है।

कौन देख पाएगा उसे जो है? उसे वही देख पाता है, जिसका अपना देखने का कोई आग्रह नहीं, कोई मत नहीं, कोई पंथ नहीं। जिसकी आंखों पर कोई चश्मा नहीं। जो सीधा नग्न, शून्य, निर्वस्त्र–बिना सिद्धांतों के खड़ा है। उसे वही दिखाई पड़ता है, जो है। और वह जो है, मुक्तिदायी है। वह जो है, उसी का नाम जीवन है। वह जो है, उसी का नाम परमात्मा है।

यह पहला सूत्र ध्यान में रखना जरूरी है: अपने को बांधें मत। और जहां-जहां बंधे हों, कृपा करें वहां से छूट जाएं। और यह मत पूछें कि छूटने के लिए क्या करना पड़ेगा। छूटने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि महापुरुष आपको नहीं बांधे हुए हैं कि आपको कुछ करना पड़े। आप ही उनको पकड़े हुए हैं। छोड़ दिया, और वे गए। और कुछ भी नहीं करना है। अगर कोई दूसरा आपको बांधे हो, तो कुछ करना पड़ेगा। आप ही अगर पकड़े हों, तो जान लेना पर्याप्त है–और छूटना शुरू हो जाता है।

कोई गांधी गांधीवादियों को नहीं बांधे हुए हैं। गांधी तो जिंदगी भर कोशिश करते रहे कि गांधीवाद जैसी कोई चीज खड़ी न हो जाए। लेकिन गांधीवादी बिना गांधीवाद खड़े किए कैसे रह सकते हैं! फिर बंधें किससे? वाद चाहिए, जिससे बंधा जा सके। अब वे उससे बंध गए हैं। अब उनसे पूछो, तो वे कहेंगे–कैसे छूटें?

अगर आप पूछते हैं कैसे छूटें, तो फिर आप समझे नहीं। कोई दूसरा आपको बांधे हुए नहीं है। कृष्ण हिंदुओं को नहीं बांधे हुए हैं, और न मोहम्मद मुसलमानों को, और न महावीर जैनों को। कोई किसी को बांधे हुए नहीं है। ये तो वे सारे लोग हैं जो छुटकारा चाहते हैं कि हर आदमी छूट जाए। लेकिन हम उनकी छायाओं को पकड़े हैं और बंधे हैं। हमें कोई बांधे हुए नहीं है, हम बंधे हुए हैं। और अगर हम बंधे हुए हैं, तो बात साफ है: हम छूटना चाहें तो एक क्षण भी छोड़ने के लिए–एक क्षण भी गंवाने की जरूरत नहीं है। आप इस भवन के भीतर बंधे हुए आए थे। इस भवन के बाहर मुक्त होकर जा सकते हैं।

मैं अभी ग्वालियर में था कुछ एक-डेढ़ वर्ष पहले। ग्वालियर के एक मित्र ने मुझे फोन किया कि मैं अपनी बूढ़ी मां को भी आपकी सभा में लाना चाहता हूं। लेकिन मैं डरता हूं। क्योंकि उसकी उम्र कोई नब्बे वर्ष है। चालीस वर्षों से वह दिन-रात माला फेरती रहती है। सोती है, तो भी रात उसके हाथ में माला होती है। और आपकी बातें कुछ ऐसी हैं कि कहीं उसको चोट न लगे। इस उम्र में उसको लाना उचित है या नहीं?

मैंने उन मित्र को खबर की कि आप जरूर ले आएं। क्योंकि इस उम्र में अगर न लाए, तो हो सकता है दुबारा मैं आऊं और आपकी मां से मेरा मिलना भी न हो पाए। इसलिए जरूर ले आएं। आप चाहे आएं या न आएं, मां को जरूर ले आएं!

वे मां को लेकर आए। दूसरे दिन मुझे उन्होंने खबर की कि बड़ी चमत्कार की बात हो गई है! जब मैं आया, और आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे, तो मैं समझा कि यह तो आपको खबर करना ठीक नहीं हुआ। मैंने आपसे कहा कि मेरी मां माला फेरती है और आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे, तो मुझे लगा कि आप मेरी मां को ही ध्यान में रख कर बोल रहे हैं। उसको नाहक चोट लगेगी, नाहक दुख होगा। मैं डरा, रास्ते में गाड़ी में मैंने पूछा भी नहीं कि तेरे मन पर क्या असर हुआ है। घर जाकर मैंने पूछा कि कैसा लगा? तो मेरी मां ने कहा, कैसा लगा? मैं माला वहीं मीटिंग में ही छोड़ आई हूं! चालीस साल का मेरा भी अनुभव कहता है कि माला से मुझे कुछ भी नहीं मिला। लेकिन मैं इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि उसे छोड़ दूं। वह मुझे बात खयाल आ गई, माला तो मुझे पकड़े हुए नहीं थी, मैं ही उसे पकड़े हुए थी। मैंने उसे छोड़ दिया, वह छूट गई!

