इस पार, प्रिये मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा
यह चांद उदित होकर नभ में, कुछ ताप मिटाता जीवन का
लहरा-लहरा ये शाखाएँ कुछ शोक भुला देतीं मन का
कल मुरझाने वाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मग्न रहो
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा
जग में रस की नदियाँ बहतीं रसना दो बूंदें पाती है
जीवन की झिलमिल-सी झाँकी नयनों के आगे आती है
स्वरतालमयी वीणा बजती मिलती है बस झंकार मुझे
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है
ऐसा सुनता; उस पार प्रिये! ये साधन भी छिन जाएंगे
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा
प्याला है पर पी पाएंगे है ज्ञात नहीं इतना हमको
इस पार नियति ने भेजा है असमर्थ बना कितना हमको
कहने वाले पर कहते हैं हम कर्मों में स्वाधीन सदा
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे; जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हल्का कर लेते हैं
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा
कुछ भी न किया था जब उसका; उसने पथ में काँटे बोए
वे भार दिए धर कंधों पर जो रो-रोकर हमने ढोए
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खंडहर का सत्य भरा
उर में ऐसी हलचल भर दी दो रात न हम सुख से सोए
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा
संसृति के जीवन में सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आएंगी
जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अन्दर छिप जाएंगी
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढँक देगी
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन ख़ैर मनाएगी?
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा
तब हम दोनों का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा
ऐसा चिर पतझड़ आएगा कोयल न कुहुक फिर पाएगी
बुलबुल न अंधेरे में गा गा जीवन की ज्योति जगाएगी
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर ‘मरमर’ न सुने फिर जाएंगे
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिये, हो जाएगा
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’ सरिता अपना ‘कलकल’ गायन
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं चुप हो छिप जाना चाहेगा
मुँह खोल खड़े रह जाएंगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण
संगीत सजीव हुआ जिनमें जब मौन वही हो जाएंगे
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का जड़ तार न जाने क्या होगा
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने
वह छीन रहा, देखो, माली सुकुमार लताओं के गहने
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा-सुषमा लुट जाएगी
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का शृंगार न जाने क्या होगा
दृग देख जहाँ तक पाते हैं तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगी-साथी
दुनिया रोती-धोती रहती जिसको जाना है, जाता है
मेरा तो होता मन डगमग तट पर ही के हलकोरों से
जब मैं एकाकी पहुँचूंगा मँझधार; न जाने क्या होगा
-डॉ. हरिवंशराय 'बच्चन'