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The Stolen Earth

22 अप्रैल 2017

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The Stolen Earth

The dream and reality

The life and facility

In this post-truth world

Problems are larger than life

Production of abundance

Crowd of redundant

Shifting abode day and night

Life-full dream dry off life

Left is seldom right

But right is always right

Pink-collar is so grudge

In search of a dark delight

I think a lot for nothing

Measuring every nook and cranny

My efforts are ten a penny

Where I live and where I shelter

It is all business and policy matter

God sets the destiny and man plans

Rise and fall of so many civilizations

O man! what is your goal and destiny

Where do you strive to go

This earth is divided in lands and peoples

Full habitat of friends and enemies

What we produce results in garbage

Room of idea and cage of knowledge

I proceed in time in the mess of hedge

I am born in a map of race and nationality

I am an animal man human and agility

This is land without soil sound without language

There is fight for heaven ground of carnage

So many grounds and ground of dearth

Heaven fed man lives on the stolen earth.

Anil Kumar Sharma

22/04/2017













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एक टुकड़ा आदमी

1 जुलाई 2016
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आदमियों के भीड़ मेंएक टुकड़ा आदमी खो गया सिर्फ आदमी छोड़करवह बहुत कुछ हो गयाविज्ञानं के चकाचौंध शहर में राजनीति के खण्डहर मेंविकास के ज़हर मेंखुद के बनाए घर मेंबेघर की तरह रहता हैस्वयं  को सहता हैखुद को खुद से कहता हैअब तो सब की दबी ज़बान हैतीर और कमान हैजो खुद को बेधता हैहवा में कुछ फेंकता हैभगवान बनने

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अब तो मैं रोशनी में से रोशनी छांटता हूँ

16 अगस्त 2016
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मित्र जो देखते होउसे उसी तरह कह दोनमक -मिर्च की जरुरत भी नहीं हैवह जंगली फूल की तरह खिलेगाकिसी घाव को छिलेगाइंद्रधनुष के रंग में बिखरी हुई छटादुर्भाग्य की घिरती हुई काली घटाकनफटा नकफटा मुंहफटासब छू मंतर हो जाएंगेजब स्थिति को हम समझ पाएंगेइस भाषा की व्यवस्था मेंजो कहने की आदत हैसूखे शब्दों से बने उलझ

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ये जबाब भी उलझे है

22 अगस्त 2016
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अब तो सवालों में ढक गया हूँकिसी अँधेरी नियति की तरहये उजाले की तरह सवाल सारेकिसी घुप अँधेरे में टकराते हैखुद को कहाँ हम पाते है ?वे तो जबाब की तलाश मेंसवालों पर पटक जाते हैंजो भी जबाब बनता हैउसे भी गटक जाते हैंमैं तो स्वर्ग के रास्ते मेंत्रिशंकू की तरह लटका हूँविश्वामित्र से पाया झटका हूँइन्द्र की

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विषमकालीन कविता

25 अगस्त 2016
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विषमकालीन कवितामेरे समकालीन कवियों !अब तो शब्दों की प्रतीति मेंअर्थ बिलकुल विलुप्त हैंध्वनि के सामानांतरएक अजीब सी कोलाहल हैसमुद्र मंथन का पसरा हलाहल हैअमृत की तलाश में विष मिला हैजिससे समय और सन्दर्भ हिला हैविज्ञानं के भरोसे का जहर औरअध्यात्म के अखाड़े का कहरबताओ तो किस पर टूटता हैइसमें किसका दम

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एक जादू में हम नज़रबंद है

29 अगस्त 2016
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इतना सब कुछ होने के बाद भीवह नहीं हुआ जो होना चाहिए था रोनी सूरत तो वही हैहँसी न जाने कहाँ गायब हैउस अभियान मेंचरखे की लय परझोपड़ी भी गाती थीहवेली भी गुनगुनाती थीबनती हुई नयी सड़क परकोई खूबसूरत सपने बिछाती थीवे देखे गए सुनहले सपनेसपने में भी सबके अपने थेअब तो अपनों में भीपरायों जैसी तासीर मिलती है

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छाया को छाया से काटता हूँ

4 सितम्बर 2016
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इस जगत मिथ्या मेंब्रह्म सत्य की तलाश हैज्ञान बुद्धि सब खलास हैछाया को छाया से काटता हूँमाया में माया से भागता हूँएक नींद से दूसरी नींद में जागता हूँमृगतृष्णा के पीछे भागता हूँकिसी सत्य के कोने में झाँकता हूँसद्गुरु की चरणधूलि चाटता हूँशरीर के भीतर आत्मा हैऔर देखता हूँउस आत्मा का खात्मा हैगज़ब का