तो आप यह मत पूछना कि कैसे हम छोड़ दें। कोई आपको पकड़े हुए नहीं है, आप ही मुट्ठी बांधे हुए हैं। खोल दें, और वह छूट जाएगी। और छूटते ही आप पाएंगे कि चित्त हलका हो गया, निर्भार हो गया, वह तैयार हो गया है एक यात्रा के लिए।

इन चार दिनों में उस यात्रा के और सूत्रों पर हम बात करेंगे, लेकिन पहला सूत्र है: नो क्लिंगिंग, कोई पकड़ नहीं। कोई पकड़ नहीं, गैर-पकड़, ना-पकड़! सब पकड़ छोड़ देना है। छोड़ते ही मन तैयार हो जाता है। छोड़ते ही मन पंख फैला देता है। छोड़ते ही मन सत्य की यात्रा के लिए आकांक्षा करने लगता है।

क्योंकि जो मत से बंधे हैं, वे डरते हैं सत्य को जानने से। क्योंकि जरूरी नहीं कि सत्य उनके मत के पक्ष में हो। मतवादी हमेशा सत्य को जानने से डरता है। क्योंकि यह जरूरी नहीं कि सत्य उनके मत के पक्ष में हो, सत्य विपरीत भी पड़ सकता है। और मतवादी अपने मत को नहीं छोड़ना चाहता, इसलिए सत्य को जानने से ही बचता है।

मैं निरंतर कहता हूं, दो तरह के लोग हैं दुनिया में। एक वे लोग हैं, जो चाहते हैं, सत्य हमारे पीछे चले। मतवादी सत्य को अपने पीछे चलाना चाहता है। वह कहता है कि मेरा मत सही है, सत्य इसको सिद्ध करे! लेकिन मतवादी सत्यवादी नहीं है। सत्यवादी कहता है, मैं सत्य के पीछे खड़ा हो जाऊंगा।

लेकिन जिसको सत्य के पीछे खड़ा होना है, उसे मत छोड़ देना पड़ेगा। नहीं तो मत बाधा देगा, रोकेगा, अड़चन डालेगा। अगर आप हिंदू हैं, तो आप धार्मिक नहीं हो सकते हैं। अगर आप ईसाई हैं, तो आप धार्मिक नहीं हो सकते हैं। अगर धार्मिक होना है, तो ईसाई, हिंदू और मुसलमान से मुक्ति आवश्यक है। अगर जीवन के सत्य को जानना है, तो जीवन के संबंध में जो भी मत पकड़ा है, उससे मुक्ति आवश्यक है।

वह बूढ़ी औरत अदभुत थी। छोड़ गई माला। माला की कीमत चार आना तो रही ही होगी। आप जो सिद्धांत पकड़े हैं, उनकी कीमत चार आना भी नहीं है। उनको ऐसे ही छोड़ा जा सकता है हाथ से नीचे! और छोड़ कर आप मंहगाई में नहीं पड़ जाएंगे, नुकसान में नहीं पड़ जाएंगे। छोड़ते ही आप पाएंगे कि जो छूट गया है, वह सत्य की तरफ जाने में बाधा था। और पहली बार आंख खुलेगी कि मैं जीवन को वैसा देख सकूं जैसा वह है।

यह पहला सूत्र है। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों वे आप लिखित दे देंगे, और भी जो प्रश्न हों वे लिखित दे देंगे, ताकि सुबह की चर्चाओं में आपके प्रश्नों की बात हो सके। और सांझ को मैं और सूत्रों की बात करूंगा।

 

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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रचनाएँ
संभोग से समाधि की ओर- ओशो
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'संभोग से समाधि की ओर' ओशो की सबसे चर्चित और विवादित किताब है, जिसमें ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है। साथ ही यह किताब काम और उससे संबंधित सभी मान्यताओं और धारणाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है। ओशो कहते हैं।''जो उस मूलस्रोत को देख लेता है...., यह बुद्ध का वचन बड़ा अद्भुत है : 'वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। ' वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है। जिसको मैने 'संभोग से समाधि की ओर' कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं। एक तो रति है मनुष्य की-सी और पुरुष की।
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संभोग से समाधि की ओर (पहला प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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संभोग से समाधि की ओर (दूसरा प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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संभोग: अहं-शून्यता की झलक मेरे प्रिय आत्मन्! एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़

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संभोग से समाधि की ओर (चौथा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! एक छोटा सा गांव था। उस गांव के स्कूल में शिक्षक राम की कथा पढ़ाता था। करीब-करीब सारे बच्चे सोए हुए थे। राम की कथा सुनते समय बच्चे सो जाएं, यह आश्चर्य नहीं। क्योंकि राम की कथा सुनते

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संभोग से समाधि की ओर (पांचवा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि मैंने बोलने के लिए सेक्स या काम का विषय क्यों चुना है? इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को

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संभोग से समाधि की ओर (छठा प्रवचन)

26 अक्टूबर 2021
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संभोग से समाधि की ओर (सातवां प्रवचन)

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युवक और यौन एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक मुसलमान फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्हीं मित्रों से मिलन

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संभोग से समाधि की ओर (चौदवां प्रवचन)

28 अक्टूबर 2021
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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 2)

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जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं, तो वह मिलन एक स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है, एक आध्यात्मिक कृत्य हो जाता है। फिर उसका सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, व

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 1)

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पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 2)

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गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा ह

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

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विद्रोह क्‍या है हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है। और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा सम

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संभोग से समाधि कि ओर (ग्‍याहरवां प्रवचन)

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युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है? युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा है। उम्र का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-12)

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मेरे प्रिय आत्मन्! व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते ह

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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

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मेरे प्रिय आत्मन्! जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है। पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति। दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति। और

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-18)

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तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में। पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नही

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