shabd-logo

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

16 जनवरी 2016

2114 बार देखा गया 2114
featured image

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,

वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे

वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,

शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें,

इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में,

है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - कंपन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण!

 

विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है,

शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है,

इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके--

इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है,

क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो?

देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का

भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का,

बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह,

किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का,

विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने,

त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।

 

जिस तरह मरु के हृदय में, है कहीं लहरा रहा सर,

जिस तरह पावस-पवन में, है पपीहे का छिपा स्वर

जिस तरह से अश्रु-आहों से, भरी कवि की निशा में

नींद की परियाँ बनातीं, कल्पना का लोक सुखकर

सिंधु के इस तीव्र हाहाकार ने, विश्वास मेरा,

है छिपा रक्खा कहीं पर, एक रस-परिपूर्ण गायन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण

 

नेत्र सहसा आज मेरे, तम-पटल के पार जाकर

देखते हैं रत्न-सीपी से, बना प्रासाद सुन्दर

है खड़ी जिसमें उषा ले, दीप कुंचित रश्मियों का,

ज्योति में जिसकी सुनहरली, सिंधु कन्याएँ मनोहर

गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा, बनाकर गान करतीं

और करतीं अति अलौकिक, ताल पर उन्मत्त नर्तन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

मौन हो गंधर्व बैठे, कर श्रवण इस गान का स्वर,

वाद्य-यंत्रों पर चलाते, हैं नहीं अब हाथ किन्नर,

अप्सराओं के उठे जो, पग उठे ही रह गए हैं,

कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक, साथ देवों के पुरन्दर

एक अद्भुत और अविचल, चित्र-सा है जान पड़ता,

देव बालाएँ विमानों से, रहीं कर पुष्प-वर्णन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

दीर्घ उर में भी जलधि के, हैं नहीं खुशियाँ समाती,

बोल सकता कुछ न उठती, फूल वारंवार छाती,

हर्ष रत्नागार अपना, कुछ दिखा सकता जगत को,

भावनाओं से भरी यदि, यह फफककर फूट जाती,

सिन्धु जिस पर गर्व करता, और जिसकी अर्चना को

स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके, प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण।

तीर पर कैसे रुकूँ में, आज लहरों में निमंत्रण!

 

आज अपने स्वप्न को मैं, सच बनाना चाहता हूँ,

दूर की इस कल्पना के, पास जाना चाहता हूँ,

चाहता हूँ तैर जाना, सामने अंबुधि पड़ा जो,

कुछ विभा उस पार की, इस पार लाना चाहता हूँ,

स्वर्ग के भी स्वप्न भू पर, देख उनसे दूर ही था,

किन्तु पाऊँगा नहीं कर आज अपने पर नियंत्रण।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण,

 

लौट आया यदि वहाँ से, तो यहाँ नव युग लगेगा,

नव प्रभाती गान सुनकर, भाग्य जगती का जगेगा,

शुष्क जड़ता शीघ्र बदलेगी, सरल चैतन्यता में,

यदि न पाया लौट, मुझको, लाभ जीवन का मिलेगा,

पर पहुँच ही यदि न पाया, व्यर्थ क्या प्रस्थान होगा?

कर सकूँगा विश्व में फिर भी नए पथ का प्रदर्शन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

स्थल गया है भर पथों से, नाम कितनों के गिनाऊँ,

स्थान बाकी है कहाँ पथ, एक अपना भी बनाऊँ?

विश्व तो चलता रहा है, थाम राह बनी-बनाई

किंतु इनपर किस तरह मैं, कवि-चरण अपने बढ़ाऊँ?

राह जल पर भी बनी है, रूढ़ि, पर, न हुई कभी वह,

एक तिनका भी बना सकता, यहाँ पर मार्ग नूतन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

देखता हूँ आँख के आगे नया यह क्या तमाशा -

कर निकलकर दीर्घ जल से हिल रहा करता मना-सा,

है हथेली-मध्य चित्रित नीर मग्नप्राय बेड़ा!

मैं इसे पहचानता हूँ, हैं नहीं क्या यह निराशा?