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गुरुघंटाल

6 सितम्बर 2016
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का हो गुरु !ब्रह्मा हो विष्णु हो महेश होचेला के आगे गोबर गनेश होअब तो चेला स्कूल चलाता हैगुरूजी को वित्तविहीन कॉलेज मेंपलिहर का बन्दर का बनाता हैखाली टिन की तरह बजाता हैचेला जब चुनाव लड़ता हैगुरूजी पोस्टर चिपकाते हैदारू की पेटी भी छुपाते हैघटिया को बेहतर बताते हैअँधेरे में और अँधेरा दिखाते हैएक प

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यह आदमी बड़ा संगीन है

11 सितम्बर 2016
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उसकी सूरत कविता की झरबेरी मेंलिपटी हुई हिंदी की तरह हैमुँह में करैली जैसी आलोचना हैहाथ में कलम के बजाय कोंचना हैसौंदर्य में कृत्रिम भाषा बिलोरना हैवह तो एकांकी में चिल्लाता हैरेखा चित्र में दाल भात खाता हैजुगाड़ी पत्रिकाओं के कालम मेंदिन में उल्लू की तरह इतराता हैनिराला का चाचा मुक्तिबोध का कुछ और

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यह जो जुगाड़ू हिन्दीवालों की थाती है

14 सितम्बर 2016
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आज तो सब कुछ हिन्दीमय लग रहा हैयह कातिलाना अंदाज़ किसको ठग रहा हैलगता है कोई अधूरा स्वप्न जग रहा हैक्या सूखे फूल पर तितली मँड़राती है ?किस अँधेरे में यह कोयल गाती हैअब तो दिया अलग है अलग बाती हैयह जो जुगाड़ू हिंदीवालों की थाती हैअंग्रेजी पीती है और अंग्रेजी खाती हैदेशी

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जब भी मेरा भारत महान होता है

23 सितम्बर 2016
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जब भी मेरा भारत महान होता हैमेरा दिल सारे जहाँ से अच्छाहिन्दोस्तां होने को बेताब होता हैघूसखोर हाथों से जब तिरंगा फहरता हैमेरा दिल क्यों इतना कहरता हैबापू तुम तो भ्रष्ट ऑफिसों में टंगे होघुस के लिफाफे में लाखों करोङो में बंधे होतुम्हारे आज़ाद बन्दर न बुरा देखते हैंन बुरा सुनते है न ही बुरा कहते हैसि

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स्वघोषित देशभक्त

9 अक्टूबर 2016
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वो तो देश के लिए जान देते हैऔर देश के लिए जान लेते है ये तो देश के जांबाज बेटे हैं देश के कोने से कोई पूछता है लिए गए और दिए गए जानों की गिनती तो गज़ब का देशद्रोह है देश के भीतर कोई खोह है जिससे देश वालों को खतरा है कितना अविश्वास पसरा है ?घोसले में से निकलकर परिंदा ठूँठ पर बैठा है किसी विरासत पर ऐंठ

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महर्षि भी बेचता कडुआ तेल है

8 नवम्बर 2016
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वह यही था सच जोयुगों के ज्ञान के इलाके मेंबुद्धि के उबड़ -खाबड़ पगडंडियो परचलता हुआ अँधेरे से उजाले की ओरऔर वह उजाला भी युगान्त के बादबने मठों के अँधेरे में ढलता गयाजैसे तेज आँखों में मोतियाबिन्द हो गया होखुद के परदे में समूचा दृश्य ख

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लाल बुझक्कड़ की सरकार में

9 नवम्बर 2016
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लाल बुझक्कड़ की सरकार मेंसनसनी ही सनसनी हो रही हैजनता में जनता का ही हिस्सा हैऔर उस हिस्से का कोई किस्सा हैबासी अख़बारों की तरह योजनाएँरोज काले चश्मों से पढ़ी जाती हैंसमाधान भी विचित्र गढ़ी जाती हैपेट की आग पर पूंजी पक रही हैबटलोई में कोई राज ढक रही हैजो तिजोरी में बंद है वह सफ़ेद हैजेब से जो बच गया वह

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भस्मासुर गा रहा है

19 नवम्बर 2016
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एक देश में कई देश देखालाइन में खड़ा दरवेश देखाजड़ खोदकर फल इतरा रहा हैकिसकी ज़मीन खा रहा हैभस्मासुर गा रहा हैगंगाजल बेचकरनमामि गंगे गा रहा हैलक्ष्मी के दरबार मेंश्रीहीनता का दौर हैदिवंगत धन के बोझ सेनिजात पा कर पेट खाली हैदुरभिसंधि की जुगा

