मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोटा सा अनुभव है, जो मनुष्य को ज्ञात है और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है। जिसके जीवन में प्रेम की भी कोई झलक नहीं है, उसके जीवन में परमात्मा के आने की कोई संभावना नहीं है।
न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती हैं, न धर्मशास्त्र पहुंचा सकते हैं, न मंदिर-मस्जिद पहुंचा सकते हैं, न कोई संगठन हिंदू और मुसलमानों के और ईसाइयों और पारसियों के पहुंचा सकते हैं। एक ही बात परमात्मा तक पहुंचा सकती है और वह यह है कि प्राणों में प्रेम की ज्योति का जन्म हो जाए।
मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते रहे हैं। जिन्हें हम धर्मगुरु कहें, वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते रहे हैं। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहें, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गए हैं।
और जो परमात्मा तक पहुंचा सकता था, वह प्रेम अत्यंत उपेक्षित, अत्यंत निग्लेक्टेड, जीवन के रास्ते के किनारे कहीं अंधेरे में पड़ा रह गया है। इसलिए पांच हजार वर्षों से आदमी प्रार्थनाएं कर रहा है, पांच हजार वर्षों से आदमी भजन-पूजन कर रहा है, पांच हजार वर्षों से मंदिरों और मस्जिदों की मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है, लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी। परमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ में रह गई हैं, और आदमी रोज-रोज नीचे गिरता गया है, रोज-रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ में रह गए हैं, सच्चाइयां अत्यंत दुखपूर्ण होती चली गई हैं। और आज तो आदमी करीब-करीब ऐसी जगह खड़ा हो गया है, जहां उसे यह खयाल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा भी हो सकता है।
क्या आपने कभी सोचा कि यह घटना कैसे घट गई है? क्या नास्तिक इसके लिए जिम्मेवार हैं कि लोगों की आकांक्षा और अभीप्सा ने परमात्मा की दिशा की तरफ जाना बंद कर दिया है? क्या वे लोग इसके लिए जिम्मेवार हैं–वैज्ञानिक और भौतिकवादी और मैटीरियलिस्ट–उन्होंने परमात्मा के द्वार बंद कर दिए हैं?
नहीं, परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गए हैं कि परमात्मा का एक ही द्वार था–प्रेम, और वह प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान ही नहीं रहा है! और भी अजीब और कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गई है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने ही मिल-जुल कर प्रेम की हत्या कर दी है। और मनुष्य के जीवन को इस भांति सुव्यवस्थित करने की कोशिश की गई है कि उसमें प्रेम की किरण की संभावना ही न रह जाए।
नारी समाज की इस बैठक में मैं इस प्रेम के संबंध में थोड़ी सी बात कहना चाहता हूं, क्योंकि इसके अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है कि कोई प्रभु तक कैसे पहुंच सकता है। और इतने लोग जो वंचित हो गए हैं प्रभु तक पहुंचने से, वह इसीलिए कि वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित हो गए हैं।
समाज की पूरी की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र अप्रेम का केंद्र है। बच्चे के कंसेप्शन से लेकर, उसके गर्भाधारण से लेकर उसकी मृत्यु तक की सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को, इसी परिवार को, इसी गृहस्थी को सम्मान किए जाते हैं, आदर दिए जाते हैं, शोरगुल मचाए चले जाते हैं कि यह बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ी पवित्र समाज है, बड़ा पवित्र जीवन है। और यही परिवार और यही समाज और यही सभ्यता, जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं, यही सभ्यता और यही समाज और यही परिवार मनुष्य को परमात्मा से रोकने का कारण बन रहा है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा।
मनुष्यता के विकास में कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले। कोई कृष्ण, कोई राम, कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाए, यह कोई सवाल नहीं है। अरबों-खरबों लोगों में अगर एक आदमी के जीवन में ज्योति उतर आती हो, तो यह कोई विचार करने की बात भी नहीं है, इस पर कोई हिसाब रखने की भी जरूरत नहीं है।
एक माली एक बगीचा लगाए, उसमें दस करोड़ पौधे लगाए और एक पौधे में एक छोटा सा फूल आ जाए, तो उस माली की प्रशंसा करने कौन जाएगा? कौन कहेगा कि माली, तू बहुत कुशल है! तूने जो बगीचा लगाया है, वह बहुत अदभुत है! देख, दस करोड़ वृक्षों में एक फूल खिल गया है!
