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सोसाइटी

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सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो ! सुरपुरवास

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ? ज़ालिम, क्यो मुझसे पहले तू ही झूल गया ? आ, देख तो जा, तेरा यह अग्रज रोता है ! यम के फंदों में इतना क्या सचमुच आकर्षण होता है कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?

अब तक भी हम हैं अस्त-व्यस्त मुदित-मुख निगड़ित चरण-हस्त उठ-उठकर भीतर से कण्ठों में टकराता है हृदयोद्गार आरती न सकते हैं उतार युग को मुखरित करने वाले शब्दों के अनुपम शिल्पकार ! हे प्रेमचन्द यह भू

शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद कोटि-कोटि मतपत्र बन गए जादू वाले बाण मू

(एक) ऐसा तो कभी नहीं हुआ था ! महसूस करने लगीं वे एक अनोखी बेचैनी एक अपूर्व आकुलता उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर बार-बार उठने लगी टीसें लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण अंदर ही अंदर ऐसा तो कभी नहीं ह

देवरस-दानवरस पी लेगा मानव रस होंगे सब विकृत-विरस क्या षटरस, क्या नवरस होंगे सब विजित-विवश क्या तो तीव्र क्या तो ठस देवरस- दानवरस पी लेगा मानव रस सर्वग्रास-सर्वत्रास होगा अब इतिहास फैलाएगा

हाय, अलीगढ़! हाय, अलीगढ़! बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं हाय, अलीगढ़! हाय, अलीगढ़! शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं सच बतलाऊँ? मुझको तो लगता है, प्यारे, हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंग

ख़ूब सज रहे आगे-आगे पंडे सरों पर लिए गैस के हंडे बड़े-बड़े रथ, बड़ी गाड़ियाँ, बड़े-बड़े हैं झंडे बाँहों में ताबीज़ें चमकीं, चमके काले गंडे सौ-सौ ग्राम वज़न है, कछुओं ने डाले हैं अण्डे बढ़े आ रहे,

हम कुछ नहीं हैं कुछ नहीं हैं हम हाँ, हम ढोंगी हैं प्रथम श्रेणी के आत्मवंचक... पर-प्रतारक... बगुला-धर्मी यानी धोखेबाज़ जी हाँ, हम धोखेबाज़ हैं जी हाँ, हम ठग हैं... झुट्ठे हैं न अहिंसा में हमारा

नए सिरे से घिरे-घिरे से हमने झेले तानाशाही के वे हमले आगे भी झेलें हम शायद तानाशाही के वे हमले... नए सिरे से घिरे-घिरे से "बदल-बदल कर चखा करे तू दुख-दर्दों का स्वाद" "शुद्ध स्वदेशी तानाशाही आए

तुनुक मिजाजी नहीं चलेगी नहीं चलेगा जी यह नाटक सुन लो जी भाई मुरार जी बन्द करो अब अपने त्राटक तुम पर बोझ न होगी जनता ख़ुद अपने दुख-दैन्य हरेगी हां, हां, तुम बूढी मशीन हो जनता तुमको ठीक करेगी

शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद कोटि-कोटि मतपत्र बन गए जादू वाले बाण मू

हरे-हरे नए-नए पात... पकड़ी ने ढक लिए अपने सब गात पोर-पोर, डाल-डाल पेट-पीठ और दायरा विशाल ऋतुपति ने कर लिए खूब आत्मसात हरे-हरे नए-नए पात ढक लिए अपने सब गात पकड़ी सयाना वो पेड़ कर रहा गुप-चुप ही

होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में अभी तो करुणामय हमदर्द बादल दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन बेहोशी में, खीझ में, घुटन म

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर-- चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चा

इन सलाखों से टिकाकर भाल सोचता ही रहूँगा चिरकाल और भी तो पकेंगे कुछ बाल जाने किस की / जाने किस की और भी तो गलेगी कुछ दाल न टपकेगी कि उनकी राल चाँद पूछेगा न दिल का हाल सामने आकर करेगा वो न एक सवा

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर झूम रही हैं... चूम रही हैं-- कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !! इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-

सुबह-सुबह तालाब के दो फेरे लगाए सुबह-सुबह रात्रि शेष की भीगी दूबों पर नंगे पाँव चहलकदमी की सुबह-सुबह हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए माघ की कड़ी सर्दी के मारे सुबह-सुबह अधसूखी पतइयों का कौड़ा

हाथ लगे आज पहली बार तीन सर्कुलर, साइक्लोस्टाइलवाले UNA द्वारा प्रचारित पहली बार आज लगे हाथ अहसास हुआ पहली बार आज... गत वर्ष की प्रज्वलित अग्निशिखा जल रही है कहीं-न-कहीं, देश के किसी कोने में सु

शोक विह्वल लालू साहू आपनी पत्नी की चिता में कूद गया लाख मना किया लोगों ने लाख-लाख मिन्नतें कीं अनुरोध किया लाख-लाख लालू ने एक न सुनी... 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्नी की चिता में अपने को डालक

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