हो पड़ी उद्दाम इतनी, उर-उमंगे, अब न उनको

रोक सकता भय निराशा का, न आशा का प्रवंचन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

पोत अगणित इन तरंगों ने, डुबाए मानता मैं,

पार भी पहुँचे बहुत-से, बात यह भी जानता मैं,

किन्तु होता सत्य यदि यह भी, सभी जलयान डूबे,

पार जाने की प्रतिज्ञा आज बरबस ठानता मैं,

डूबता मैं, किंतु उतराता सदा व्यक्तित्व मेरा

हों युवक डूबे भले ही है कभी डूबा न यौवन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

 

आ रहीं प्राची क्षितिज से खींचने वाली सदाएँ,

मानवों के भाग्य-निर्णायक सितारों! दो दुआएँ,

नाव, नाविक, फेर ले जा, हैं नहीं कुछ काम इसका,

आज लहरों से उलझने को फड़कती हैं भुजाएँ

प्राप्त हो उस पार भी इस पार-सा चाहे अंधेरा,

प्राप्त हो युग की उषा चाहे लुटाती नव किरन-धन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!


डॉ० हरिवंशराय बच्चन

27
रचनाएँ
bachchan
0.0
शब्दों के शिल्पकार डॉ० हरिवंशराय 'बच्चन' के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंग एवं उत्कृष्ट रचनाएँ...
1

डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’ की आत्मकथा

11 जनवरी 2016
2
2
1

हरिवंश राय जी हिंदी साहित्य जगत का एक उज्जवल सितारा थे | जिन्हें आज भी स्नेह और गर्व से याद किया जाता है | इस लेख में आप (harivansh rai bachchan biography in hindi) हरिवंश

2

नीड़ का निर्माण फिर-फिर

12 जनवरी 2016
0
0
0

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्वान फिर-फिर!वह उठी आँधी कि नभ मेंछा गया सहसा अँधेरा,धूलि धूसर बादलों नेभूमि को इस भाँति घेरा,रात-सा दिन हो गया, फिररात आ‌ई और काली,लग रहा था अब न होगाइस निशा का फिर सवेरा,रात के उत्पात-भय सेभीत जन-जन, भीत कण-कणकिंतु प्राची से उषा कीमोहिनी मुस्कान फिर-फिर!नीड़ का निर

3

कोई पार नदी के गाता!

13 जनवरी 2016
0
0
0

भंग निशा कीनीरवता कर,इस देहाती गानेका स्वर,ककड़ी के खेतोंसे उठकर, आता जमुना परलहराता!कोई पार नदी केगाता! होंगे भाई-बंधुनिकट ही,कभी सोचते होंगेयह भी,इस तट पर भी बैठाकोई उसकी तानों सेसुख पाता!कोई पार नदी केगाता! आज न जाने क्योंहोता मनसुनकर यह एकाकीगायन,सदा इसे मैंसुनता रहता, सदा इसे यह गाताजाता!कोई पा

4

अग्निपथ

14 जनवरी 2016
0
0
0

वृक्ष हों भलेखड़े,हों घने हों बड़े,एक पत्र छाँह भी,माँग मत, माँग मत, माँग मत,अग्निपथ अग्निपथअग्निपथ। तू न थकेगा कभी,तू न रुकेगा कभी,तू न मुड़ेगा कभी,कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,अग्निपथ अग्निपथअग्निपथ। यह महान दृश्य है,चल रहा मनुष्य है,अश्रु श्वेत रक्तसे,लथपथ लथपथ लथपथ,अग्निपथ अग्निपथअग्निपथ।डॉ० हरिवंशराय

5

नव वर्ष

15 जनवरी 2016
0
0
0

नव वर्ष हर्ष नव  जीवन उत्कर्ष नव I नव उमंग, नवतरंग, जीवन का नव प्रसंग I नवल चाह, नवल राह, जीवन का नव प्रवाह I गीत नवल, प्रीत नवल, जीवन की रीति नवल, जीवन की नीति नवल, जीवन की जीत नवल I-डॉ. हरिवंशराय बच्चन

6

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!

16 जनवरी 2016
0
0
0

तीर पर कैसेरुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!रात का अंतिमप्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,वक्ष पर युग बाहुबाँधे, मैं खड़ा सागर किनारेवेग से बहताप्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,शून्य में भरताउदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें,इन पुकारों कीप्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदयमें,है प्रतिच्छायितजहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - क

7

मुझसे मिलने को कौन विकल

17 जनवरी 2016
0
1
0

मुझसे मिलने को कौन विकल,मैं होऊँ किसके हित चंचल ?यह प्रश्न शिथिल करता पद को,भरता उर में विह्वलता है !दिन जल्दी-जल्दी ढलता है। -डॉ. हरिवंशराय 'बच्चन'

8

है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है?