हम कहेंगे कि यह माली की कुशलता का सबूत नहीं है–यह फूल खिल जाना। माली की भूल-चूक से खिल गया होगा। क्योंकि बाकी सारे पेड़ खबर दे रहे हैं कि माली कितना कुशल है। यह इंस्पाइट, यह माली के बावजूद खिल गया होगा फूल। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाए, क्योंकि सारे पौधे तो खबर दे रहे हैं कि माली के फूल कैसे खिले हुए हैं!
अरबों लोगों के बीच कभी एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती है और हम उसी का शोरगुल मचाते रहते हैं हजारों साल तक, उसी की पूजा करते रहते हैं, उसी के मंदिर बनाते रहते हैं, उसी का गुणगान करते रहते हैं। अब तक हम रामलीला कर रहे हैं। अब तक बुद्ध की जयंती मना रहे हैं। अब तक महावीर की पूजा कर रहे हैं। अब तक क्राइस्ट के सामने घुटने टेके बैठे हुए हैं।
यह किस बात का सबूत है? यह इस बात का सबूत है कि पांच हजार साल में पांच-छह आदमियों के अतिरिक्त आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सका है। नहीं तो कभी का हम भूल गए होते राम को, कभी का हम भूल गए होते बुद्ध को, कभी का हम भूल गए होते महावीर को। महावीर को हुए ढाई हजार साल हो गए। ढाई हजार साल में कोई आदमी नहीं हुआ कि महावीर को हम भूल सकते। महावीर को याद रखना पड़ा है। वह एक फूल खिला था, वह अब तक हमें याद रखना पड़ा है।
यह कोई गौरव की बात नहीं है कि हमको अब तक स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की, राम की, मोहम्मद की, क्राइस्ट की या जरथुस्त्र की। यह इस बात का सबूत है कि आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भुला सकें। बस दो-चार इने-गिने नाम अटके रह गए हैं मनुष्य-जाति की स्मृति में।
और उन नामों के पास भी हमने क्या किया है सिवाय उपद्रव के, हिंसा के? और उनकी पूजा करने वाले लोगों ने क्या किया है–सिवाय आदमी के जीवन को नरक बनाने के और क्या किया है? मस्जिदों और मंदिरों के पुजारियों ने और पूजकों ने जमीन पर जितनी हत्या की है और जितना खून बहाया है और जीवन का जितना अहित किया है, उतना किसी ने भी नहीं किया है।
जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गई है। नहीं तो इतने पौधे लगें और फूल न आएं, यह बड़े आश्चर्य की बात है! कहां भूल हो गई है?
मेरी दृष्टि में, मनुष्य के जीवन का केंद्र ही अब तक प्रेम नहीं बनाया जा सका, इसलिए भूल हो गई है। और वह प्रेम केंद्र बनेगा भी नहीं, क्योंकि जिन चीजों के कारण वह प्रेम जीवन का केंद्र नहीं बन रहा है, हम उन्हीं चीजों का शोरगुल मचा रहे हैं, आदर कर रहे हैं, सम्मान कर रहे हैं–तो कैसे होगा?
मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ही गलत हो गई है। इस पर पुनर्विचार करना जरूरी है। अन्यथा सिर्फ हम कामनाएं कर सकते हैं और कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है।
क्या गलत हो गया है? क्या आपको कभी यह बात खयाल में आई कि आपका परिवार प्रेम का शत्रु है? क्या आपको कभी यह बात खयाल में आई कि आपका समाज प्रेम का शत्रु है? क्या आपको यह बात कभी खयाल में आई कि मनु से लेकर आज तक के सभी नीतिकार प्रेम के विरोधी हैं?