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कंगाल होता जनतंत्र पुस्तक का मूल्यांकन

24 नवम्बर 2016
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कविता में जनतंत्र डॉ ० वेद

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विवेकी राय को श्रद्धांजलि

25 नवम्बर 2016
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विवेकी राय को श्रद्धांजलि सोनामाटी के मनबोध मास्टर !क्या लोकऋण चुका दिए ?दिवंगत युग की स्मृतियों के स्वेदपत्र नयी कोयल की जीवन परिधि में गूँगा जहाज जैसे जीवन का अज्ञात गणित है कालातीत होकर अभी समर शेष है वन तुलसी की गंध अवशेष है देहरी के पार अब जुलूस रूका है गंवई गंध गुलाब से गुजरते हुए पुरूषपुराण क

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घड़ियाल भी आँसू बहाता है

6 दिसम्बर 2016
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घड़ियाल भी आँसू बहाता हैनौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज़ जाती है जिसकी लाठी उसकी भैंस कहलाती हैआस्तीन का साँप भी होता हैऔर कौआ कान ले जाता हैमुख में राम बगल में छूड़ीचांस मिले तो काटे मूड़ीबकरे की माँ कब तक खैर मनायेगीवह घड़ी कभी तो आएगीहंस चुगेगा दाना - पानीकौआ मोती खायेगायह सब अपने ही देश में होता हैजिस थाल

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वित्त वंचित इंसान हूँ

14 दिसम्बर 2016
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मैं तो अँधेरे में जी रहा थाटिमटिमाती ढिबरी के सहारेउसने मेरी झोपड़ी मेंआग लगाकर रोशनी कर दीअब मैं बेसहारा बन करइस रोशनी में जल रहा हूँनमक की हाड़ी की तरहजाड़े में गल रहा हूँजौ तो साबुत बचे हुए हैंजो घुन है पिस रहे है यह जो डिजिटल चक्की हैकोई साज़िश पक्की हैदिवंगत होती

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अनसुलझा भरम हूँ

2 जनवरी 2017
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एक झूठ को सच की तरह जी रहा हूँआग को पानी की तरह पी रहा हूँजलते हुए लोगों से जो बच गयावह मैं हूँ आदमी के शक्ल मेंआज के आदमी के काबिल नहींकिसी मूल्य के जीवाश्म सासंग्रहालयों में चमकता हुआवर्तमान में अतीत की तरहस्वयं में व्यतीत की तरहखुद की उम्र से घायल हूँकिसी वृद्ध नर्तकी का पायल हूँअपने वजूद का कम

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उम्र का वह सुन्दर पड़ाव

22 जनवरी 2017
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एक कहानी सी छलक आती हैतुम्हारे उद्द्बुद्ध चेहरे सेगुलाबी होठों पर गुनगुनाती सीकपोल कोमल पन्नों की तरह खुलते हैअलकों के झिलमिलाते हर्फ़ मिलते हैंदीप्त नयनों से निकलते अंशुप्रभात के आलोक में आह्लादितकुसुमित कली पर तुहिन बिंदु सेतप्त हृदय को शीतल करते हुएनव जीवन का जैसे विहान होता हैसौन्दर्य में खिला

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भाषायी पाखंडों की धुरी

13 फरवरी 2017
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वह अपनी भाषा में बोलता हैमैं अपनी भाषा में सुनता हूँशब्दों की प्रतीति ऐसी हैविभिन्न अर्थों को गुनता हूँ अर्थ और आशय की दूरीअपनी स्थितियों की मजबूरीभाषायी पाखंडों की धुरीलपलपाती जीभ सेगिरते हुए नमकीन शब्दमिठास के आभास मेंगुमसुम और निःशब्द क्यों ज़मीन की बात खोती हैज़मीन छोड़कर ज़मीन को देखनाहवा में खड़े

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प्रेम दे कर प्रेम पाना

1 मार्च 2017
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उसकी संवेदनाओं से ज्यादाउसके संवेदनामय शब्द बोलते हैकिसी बकबक प्रेम की तरहजो किया तो कम किन्तुदिखाया ज्यादा जाता हैकौन खोता कौन पाता हैउम्र के रासायनिक परिवर्तन मेंहृदय में उठती तरंगमालायेंक्यों विवश करती है मुझेसिर्फ तुम्हारे लिए अचेतन मेंकोई अंकुर फूटने लगता हैभावना की उर्वर भूमि परजीवन का ऊर

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भाई साहेब यह कौन सा दौर है ?

