बात, बच्चन जी की मिस तेजी सूरी से पहली मुलाक़ात की है। श्यामा जी के अवसान के बाद, बच्चन जी एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे और अपने मित्र प्रकाश के यहाँ बरेली में थे। अपनी आत्मकथा में तेजी जी से पहली मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं :
“...उस दिन 31 दिसंबर की रात थी I रात में सबने ये इच्छा ज़ाहिर की कि नया वर्ष मेरे काव्य पाठ से आरम्भ हो I आधी रात बीत चुकी थी, मैंने केवल एक-दो कविताएँ सुनाने का वादा किया था I सबने ‘क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी’ गीत सुनना चाहा, जिसे मैं सुबह सुना चुका था I यह कविता मैंने बड़े सिनिकल मूड में लिखी थी I मैंने सुनाना आरम्भ किया I एक पलंग पर में बैठा था, मेरे सामने प्रकाश बैठे थे और मिस तेजी सूरी उनके पीछे खड़ी थीं कि गीत ख़त्म हो और वो अपने कमरे में चली जाएँ I गीत सुनाते सुनाते न जाने मेरे स्वर में कहाँ से वेदना भर आई I जैसे ही मैंने ‘उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा’ पंक्ति पढ़ी कि देखता हूँ, मिस सूरी की आंखें डबडबाती हैं और टप-टप उनके आँसू की बूँदें प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं I यह देखकर मेरा कंठ भर आता है I मेरा गला रुंध जाता है I मेरे भी आंसू नहीं रुक रहे हैं I और जब मिस सूरी की आँखों से गंगा-जमुना बह चली है और मेरी आँखों से जैसे सरस्वती I आंसुओं से कितने कूल-किनारे टूट-गिर गए, कितने बाँध ढह-बह गए, हम दोनों के कितने शाप-ताप धुल गए, कितना हम बरस-बरस कर हलके हुए हैं, कितना भीग-भीग कर भारी !...यह अचानक एक दूसरे के प्रति आकर्षित, एक दूसरे पर निछावर अथवा एक दूसरे के प्रति समर्पित होना आज भी विश्लेषित नहीं हो सका है...!”
क्या थी वो कविता, क्या थे वो जादूई शब्द जिन्होंने भावनाओं के दो जगत एक कर दिए !
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
मैं दुःखी जब जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा
रीति दोनों ने निभाई,
किंतु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूँदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
कौन है जो दूसरे को
दुःख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दुःख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुःख नहीं बँटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता,
तुम दुःखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?
-डॉ0 हरिवंशराय 'बच्चन'