जीवन का केंद्र है परिवार। और परिवार विवाह पर खड़ा किया गया है; जब कि परिवार प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गई, आदमी के सारे पारिवारिक विकास की बुनियादी भूल हो गई। परिवार निर्मित होना चाहिए प्रेम के केंद्र पर, और परिवार निर्मित किया जाता है विवाह के केंद्र पर! इससे ज्यादा झूठी और मिथ्या बात नहीं हो सकती।
प्रेम और विवाह का क्या संबंध है?
प्रेम से तो विवाह निकल सकता है, लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और नहीं निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें।
प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है और विवाह आदमी की व्यवस्था है।
विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है।
प्रेम तो प्राणों के किसी कोने में अनजाने, अपरिचित पैदा होता है।
और विवाह? विवाह समाज, कानून नियमित करता है, स्थिर करता है, बनाता है।
विवाह आदमी की ईजाद है।
और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है।
हमने सारे परिवार को विवाह के केंद्र पर खड़ा कर दिया है, प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जाएंगे। अदभुत झूठी बात है! और पांच हजार वर्षों में भी हमको इसका खयाल नहीं आ सका, हम अदभुत अंधे हैं! दो आदमियों को साथ बांध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते हैं, वे आपस में प्रेम कभी भी नहीं कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में–जहां कोई बंधन नहीं है, जहां कोई जबरदस्ती नहीं है, जहां कोई कानून नहीं है। प्रेम तो व्यक्ति का अपना आत्मदान है–बंधन नहीं, जबरदस्ती नहीं। उसके पीछे कोई कानून नहीं, कोई नियम नहीं।
लेकिन हमने आज तक की मनुष्यता की सभ्यता को–सारी दुनिया में–प्रेम से वंचित कर दिया। शुरू किरण जो प्रेम की पैदा होती है स्त्री या पुरुष के मन में, युवक और युवती के मन में, उस पहली किरण की ही हम गला घोंट कर हत्या कर देते हैं। हम कहते हैं, विवाह, प्रेम नहीं। और फिर हम कहते हैं, विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए।
फिर जो प्रेम पैदा होता है, वह बिलकुल पैदा किया होता है, कल्टीवेटेड होता है, कोशिश से लाया गया होता है। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता। वह प्रेम स्पांटेनिअस नहीं होता। वह प्रेम प्राणों से सहज उठता नहीं, फैलता नहीं। और जिसे हम विवाह से उत्पन्न प्रेम कहते हैं, वह प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है। प्राणों की ललक और प्राणों का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है।
फिर यह परिवार बनता है–यह विवाह से पैदा हुआ परिवार। और परिवार की पवित्रताओं की कथाओं का हिसाब नहीं है! और परिवार की प्रशंसाओं की, स्तुतियों की भी कोई गणना नहीं है! और परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है पूरे मनुष्य को विकृत करने में, परवर्टेड करने में। प्रेम से शून्य परिवार मनुष्य को विकृत करने में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में सबसे बड़ी संस्था साबित हुई है। प्रेम से शून्य परिवार से ज्यादा अग्ली और कुरूप कुछ भी नहीं है, और वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है।
क्यों? जब एक बार एक युवक और युवती को हम विवाह में बांध देते हैं–बिना प्रेम के, बिना आंतरिक परिचय के, बिना एक-दूसरे के प्राणों के संगीत के–जब हम केवल धागों में और पंडित के मंत्रों में और वेदी की पूजा में और थोथे उपक्रम में उनको विवाह में बांध देते हैं, और फिर आशा करते हैं उनको साथ छोड़ कर कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जाएगा! प्रेम पैदा नहीं होता, सिर्फ उनके संबंध कामुक होते हैं, सेक्सुअल होते हैं, और कोई संबंध नहीं होते। और जब उनका प्रेम पैदा नहीं हो पाता है…क्योंकि प्रेम पैदा किया नहीं जा सकता। प्रेम पैदा हो जाए तो दो व्यक्ति साथ जुड़ कर परिवार का निर्माण कर सकते हैं। लेकिन दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाए और फिर आशा की जाए कि प्रेम पैदा हो जाए, यह नहीं हो सकता। और जब प्रेम पैदा नहीं होता है तो क्या परिणाम घटित होते हैं, आपको पता है?