3 मार्च 2017
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जनता और नेता के मौसम मेंभाषणों की फसल तैयार हैमालदार खिलाफ मालदार हैभाई साहब आपका क्या विचार है ?समझ में नहीं आता किमैं नागरिक हूँ या मुद्दा हूँन घर का न घाट कासिर्फ धोबी का कुत्ता हूँअब बहारें इस कदर आयीं हैंआगे कुआँ तो पीछे खाई हैयह कौन सी अँगड़ाई हैकौन काट रहा मलाई है ?जनता जनार्दन में जाति का

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कटोरा बोलता है

6 मार्च 2017
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कटोरा बोलता हैदेश जहान की बात खोलता हैजो भूले है उनको और भुला दोएक मृगमरीचिका दिखा दोहमारे हाथ का हुनर छीनकरदूसरे की मशीन लगा दोपेड़ सहमे हुए हैनदी भी सहमी हुई हैजिंदगी में यह कैसी ग़मी हुई हैउधार की बुनियाद बनी हुई हैजमीन छोड़ते हुए लोग अब ज़मीन का क्या क़र्ज़ चुकायेगेंआसमान में लटककरडिब्बेबंद माल खायेंग

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जय नारीवाद हो जाती है

8 मार्च 2017
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अंतरराष्ट्रीय नारी सशक्त है राष्ट्रीय नारी कृष्ण भक्त है क्या कहें घरेलू नारी अशक्त है नारी माँ है बहन है बेटी है प्रेमिका है पत्नी है दादी है चाची है बुआ है मामी है साली

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अनोखा अपना लोकतंत्र है

10 मार्च 2017
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एक दिन लेढ़ा गुरु ने बड़े दार्शनिक अंदाज में बतायाजनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार मेंपार्टियों की अहम् भूमिका होती हैजो चुनाव में जनता की चरण धोती हैंपार्टी का वोट बैंक होता हैऔर नेता का स्विस बैंक होता हैप्रकट आरोपों -प्रत्यारोपों के बादएक गुप्त मतदान होता हैतत्पश्चात संख्या -पद्धति औरगुणा -गणि

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कीचड़ तो कीचड़ ही रहता है

10 मार्च 2017
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कहते है कमल कीचड़ में खिलता हैकिन्तु कीचड़ तो कीचड़ ही रहता है सबकी अपनी -अपनी नियत हैकिसी की चाँदी तो किसी की फजीहत हैकमल खिलने के लिए कीचड़ जरुरी हैकिन्तु कीचड़ के लिए कमल नहीं जरुरी हैयह बात कितनी गलत कितनी सही हैदीवार किसके पक्ष में कितनी ढही है अब तो इन दीवारों की परिभाषायेंखिड़कियों और दरवाजों क

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वक्त के साथ घुल रहा हूँ

19 मार्च 2017
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बंजर विचारों में कितना पानी दोगेउकठे दरख्तों में कहाँ से हरियाली दोगेलाल सियार हुआँ -हुआँ करता हैघंटे -घड़ियाल से डराते हुए डरता हैजंगल की घास लाल दांतों से चरता हैमरती हुई व्यवस्था में मरता हैजिंदगी के सपने दिखाने मेंमौत का जाल बिछाने मेंहक़ीक़त को यूँ ही भुलाने मेंविचारधारा को भुनाने मेंटुकड़े - टुकड़े

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जय त्रिदेव हैं

19 मार्च 2017
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जय त्रिदेव है आज अपने प्रदेश - सरकार मेंब्रह्मा विष्णु महेश के दरबार मेंराष्ट्रीय पुष्प खिल रहा हैराष्ट्रीय पशु दहाड़ रहा हैहनुमान जी की तरहछप्पन इंच का सीना फाड़ रहा हैअशोक वाटिका उजाड़ रहा हैसीने में राम और जानकी हैंकृपा करूणानिधान की हैशपथ संविधान की हैआदिशक्ति की सवारी हैसिद्ध है चमत्कारी है अब

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कितना खलता है कुछ होते होते रह जाना

25 मार्च 2017
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कितना खलता है कुछ होते होते रह जानाकिसी बुनियाद का बनते बनते ढह जानाखूबसूरत ईमारत के सपनों का बह जानाकई बार मैं भी होते होते रह जाता हूँचेहरों की बाढ़ में गुमनाम बह जाता हूँएक चेहरे से दूसरे चेहरे में ढलता हूँफौलादी भ्रम लिए मोम सा पिघलता हूँज़माने का जहरीला घूँट निगलता हूँ आदमी के जिंदगी में

