पाँव के नीचे पड़ी जो धूलि बिखरी
मूर्ति बनकर ज्योति की किस भांति निखरी,
आंसुओं में रात-दिन अंतर गला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक सा जल है।
यह जगत की ठोकरें खाकर न टूटा,
यह समय की आँच से निकला अनूठा,
यह ह्रदय के स्नेह साँचे में ढला है;
प्राण. मेरा गीत दीपक-सा जल है।
आह मेरी थी कि अम्बर कँप रहा था,
अश्रु मेरे थे कि तारा झँप रहा था,
यह प्रलय के मेघ-मारुत में पला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक सा जला है।
जो कभी उन्चास झोंकों से लड़ा था,
जो कभी तम को चुनौती दे खड़ा था,
वह तुम्हारी आरती करने चला है;
प्राण, मेरा गीत दीपक सा जला है।
-डॉ. हरिवंशराय 'बच्चन'