एक-एक परिवार कलह है। जिसको गृहस्थी हम कहते हैं, वह संघर्ष, कलह, द्वेष,र् ईष्या और चौबीस घंटे के उपद्रव का अड्डा बना हुआ है। लेकिन न मालूम हम कैसे अंधे हैं कि इसे हम देखते भी नहीं! बाहर जब हम निकलते हैं तो हम मुस्कुराते हुए निकलते हैं। सब घर के आंसू पोंछ कर बाहर आ जाते हैं। पत्नी भी हंसती हुई मालूम पड़ती है, पति भी हंसता हुआ मालूम पड़ता है।
ये चेहरे झूठे हैं। ये दूसरों को दिखाई पड़ने वाले चेहरे हैं। घरों के भीतर के चेहरे बहुत आंसुओं से भरे हुए हैं। चौबीस घंटे कलह और संघर्ष में जीवन बीत रहा है। फिर इस कलह और संघर्ष के परिणाम होंगे। दो परिणाम होंगे। एक तो परिणाम यह होगा कि प्रेम के अतिरिक्त किसी व्यक्ति के जीवन में फुलफिलमेंट, आत्मतृप्ति नहीं उपलब्ध होती। प्रेम जो है, वह व्यक्तित्व की तृप्ति का चरम बिंदु है। और जब प्रेम नहीं मिलता तो व्यक्तित्व हमेशा अनफुलफिल्ड, हमेशा अधूरा, बेचैन, तड़फता हुआ, मांग करता हुआ कि मुझे पूर्ति चाहिए, हमेशा बेचैन, तड़फता हुआ रह जाता है। यह तड़फता हुआ व्यक्तित्व समाज में अनाचार पैदा करता है। क्योंकि यह तड़फता हुआ व्यक्तित्व प्रेम को खोजने निकलता है। विवाह में प्रेम नहीं मिलता। वह विवाह के अतिरिक्त प्रेम को खोजने की कोशिश करता है।
वेश्याएं पैदा होती हैं विवाह के कारण। विवाह है रूट, विवाह है जड़ वेश्याओं के पैदा होने की। और अब तक तो स्त्री वेश्याएं थीं, अब तो सभ्य मुल्कों में पुरुष वेश्याएं, मेल प्रास्टीटयूट्स भी उपलब्ध हैं। वेश्या पैदा होगी। क्योंकि परिवार में जो प्रेम उपलब्ध होना चाहिए था वह नहीं उपलब्ध हुआ है, आदमी दूसरे घरों में झांक रहा है उस प्रेम के लिए। वेश्याएं होंगी। और अगर वेश्याएं रोक दी जाएंगी तो दूसरे परिवारों में पीछे के द्वारों से प्रेम के रास्ते निर्मित होंगे। इसीलिए तो सारे समाज ने यह तय कर लिया है कि कुछ वेश्याएं निश्चित कर दो, ताकि परिवारों का आचरण सुरक्षित रहे। कुछ स्त्रियों को पीड़ा में डाल दो, ताकि बाकी स्त्रियां पतिव्रता बनी रहें और सती-सावित्री बनी रहें।
लेकिन जो समाज ऐसे अनैतिक उपाय खोजता है…वेश्या जैसा अनैतिक उपाय और क्या हो सकता है? इससे ज्यादा और इम्मॉरल क्या हो सकता है? जिस समाज को वेश्याओं जैसी अनैतिक संस्थाएं ईजाद करनी पड़ती हैं, जान लेना चाहिए कि वह पूरा समाज बुनियादी रूप से अनैतिक होगा। अन्यथा यह अनैतिक ईजादों की आवश्यकता नहीं थी।
वेश्या पैदा होती है, अनाचार पैदा होता है, व्यभिचार पैदा होता है, तलाक पैदा होते हैं। नहीं तलाक होता, नहीं अनाचार होता, नहीं व्यभिचार होता, तो घर एक चौबीस घंटे का मानसिक तनाव और एंग्जाइटी बन जाता है।
सारी दुनिया में पागलों की संख्या बढ़ती गई है। ये पागल परिवार के भीतर पैदा होते हैं।
