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सोसाइटी

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एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !! नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है, कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी। सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान, हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी गरमी का आवेग। साथ-साथ घूमत

रिहा!! छोड़ दिया गया मैं, कोई छाया-मुख अब करते हैं पीछा, छायाकृतियाँ न छोड़ी हैं मुझको, जहाँ-जहाँ गया वहाँ भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद मारते हैं संगीत-- दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी। मुझे अब

सीन बदलता है सुनसान चौराहा साँवला फैला, बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर, ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद, साँवली हवाओं में काल टहलता है। रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे, मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,

एकाएक मुझे भान !! पीछे से किसी अजनबी ने कन्धे पर रक्खा हाथ। चौंकता मैं भयानक एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक, नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर कन्धे पर बैठ गया बरगद-पात तक, क्या वह संकेत, क्या वह इशारा? क्य

अकस्मात् चार का ग़जर कहीं खड़का मेरा दिल धड़का, उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक चल-विचल हुआ सहसा। अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत, सब ओर बिखराव। मैं अपन

समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या जाग्रति शुरू है। दिया जल रहा है, पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है, आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी अलग व दूर-दूर निर्जीव!! यह सि

सूनापन सिहरा, अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे, शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की, मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर, छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें मीठी है दुःसह!! अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह बजती है

ज़िन्दगी के... कमरों में अँधेरे लगाता है चक्कर कोई एक लगातार; आवाज़ पैरों की देती है सुनाई बार-बार....बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किन्तु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई ए

क्या-क्या नहीं है मेरे पास शाम की रिमझिम नूर में चमकती ज़िन्दगी लेकिन मैं हूँ घिरा हुआ अपनों से क्या झपट लेगा कोई मुझ से रात में क्या किसी अनजान में अन्धकार में क़ैद कर देंगे मसल देंगे क्य

यदि देश की सुरक्षा यही होती है कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द अश्लील हो और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे तो हमें देश की सुरक्षा स

हमारे लहू को आदत है मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है सूली के गीत छेड़ लेता है शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं लहू है की तब भी गाता है ज़रा सोचें

बरसों तड़पकर तुम्हारे लिए मैं भूल गया हूँ कब से, अपनी आवाज़ की पहचान भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए मैं उसके सारे अक्षर जोड़कर भी मुश्किल से तुम्हारा नाम ही बन सका मेरे लिए वर्ण अ

तुम्हारे बग़ैर मैं बहुत खचाखच रहता हूँ यह दुनिया सारी धक्कम-पेल सहित बेघर पाश की दहलीजें लाँघ कर आती-जाती है तुम्हारे बग़ैर मैं पूरे का पूरा तूफ़ान होता हूँ ज्वार-भाटा और भूकम्प होता हूँ तुम्हारे

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है उनके शब्द लहू के होते हैं लहू लोहे का होता है जो मौत के किनारे जीते हैं उनकी मौत से ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है

तुम्हारे रुक-रुक कर जाते पाँवों की सौगन्ध बापू तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब मैं लेकर दूँगा तुम मेरी फ़ीस की चिंता न करना मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिए विद्यालय नहीं जाया

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक़्त इसी का नाम है कि घटनाएँ कुचलती हुई चली जाएँ मस्त हाथी की तरह एक समूचे मनुष्य की चेतना को ? कि हर सवाल केवल परिश्रम करते देह की ग़लती ही हो क

आधी रात में मेरी कँपकँपी सात रजाइयों में भी न रुकी सतलुज मेरे बिस्तर पर उतर आया सातों रजाइयाँ गीली बुखार एक सौ छह, एक सौ सात हर साँस पसीना-पसीना युग को पलटने में लगे लोग बुख़ार से नहीं मरते मृ

अब विदा लेता हूँ मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ मैंने एक कविता लिखनी चाही थी सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं उस कविता में महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था उस

मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक़्त इसी का नाम है कि घटनाएँ कुचलती चली जाएँ मस्त हाथी की तरह एक पूरे मनुष्य की चेतना ? कि हर प्रश्न काम में लगे ज़िस्म की ग़लती ही हो ? क्यूँ

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर यह काम हमारा नह

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