18 जनवरी 2016
0
1
0

कल्पना के हाथ सेकमनीय जो मंदिर बना थाभावना के हाथ नेजिसमें वितानों को तना था। स्वप्न ने अपनेकरों से था जिसे रुचि से सँवारास्वर्ग केदुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सनाथाढह गया वह तोजुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों कोएक अपनी शांति कीकुटिया बनाना कब मना हैहै अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है। बादलों के अश्

9

उस पार न जाने क्या होगा

19 जनवरी 2016
0
1
0

इस पार, प्रिये मधु है तुम होउस पार न जाने क्या होगायह चांद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन कालहरा-लहरा ये शाखाएँ कुछ शोक भुला देतीं मन काकल मुरझाने वाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मग्न रहोबुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन कातुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती होउस पार मुझे बहलाने क

10

चिड़िया का घर

20 जनवरी 2016
0
2
0

चिड़िया, ओ चिड़िया,कहाँ है तेरा घर?उड़-उड़ आती हैजहाँ से फर-फर!चिड़िया, ओ चिड़िया,कहाँ है तेरा घर?उड़-उड़ जाती है-जहाँ को फर-फर! वन में खड़ा हैजोबड़ा-सा तरुवर,उसी पर बना हैखर-पातों वालाघर!उड़-उड़ आती हूँवहीं से फर-फर!उड़-उड़ जाती हूँवहीं को फर-फर!डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’

11

एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो

21 जनवरी 2016
0
1
0

इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। जय बोलो उस धीर व्रती

12

वह सुन लो नया स्वर कोकिल का

22 जनवरी 2016
0
1
0

वह  सुन लो  नया स्वर कोकिल का है     गूँज     रहा      अमराई      में,वह  सुन  लो  नक़ल होती   उसकी उपवन,    बीथी,     अँगनाई      में ;हर  जीवन  के  स्वर की प्रतिध्वनिआती    है    अगणित    कंठों  से ;पतझर    के    सूनेपन    से    डरे जिसके   अंतर   में   नाद   न हो I पतझर  से  डरे   जिसके   उर  में 

13

तब रोक ना पाया मैं आंसू

23 जनवरी 2016
0
1
0

जिसके पीछे पागल होकरमैं दौडा अपने जीवन-भर,जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा!तब रोक न पाया मैं आंसू! जिसमें अपने प्राणों को भरकर देना चाहा अजर-अमर,जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा!तब रोक न पाया मैं आंसू! मेरे पूजन-आराधन कोमेरे सम्पूर्ण समर्पण को,जब मेरी कमज़ोरी कहकर मे

14

यात्रा और यात्री

24 जनवरी 2016
0
3
0

साँस चलती है तुझेचलना पड़ेगा ही मुसाफिर! चल रहा है तारकों कादल गगन में गीत गाता,चल रहा आकाश भी हैशून्य में भ्रमता-भ्रमाता,पाँव के नीचे पड़ीअचला नहीं, यह चंचला है,एक कण भी, एक क्षण भीएक थल पर टिक न पाता,शक्तियाँ गति की तुझेसब ओर से घेरे हु‌ए है;स्थान से अपने तुझेटलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!साँस चलती है त

15

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

25 जनवरी 2016
0
0
0

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ। अरमानों की एक निशा में होती हैं कै घड़ियाँ,आग दबा रक्खी है मैंने जो छूटी फुलझड़ियाँ,मेरी सीमित भाग्य परिधि को और करो मत छोटी,प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ। अधर पुटों  में बंद अभी तक थी अधरों की वाणी,'हाँ-ना' से मुखरित हो पाई किसकी प्रणय कहानी,सिर्फ भूमिका थी जो क

16

आ रही रवि की सवारी

26 जनवरी 2016
1
1
1

आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है,कलि-कुसुम से पथ सजा है,बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी।आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण,गा रही है कीर्ति-गायन,छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी।आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह,पर ठिठकता देखकर यह-रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर

17

मधुशाला की कुछ पंक्तियाँ

27 जनवरी 2016
0
0
0

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हालाआज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला। आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,और लगा मेरे होठों से भ

18

जो बीत गई सो बात गयी

28 जनवरी 2016
0
3
3

जीवन में एक सितारा थामाना वह बेहद प्यारा थावह डूब गया तो डूब गयाअम्बर के आनन को देखोकितने इसके तारे टूटेकितने इसके प्यारे छूटेजो छूट गए फिर कहाँ मिलेपर बोलो टूटे तारों परकब अम्बर शोक मनाता हैजो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुमथे उसपर नित्य निछावर तुमवह सूख गया तो सूख गयामधुवन की छाती को देखो