सारी दुनिया में स्त्रियां हिस्टेरिक होती चली जा रही हैं, न्यूरोटिक होती चली जा रही हैं, विक्षिप्त, उन्माद से भरती चली जा रही हैं। बेहोश होती हैं, गिरती हैं, चिल्लाती हैं, रोती हैं। पुरुष पागल होते चले जा रहे हैं। एक घंटे में जमीन पर एक हजार आत्महत्याएं हो जाती हैं! और हम चिल्लाए जा रहे हैं कि यह समाज हमारा बहुत महान है, ऋषि-मुनियों ने इसे निर्मित किया है। और हम चिल्लाए जा रहे हैं कि बहुत सोच-समझ कर इस समाज के आधार रखे गए हैं। कैसे ऋषि-मुनि और कैसे ये आधार? अभी एक घंटा मैं बोलूंगा, तो इस बीच एक हजार आदमी कहीं छुरा मार लेंगे, कोई ट्रेन के नीचे लेट जाएंगे, कोई जहर पी लेंगे! उन एक हजार लोगों की जिंदगी कैसी होगी जो हर घंटे मरने को तैयार हो जाते हैं?
और आप यह मत सोचना कि जो नहीं मरते हैं वे बहुत सुखमय हैं। कुल जमा कारण यह है कि वे मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। सुख-वुख का कोई भी सवाल नहीं है। कावर्ड्स हैं, कायर हैं, मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, तो जीए चले जाते हैं, धक्के खाए चले जाते हैं और जीए चले जाते हैं। सोचते हैं, आज गलत है, तो कल सब ठीक हो जाएगा, परसों सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मस्तिष्क उनके रुग्ण होते चले जाते हैं।
प्रेम के अतिरिक्त कोई आदमी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। प्रेम जीवन में न हो तो मस्तिष्क होगा रुग्ण, चिंता से भरेगा, तनाव से भरेगा। आदमी शराब पीएगा, नशे करेगा, कहीं जाकर अपने को भूल जाना चाहेगा कि यह सब मैं भूल जाऊं। दुनिया में बढ़ती हुई शराब शराबियों के कारण नहीं है। परिवार उस हालत में ला दिया है लोगों को कि बिना बेहोश हुए थोड़ी देर के लिए भी राहत मिलना मुश्किल हो गई है। तो लोग शराब पीते चले जाएंगे, लोग बेहोश पड़े रहेंगे, लोग हत्या करेंगे, लोग पागल हो जाएंगे।
अमेरिका में प्रतिदिन तीस लाख आदमी अपना मानसिक इलाज करवा रहे हैं। और ये सरकारी आंकड़े हैं! और आप भलीभांति जानते हैं, सरकारी आंकड़े कभी भी सही नहीं होते। तीस लाख सरकार कहती है, तो कितने लोग इलाज करा रहे होंगे, यह कहना मुश्किल है। और जो अमेरिका की हालत है, वह सारी दुनिया की हालत है। आधुनिक युग के मनसविद यह कहते हैं कि करीब-करीब चार आदमियों में तीन आदमी एबनार्मल हो गए हैं। चार आदमियों में तीन आदमी रुग्ण हो गए हैं, स्वस्थ नहीं हैं।
तो जिस समाज में चार आदमियों में तीन आदमी मानसिक रूप से रुग्ण हो जाते हों, उस समाज की फाउंडेशंस को, उसकी बुनियादों को फिर से सोच लेना जरूरी है। नहीं तो कल चार आदमी ही रुग्ण हो जाएंगे और फिर सोचने वाले भी शेष नहीं रह जाएंगे। फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन होता ऐसा है कि जब एक ही बीमारी से सारे लोग ग्रसित होते हैं, तो उस बीमारी का पता नहीं चलता है। हम सब एक से रुग्ण, बीमार, परेशान, झूठी मुस्कुराहट से भरे हुए, तो हमें बिलकुल पता नहीं चलता। सभी ऐसे हैं, इसलिए एट ईज मालूम पड़ते हैं। जब सभी ऐसे हैं, तो ठीक है, ऐसे ही दुनिया चलती है, यही जीवन है। और जब इतनी पीड़ा दिखाई पड़ती है तो हम ऋषि-मुनियों के वचन दोहराते हैं कि वह तो ऋषि-मुनियों ने पहले ही कह दिया है कि जीवन दुख है।
यह जीवन दुख नहीं है, यह दुख हम बनाए हुए हैं।
