भंग निशा की
नीरवता कर,
इस देहाती गाने
का स्वर,
ककड़ी के खेतों
से उठकर,
आता जमुना पर
लहराता!
कोई पार नदी के
गाता!
होंगे भाई-बंधु
निकट ही,
कभी सोचते होंगे
यह भी,
इस तट पर भी बैठा
कोई
उसकी तानों से
सुख पाता!
कोई पार नदी के
गाता!
आज न जाने क्यों
होता मन
सुनकर यह एकाकी
गायन,
सदा इसे मैं
सुनता रहता,
सदा इसे यह गाता
जाता!
कोई पार नदी के
गाता!
डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’