19

प्राण, मेरा गीत दीपक सा जला है

29 जनवरी 2016
0
1
0

पाँव  के नीचे पड़ी जो धूलि बिखरीमूर्ति बनकर ज्योति की किस भांति निखरी,आंसुओं में रात-दिन अंतर गला है; प्राण, मेरा गीत दीपक सा जल है। यह जगत की ठोकरें खाकर न टूटा,यह समय की आँच से निकला अनूठा,यह ह्रदय के स्नेह साँचे में ढला है;प्राण. मेरा गीत दीपक-सा जल है। आह मेरी थी कि अम्बर कँप  रहा था,अश्रु मेरे थ

20

ड्राइंग रूम में मरता हुआ गुलाब

30 जनवरी 2016
0
1
0

गुलाबतू बदरंग हो गया हैबदरूप हो गया हैझुक गया हैतेरा मुंह चुचुक गया हैतू चुक गया है । ऐसा तुझे देख करमेरा मन डरता हैफूल इतना डरावना हो कर मरता है! खुशनुमा गुलदस्ते मेंसजे हुए कमरे मेंतू जब ऋतु-राज राजदूत बन आया थाकितना मन भाया था-रंग-रूप, रस-गंध टटकाक्षण भर कोपंखुरी की परतो मेंजैसे हो अमरत्व अटका!कृ

21

किस कर में यह वीणा धर दूँ?

1 फरवरी 2016
0
0
0

देवों ने था जिसे बनाया,देवों ने था जिसे बजाया,मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ?किस कर में यह वीणा धर दूँ? इसने स्वर्ग रिझाना सीखा,स्वर्गिक तान सुनाना सीखा,जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ?किस कर में यह वीणा धर दूँ? क्यों बाकी अभिलाषा मन में,विकृत हो यह फिर जीवन में?क्यों न

22

साजन आ‌ए, सावन आया

2 फरवरी 2016
0
0
0

अब दिन बदले,घड़ियाँ बदलीं,साजन आ‌ए,सावन आया। धरती की जलतीसाँसों नेमेरी साँसों मेंताप भरा,सरसी की छातीदरकी तोकर घाव ग‌ई मुझपरगहरा, है नियति-प्रकृतिकी ऋतु‌ओं मेंसंबंध कहीं कुछअनजाना,अब दिन बदले,घड़ियाँ बदलीं,साजन आ‌ए,सावन आया। तुफान उठा जबअंबर मेंअंतर किसने झकझोरदिया,मन के सौ बंदकपाटों कोक्षण भर के अं

23

'गोशमाली' एक रोचक प्रसंग

3 फरवरी 2016
0
0
0

उमर ख़य्याम की रुबाइयों का हरिवंशराय बच्चन द्वारा किया गया अनुवाद एक भावभूमि, एक दर्शन और एक मानवीय संवेदना का परिचय देता है। बच्चनजी ने इस अनुवाद के साथ एक महत्त्वपूर्ण लम्बी भूमिका भी लिखी थी, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-"उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़

24

अपने कालजयी सृजन के साथ सदा हमारे साथ रहेंगे डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’

4 फरवरी 2016
0
1
0

हिन्दी भाषा केकालजयी कवि एवं 'हालावाद' के प्रवर्तक डॉ० हरिवंशराय श्रीवास्तव ‘बच्चन’ उत्तर छायावादकाल के सर्वश्रेष्ट कवियों में से एक हैं| डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’ का जन्म 27 नवम्बर, सन 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबूपट्टी मेंएक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श

25

अविस्मरणीय विडियो !

5 फरवरी 2016
0
0
0

८३वीं अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में मधुशाला की कुछ पंक्तियों का काव्य पाठ करते एवं इससे जुड़े कुछ रोचक प्रसंग सुनाते सदी के महानायक अमिताभ बच्चन 

26

अमिताभ बच्चन की असरदार आवाज में मधुशाला की संगीतमय शाम (विडियो)

6 फरवरी 2016
0
0
0

सहारा परिवार द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में अमिताभ बच्चन द्वारा सुरों के साथ मधुशाला को गाकर अपने पिताजी को दी गई भावभीनी श्रधांजलि का वीडियो |

27

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?

11 फरवरी 2016
0
4
4

बात, बच्चन जी की मिस तेजी सूरी से पहली मुलाक़ात की है। श्यामा जी के अवसान के बाद, बच्चन जी एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे और अपने मित्र प्रकाश के यहाँ बरेली में थे। अपनी आत्मकथा में तेजी जी से पहली मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं :“...उस दिन 31 दिसंबर की रात थी I रात में सबने ये इच्छा ज़ाहिर की कि

---

किताब पढ़िए