“राधे राधे सक्सैना जी”
गोविन्द प्रकाश जी ने एक महानुभाव को देखकर हाथ जोडकर , चलते – चलते ही बोला . सुबह का समय हो और गोविन्द जी मोर्निंग वाक पर ,पार्क में न दिखाई दें, नहीं था . फिर उनके असंख्य मिलने वाले और कुछ तो इतने प्यार करने वाले जो जब तक गोविन्द जी न आ जाएँ इन्तजार करते थे . इन्तजार करें भी क्यों नहीं ? हर समय मदद के लिए तैयार जो रहते थे गोविन्द प्रकाश .
आज गोविन्द प्रकाश बहुत जल्दी में थे .सुबह का वो खुशनुमा मौसम भी उन्हें अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पा रहा था . आज उनका बेटा हर्षित , डॉ हर्षित बनकर बैंगलौर से जो आ रहा था .
गोविन्द प्रकाश जल्दी – जल्दी सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए घर पहुंच गये . घर के दरवाजे से ही आवाज देना शुरू कर दी .
“रवि ओ रवि . चौं रे कहाँ गयो रे . जे देख दरवाजे पे कुड़ो अभई तक पड़ो है . हर्षित आवेगों तौ का कहैगो . ला जल्दी तै एक बोरा लेआ.
रवि दौड़ते हुए आकर बोरा देकर चला गया। गोविंद प्रकाश ने स्वयं ही कूड़ा भरना शुरू कर दिया। सब तैयारियों में लगे थे। गोविंद प्रकाश दिल से खुशी थे। आज दो साल बाद अपने बेटे से मिलने वाले थे। आज हर्षित का पूरा बचपन उनकी आंखों से गुजर रहा था। कैसे- कैसे नटखट हर्षित आज इतना बड़ा हो गया था । उसकी अटखेलियां उसकी सारी हरकते वो सोचते -सोचते सफाई में लगे थे।
अचानक सामने से सोनू ने घर मे प्रवेश किया। सोनू हर्षित का बचपन का दोस्त था। आते ही पहले सोनू ने गोविंद प्रकाश के पैर छुए।
“हर्षित भाई कितनी देर में पहुंच रहे हैं ताऊ जी”
“बस आने ही वाला है तो तै नैक जल्दी आईवे की कहि तो वो तेइ समझ मे नाय आई। चल जल्दी तै नैन्हे हलवाई कु बुला ला। नई तो शाम की पार्टी में देर है जाएगी और हां सुन नैक जल्दी अइयो मत बैठ के ही रैह जावै।
“हां ताऊ जी अभी गया और अभी आया।“ सोनू ने पीछे मुड़ते हुए जवाब दिया।
“और सुन नैक राम प्रकाश के पास चलो जइओ जे जितने बर्तन रखें सब आय के माझ देगो” । गोविंद प्रकाश ने सोनू को जाते देखकर कहा और अपने काम में लग गए।
सोनू निकल चुका था । अभी पाँच मिनट ही बीते होंगे कि तभी कार आकर रुकी और हर्षित ने घर में प्रवेश किया।
हर्षित को देखकर जैसे गोविंद प्रकाश का खून बढ़ गया था। खुशी में पागलों की तरह से लिपट गए हर्षित से। हर्षित ने झुक कर पैर छूकर आशीर्वाद लिया।
"कैसे हो पिताजी आप" हर्षित ने गोविन्द प्रकाश से पूछा।
मैं तो ठीक हूँ तू सुना लल्ला । तू कैसा है?आ" गोविंद प्रकाश ने सोफे की तरफ जाते हुए पूछा।
तभी अंदर से पर्दा हटाती हुई हर्षित की माँ सीता देवी और बहिन स्वामिता बाहर आईं।
"तू आय गयो बेटा।" कहते हुए रोने लगी माँ।
"भैया"
कहते हुए बहन भी चिपट गई भाई से। बहन के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए हर्षित ने माँ के पैर छुए और माँ के गले लग गया . बस फिर बातों का सिलसिला चल निकला . तभी सोनू नैन्हे हलवाई को लेकर आ गया . नैन्हे ने खाना बनाने के सभी करछली व चमचे एक कौने में रखते हुए गोविन्द प्रकाश के पैर छूते हुए कहा –
“बाबु जी प्रणाम”
“सदा खुश रहो” गोविन्द प्रकाश ने कहा .