वह तो पहले ही ऋषि-मुनियों ने कह दिया है कि जीवन तो असार है, इससे छुटकारा पाना चाहिए।
जीवन असार नहीं है, यह असार हमने बनाया हुआ है। और जीवन से छुटकारा पाने की बातें सब दो कौड़ी की हैं। क्योंकि जो आदमी जीवन से छुटकारा पाने की कोशिश करता है, वह प्रभु को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि जीवन प्रभु है, जीवन परमात्मा है। जीवन में परमात्मा ही तो प्रकट हो रहा है। उससे जो भागेगा दूर, वह परमात्मा से ही दूर चला जाएगा।
लेकिन जब एक ही बीमारी पकड़ती है, पता नहीं चलता।
एक गांव में ऐसा हुआ, एक जादूगर आया और उसने एक कुएं में एक पुड़िया डाल दी। और कहा कि इस कुएं का जो भी पानी पीएगा वह पागल हो जाएगा। उस गांव में दो ही कुएं थे। एक गांव का कुआं था और एक राजा के महल का कुआं था। शाम तक गांव के लोगों को पानी पीना पड़ा, वे सब पागल हो गए। सिर्फ राजा, उसकी रानी, उसके वजीर पागल नहीं हुए, क्योंकि उनका अपना अलग कुआं था। वजीर बहुत खुश थे, रानी बहुत नाचती थी, राजा बहुत प्रसन्न था कि हम बच गए, हमारा अलग कुआं है।
लेकिन सांझ होते-होते उन्हें पता चला कि बच कर बड़ी भूल हो गई। सारी राजधानी के लोगों ने महल घेर लिया। और वे चिल्लाने लगे कि राजा पागल हो गया! राजा को निकाल बाहर करो! गांव भर पागल हो गया था, उसको राजा पागल मालूम पड़ने लगा।
राजा बहुत घबड़ाया, उसने अपने वजीर को कहा, अब क्या होगा? उसके सिपाही भी पागल हो गए, उसके सैनिक भी पागल हो गए। उसके पहरेदार भी चिल्ला रहे हैं कि राजा पागल हो गया, इसको निकाल बाहर करो! हमको स्वस्थ राजा चाहिए।
वजीर ने कहा, अब एक ही रास्ता है कि हम जल्दी से भागें और पीछे के रास्ते से जाकर उस कुएं का पानी पी लें जिसका इन सब लोगों ने पानी पीया है।
राजा भागा और जाकर उस कुएं का पानी पी लिया।
उस रात उस गांव में बड़ा जलसा मनाया गया, एक शोभायात्रा निकली। सारे गांव के लोग आनंद से नाचने लगे कि राजा का दिमाग ठीक हो गया। वह राजा भी पागल हो गया था तो उनको पता चला कि इसका दिमाग ठीक हो गया।
जब एक सी बीमारी पकड़ती है तो किसी को पता नहीं चलता।
पूरी आदमियत जड़ से रुग्ण है, इसलिए पता नहीं चलता। फिर हम दूसरी तरकीबें खोजते हैं इलाज की। कॉजेलिटी जो है, बुनियादी कारण जो है, उसको सोचते नहीं; ऊपरी इलाज सोचते हैं। ऊपरी इलाज हम क्या सोचते हैं? एक आदमी शराब पीने लगता है जीवन से घबरा कर। एक आदमी जाकर नृत्य देखने लगता है, वेश्या के घर बैठ जाता है जीवन से घबरा कर। दूसरा आदमी सिनेमा में बैठ जाता है। तीसरा आदमी इलेक्शन लड़ने लगता है, ताकि भूल जाए सब। इस उपद्रव में लग जाए तो भूल जाए सब। चौथा आदमी जाकर मंदिर में बैठ कर भजन-कीर्तन करने लगता है। यह भजन-कीर्तन करने वाला भी खुद के जीवन को भूलने की कोशिश कर रहा है। यह कोई परमात्मा को पाने का रास्ता नहीं है।
