जिसके पीछे पागल होकर
मैं दौडा अपने जीवन-भर,
जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर-अमर,
जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
मेरे पूजन-आराधन को
मेरे सम्पूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमज़ोरी कहकर मेरा पूजित पाषाण हंसा!
तब रोक न पाया मैं आंसू!
डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’