" सुन नैन्हे जरा पहले लड्डू बना लियो और राम प्रकाश आ जाये तो वापे बर्तन जरुर मंजवा लइयो.अब काम पे लग जा जल्दी - जल्दी "
"हां बाबु जी " कहते हुए नैन्हे अपने काम पर लग गया।
तब तक मूर्ति बने सोनू को जैसे होश आ गया . वो हर्षित के गले लग गया . उसके पास ही सोफे पर बैठ गया .
"पिताजी हलवाई क्यों बुलवाया है ?" हर्षित ने अनभिज्ञता प्रकट करते हुए पूछा .
"बेटा तेरे आवे की ख़ुशी में शाम कूँ एक पार्टी रखी ए. अपने मिलवे वारेनऊ पतौ चलनी चइंए कि अपनों लल्ला डॉक्टर बन गयो हैं. तेरी नौकरी कीउ बात कन्नी ऐ बनवारीलाल जी तै ." गोविन्द प्रकाश ने छाती चौड़ी करते हुए कहा.
"चौं नाय बाबु जी ." लड्डू की बूंदी तोड़ते हुए कोने से नैन्हे की आवाज आई . "हमाये हर्षित भैया तौ बचपन तेई होनहार हैं."
"पिताजी मैं चाचाजी से मिल आता हूँ . चाचाजी को काफी लम्बे समय से नहीं देखा ." हर्षित ने सोफे से उठते हुए कहा .
"हाँ . जा - जा बेटा . महेंद्र प्रकाश तेरो ई इन्तजार कर रयो होयगो . बो अगर चल पातो तौ तोय लैवे स्टेशन तक जरुर जातौ . कुदरत ने भौत बुरा करोए बाके साथ . चल जा ."
"कोऊ कऊँ नाय जावैगो. जे भैया की पसंदीदा चाय - गुड़ की चाय" स्वामिता चाय की ट्रे लाती हुई बोली .
"और जे पापा जी की फीकी चाय ."
गोविन्द प्रकाश पिछले नौ वर्ष से डायबिटीज से पीड़ित थे . मीठे का परहेज रखते थे और कभी भी तीन किलोमीटर से कम नहीं टहलते थे . बस दवा का इस्तेमाल नहीं करते थे . आज हर्षित के आने की ख़ुशी में एक किमी ही चले होंगे . स्वामिता ने माँ , सोनू , नैन्हे व नैन्हे के दो सहायको को भी चाय दी और खुद चाय लेकर हर्षित के पास सोफे पर बैठ गई. सोनू बात कर रहा था हर्षित से और हर्षित चाय पीते पीते हाँ हूँ कर रहा था . सभी चाय की चुस्कियां ले रहे थे , बात कर रहे थे मगर हर्षित का ध्यान अभी भी चाचा जी पर लगा हुआ था .
चाचा जी हर्षित को बहुत प्यार करते थे . हमेशा हर्षित से हॉस्टल मिलने करनाल जाते थे . तब हर्षित करनाल में पढ़ रहा था . हर्षित सोच रहा था कि पिताजी तो कभी भी होस्टल मिलने ही नहीं गये . एडमिशन भी चाचा जी ही कराने गये थे . हमेशा चाचा जी ही मिलने जाते थे . उसे याद आया जब दो वर्ष पहले वो आया था तो चाचा जी खुद उसे लेने स्टेशन पर अपनी कार से गये थे . पूरा मोहल्ला सर पर उठा लिया था .
हर्षित को पुरानी याद आने लगीं .. चाचा जी उस दिन उसको छोड़ने गये थे . होस्टल में तीन घंटे तक उसके साथ रहे थे . बस वो मुलाकात चाचा जी से आज भी भुलाये नहीं भूलती . हाथ पकड़ कर उस दिन बहुत कुछ सिखाते रहे थे . अपनी स्कार्पियो से निकले थे हॉस्टल से . बस उसके बाद जो हुआ वो भुलाये नहीं भूलता .
ऐसा क्या हुआ महेंद्र प्रकाश के साथ जो आज वो चल फिर नहीं ते ? हर्षित अपने आप को क्यों दोष देता है ? आगे क्या हुआ जानने
के लिए पढ़ते रहिये एक और बागवान .........
के लिए पढ़ते रहिये एम......................