परमात्मा तो जीवन में प्रवेश से उपलब्ध होता है, जीवन से भागने से नहीं। ये सब एस्केप हैं–कि एक आदमी मंदिर में भजन-कीर्तन कर रहा है, हिल-डुल रहा है। हम कह रहे हैं, भक्त जी बहुत आनंदित हो रहे हैं। भक्त जी आनंदित नहीं हो रहे हैं, भक्त जी किसी दुख से भागे हुए हैं, उसको भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। शराब का ही यह दूसरा रूप है। यह स्प्रिचुअल इंटाक्सिकेशन है, यह अध्यात्म के नाम से नई शराबें हैं, जो सारी दुनिया में चलती हैं। इन लोगों ने जीवन से भाग-भाग कर जिंदगी को बदला नहीं है आज तक; जिंदगी वैसी की वैसी दुख से भरी हुई है। और जब भी कोई दुखी हो जाता है, वह भी इनके पीछे चला जाता है कि हमको भी गुरुमंत्र दे दें, हमारा कान भी फूंक दें कि हम भी इसी तरह सुखी हो जाएं जैसे आप हो गए हो! लेकिन यह जिंदगी क्यों दुख पैदा कर रही है, इसको देखने के लिए, इसके विज्ञान को खोजने के लिए कोई भी जाता नहीं है।
मेरी दृष्टि में, जहां से शुरुआत होती है जीवन की, वहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। और वह गड़बड़ यह हो गई है कि हमने मनुष्य-जाति को प्रेम की जगह विवाह से थोप दिया है। फिर विवाह होगा और ये सारे रूप पैदा होंगे। और जब दो व्यक्ति एक-दूसरे से बंध जाते हैं और उनके जीवन में कोई शांति और तृप्ति नहीं मिलती, तो वे दोनों एक-दूसरे पर क्रुद्ध हो जाते हैं–कि तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल पा रही है! और वह कहता है, तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल पा रही है! वे एक-दूसरे को सताना शुरू करते हैं, परेशान करना शुरू करते हैं, हैरान करना शुरू करते हैं। और इसी हैरानी, इसी परेशानी, इसी कलह, इसी एंग्जाइटी के बीच बच्चों का जन्म होता है। ये बच्चे पैदाइश से ही परवर्टेड हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं।
मेरी समझ में, मेरी दृष्टि में, किसी दिन जब मनुष्य-जाति आदमी के पूरे विज्ञान पर…आदमी की तो पूरी साइंस भी खड़ी नहीं हो सकी है कि आदमी कैसा स्वस्थ और शांत हो! भजन-कीर्तन के विज्ञान विज्ञान नहीं हैं। जिस दिन आदमी पूरी तरह आदमी के विज्ञान को विकसित करेगा, तो शायद आपको पता लगे कि दुनिया में बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग शायद इसीलिए पैदा हो सके कि उनके मां-बाप ने जिस क्षण में संभोग किया था, उनके मां-बाप अपूर्व प्रेम से संयुक्त हुए थे। वह प्रेम के क्षण में कंसेप्शन हुआ था। यह किसी दिन, जिस दिन जनन-विज्ञान पूरा विकसित होगा, उस दिन शायद यह हमको पता चलेगा कि जो दुनिया में थोड़े से अदभुत लोग हुए हैं–शांत, आनंदित, प्रभु को उपलब्ध–वे वे ही लोग हैं, जिनका पहला अणु प्रेम की दीक्षा से उत्पन्न हुआ था, जिनका पहला जीवन-अणु प्रेम में सराबोर पैदा हुआ था।
पति और पत्नी कलह से भरे हुए हैं–क्रोध से,र् ईष्या से, एक-दूसरे के प्रति संघर्ष से, अहंकार से। एक-दूसरे की छाती पर चढ़े हुए पज़ेस कर रहे हैं, एक-दूसरे के मालिक बनना चाह रहे हैं, एक-दूसरे को डॉमिनेट करना चाह रहे हैं। इसी बीच उनके बच्चे पैदा हो रहे हैं। ये बच्चे किसी आध्यात्मिक जन्म में कैसे प्रवेश कर पाएंगे?
