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एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो

21 जनवरी 2016

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इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,

कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,

इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,

और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!

किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

 

जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,

जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,

जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,

और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,

घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,

जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

 

कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,

कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,

ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,

किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,

बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,

बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

 

कटीं बेड़ियाँ औहथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,

किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,

आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,

उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।

हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,

उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।


डॉ० हरिवंशराय बच्चन

 

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रचनाएँ
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चिड़िया, ओ चिड़िया,कहाँ है तेरा घर?उड़-उड़ आती हैजहाँ से फर-फर!चिड़िया, ओ चिड़िया,कहाँ है तेरा घर?उड़-उड़ जाती है-जहाँ को फर-फर! वन में खड़ा हैजोबड़ा-सा तरुवर,उसी पर बना हैखर-पातों वालाघर!उड़-उड़ आती हूँवहीं से फर-फर!उड़-उड़ जाती हूँवहीं को फर-फर!डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’

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एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो

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वह  सुन लो  नया स्वर कोकिल का है     गूँज     रहा      अमराई      में,वह  सुन  लो  नक़ल होती   उसकी उपवन,    बीथी,     अँगनाई      में ;हर  जीवन  के  स्वर की प्रतिध्वनिआती    है    अगणित    कंठों  से ;पतझर    के    सूनेपन    से    डरे जिसके   अंतर   में   नाद   न हो I पतझर  से  डरे   जिसके   उर  में 

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तब रोक ना पाया मैं आंसू

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जिसके पीछे पागल होकरमैं दौडा अपने जीवन-भर,जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा!तब रोक न पाया मैं आंसू! जिसमें अपने प्राणों को भरकर देना चाहा अजर-अमर,जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा!तब रोक न पाया मैं आंसू! मेरे पूजन-आराधन कोमेरे सम्पूर्ण समर्पण को,जब मेरी कमज़ोरी कहकर मे

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यात्रा और यात्री

24 जनवरी 2016
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साँस चलती है तुझेचलना पड़ेगा ही मुसाफिर! चल रहा है तारकों कादल गगन में गीत गाता,चल रहा आकाश भी हैशून्य में भ्रमता-भ्रमाता,पाँव के नीचे पड़ीअचला नहीं, यह चंचला है,एक कण भी, एक क्षण भीएक थल पर टिक न पाता,शक्तियाँ गति की तुझेसब ओर से घेरे हु‌ए है;स्थान से अपने तुझेटलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!साँस चलती है त

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प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

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प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ। अरमानों की एक निशा में होती हैं कै घड़ियाँ,आग दबा रक्खी है मैंने जो छूटी फुलझड़ियाँ,मेरी सीमित भाग्य परिधि को और करो मत छोटी,प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ। अधर पुटों  में बंद अभी तक थी अधरों की वाणी,'हाँ-ना' से मुखरित हो पाई किसकी प्रणय कहानी,सिर्फ भूमिका थी जो क

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आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हालाआज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला। आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,और लगा मेरे होठों से भ

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जीवन में एक सितारा थामाना वह बेहद प्यारा थावह डूब गया तो डूब गयाअम्बर के आनन को देखोकितने इसके तारे टूटेकितने इसके प्यारे छूटेजो छूट गए फिर कहाँ मिलेपर बोलो टूटे तारों परकब अम्बर शोक मनाता हैजो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुमथे उसपर नित्य निछावर तुमवह सूख गया तो सूख गयामधुवन की छाती को देखो

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पाँव  के नीचे पड़ी जो धूलि बिखरीमूर्ति बनकर ज्योति की किस भांति निखरी,आंसुओं में रात-दिन अंतर गला है; प्राण, मेरा गीत दीपक सा जल है। यह जगत की ठोकरें खाकर न टूटा,यह समय की आँच से निकला अनूठा,यह ह्रदय के स्नेह साँचे में ढला है;प्राण. मेरा गीत दीपक-सा जल है। आह मेरी थी कि अम्बर कँप  रहा था,अश्रु मेरे थ

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गुलाबतू बदरंग हो गया हैबदरूप हो गया हैझुक गया हैतेरा मुंह चुचुक गया हैतू चुक गया है । ऐसा तुझे देख करमेरा मन डरता हैफूल इतना डरावना हो कर मरता है! खुशनुमा गुलदस्ते मेंसजे हुए कमरे मेंतू जब ऋतु-राज राजदूत बन आया थाकितना मन भाया था-रंग-रूप, रस-गंध टटकाक्षण भर कोपंखुरी की परतो मेंजैसे हो अमरत्व अटका!कृ

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उमर ख़य्याम की रुबाइयों का हरिवंशराय बच्चन द्वारा किया गया अनुवाद एक भावभूमि, एक दर्शन और एक मानवीय संवेदना का परिचय देता है। बच्चनजी ने इस अनुवाद के साथ एक महत्त्वपूर्ण लम्बी भूमिका भी लिखी थी, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-"उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़

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अपने कालजयी सृजन के साथ सदा हमारे साथ रहेंगे डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’

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हिन्दी भाषा केकालजयी कवि एवं 'हालावाद' के प्रवर्तक डॉ० हरिवंशराय श्रीवास्तव ‘बच्चन’ उत्तर छायावादकाल के सर्वश्रेष्ट कवियों में से एक हैं| डॉ० हरिवंशराय ‘बच्चन’ का जन्म 27 नवम्बर, सन 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबूपट्टी मेंएक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श

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८३वीं अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में मधुशाला की कुछ पंक्तियों का काव्य पाठ करते एवं इससे जुड़े कुछ रोचक प्रसंग सुनाते सदी के महानायक अमिताभ बच्चन 

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क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?

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