मैंने सुना है, एक घर में एक मां अपने छोटे बेटे और अपनी छोटी बेटी को–वे दोनों बेटे और बेटी बाहर मैदान में लड़ रहे थे, एक-दूसरे पर घूंसेबाजी कर रहे थे–उस मां ने उनसे कहा कि अरे, यह क्या करते हो? कितनी बार मैंने समझाया कि लड़ा मत करो, आपस में लड़ो मत!
उस लड़की ने कहा, मम्मी, वी आर नाट फाइटिंग, वी आर प्लेइंग मम्मी एंड डैडी। हम लड़ नहीं रहे हैं, हम तो मम्मी-डैडी का खेल कर रहे हैं। हम लड़ नहीं रहे हैं, हम तो मम्मी-डैडी का खेल दोहरा रहे हैं। जो घर में रोज हो रहा है, वह हम दोहरा रहे हैं।
यह खेल जन्म के क्षण से शुरू हो जाता है। इस संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी बहुत जरूरी हैं।
पहली बात: मेरी दृष्टि में, जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम के आधार पर मिलते हैं–उनका संभोग होता, उनका मिलन होता–तो उस परिपूर्ण प्रेम के तल पर उनके शरीर ही नहीं मिलते हैं, उनका मनस भी मिलता है, उनकी आत्मा भी मिलती है। वे एक लयपूर्ण संगीत में डूब जाते हैं, वे दोनों विलीन हो जाते हैं और शायद परमात्मा ही शेष रह जाता है उस क्षण में। और उस क्षण जिस बच्चे का गर्भाधान होता है, वह बच्चा परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि प्रेम के क्षण का पहला कदम उसके जीवन में उठा लिया गया।
लेकिन जो मां-बाप, जो पति और पत्नी आपस में द्वेष से भरे हैं, घृणा से भरे हैं, क्रोध से भरे हैं, कलह से भरे हैं, वे भी मिलते हैं, लेकिन उनके शरीर ही मिलते हैं, उनकी आत्मा और प्राण नहीं मिलते। और उनके शरीर के ऊपरी मिलन से जो बच्चे पैदा होते हैं, वे अगर मैटीरियलिस्ट पैदा होते हों, शरीरवादी पैदा होते हों, सेक्सुअल पैदा होते हों, बीमार और रुग्ण पैदा होते हों, उनके जीवन में अगर कोई आत्मा की प्यास पैदा न होती हो, तो दोष मत देना उन बच्चों पर। बहुत दिया जा चुका यह दोष। दोष देना उन मां-बाप पर, जिनकी छवि लेकर वे जन्मते हैं, और जिनके सब अपराध और जिनकी सब बीमारियां लेकर जन्मते हैं, और जिनका सब क्रोध और घृणा लेकर जन्मते हैं। जन्म के साथ ही उनका पौधा विकृत हो जाता है, परवर्शन शुरू हो जाता है। फिर इनको पिलाओ गीता, इनको समझाओ कुरान, इनसे कहो कि प्रार्थना करो, सब झूठी हो जाती हैं! क्योंकि प्रेम का बीज ही शुरू नहीं हो सका तो प्रार्थना कैसे शुरू हो सकती है?