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वक्त हिसाब लेता है

26 मार्च 2017
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कहते है वक्त भी करवट लेता हैकभी घूरे के दिन भी फिरते हैलोग पके आम की तरह गिरते हैंकाले बादल भी घिरते हैकभी -कभी समय चोट देता हैऔर वक्त हिसाब भी लेता हैपाँव तले ज़मीन खिसकती हैजिंदगी गुमनाम सिसकती हैवक्त के मार खाये हमसफ़रइस वक्त से फरियाद न करयाद रखना कभी कभी वक्तयूँ ही मुट्ठी में आ जाता हैवक्त के जख्

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युवा - दर्द

9 अप्रैल 2017
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युवा -दर्द बचपन की कोमल पंखुरियाकिशोर मन के सपनेयौवन की दहलीज परयथार्थ से टकराते हुएप्रेम की प्यासजिंदगी उदाससम्बन्धो के बोझ तलेदबा घर काटता हैकर्कश संवेदना मेंनिकम्मी दिशाहीनता कोघृणा भरा प्यार डांटता हैरोटी पर यूँ ही हक़ नहींरोज़ी की भी उम्मीद नहींविकास के झुनझुने बज रहे हैदोस्त किसके सपन

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सुधार के धंधे

11 अप्रैल 2017
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मित्र सुधार इतना होता हैकिन्तु हम सुधरते नहीं हैऔर सुधार के धंधे भीकभी उबरते नहीं हैजब से बना है संविधानसंशोधन में ही फँसा हैबिकाऊ न्याय के बाहरहम बेचारों का हाथ कसा हैअब तो मुझे हर जगह जाने क्योंदुकान ही दुकान नज़र आती हैयह व्यवस्था क्यों नहीं शर्माती है ?लगता है संसद निजी क्षेत्र में हैसिर्फ धोख

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कविता के गांव में

15 अप्रैल 2017
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कविता के गाँव मेंकविता के गाँव मेंकई तरह की कलम उगी थीकोई फूली थी कोई पचकी थीकोई स्याही में डूबी थीकोई लिखकर टूटी थीप्राचीन नदी के किनारेएक प्राचीन कुटी थीअबूझ भाषाओँ की चीखसमय के जंगल में गूंजी थीसूने कान में आवाजों के डोरेसूत्र बन जिह्वा पर बोलेध्वनि के चित्र खोलेकविता विचित्र होसंतप्त जीवन कीआह्ल

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बस भाषा बदलती है

15 अप्रैल 2017
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अब छोटे जहर को बड़ा जहर खा गया हैलगता है कोई नया कहर आ गया हैमेरी उम्मीद पनपती है कोमल दूब की तरहकुचल दी जाती है बासी ऊब की तरहअब तो बहस में ऊँची आवाजें हैबहुत से बंद दरवाजे हैजाने क्यों हर बार मेरी आवाजआवाजों के धोखे में दब जाती हैमेरी उम्मीद से हट करकिसी और की उम्मीद सज जाती हैहाशिये की बात कर वो क

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The Stolen Earth

22 अप्रैल 2017
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The Stolen EarthThe dream and realityThe life and facilityIn this post-truth worldProblems are larger than lifeProduction of abundanceCrowd of redundantShifting abode day and nightLife-full dream dry off lifeLeft is seldom rightBut right is always rightPink-collar is so grudgeIn search of a dark del

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रात अभी बाक़ी

7 मई 2017
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ग़ज़ल सुबह हो गयी मग़र रात अभी बाक़ी है |इस रोशनी में अब कोई साज़िश झिलमिलाती है | |सूरज बहकता सा चाँदनी मुस्कुराती है |हवा का रुख बताने में पत्तियां लड़खड़ाती हैं | |धुँवा इस कदर पसरा आंखें डबडबाती हैं

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वह तोड़ता भूत

7 मई 2017
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वह तोड़ता भूतजोड़ता भविष्यफोड़ता वर्तमानजिसे मैंने देखाकचहरी के पथ परचीथड़ों के साम्राज्य परगर्दिश में खोयी किस्मत के बीचपिजड़े में बैठा तोताकिसी का भाग्य विधाता होतागत्ते के ढ़ेर में उलझे हुए भाग्य लेखउलझती हुई जिंदगी को देखसमाधान के पक्ष विपक्षकर देते किंकर्तव्यविमूढ़ग्रह - नक्षत्रों के चक्रव्यूह में फं

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माँ का आँचल

14 मई 2017
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वह जो गोद में दूध पिलाते हुएचूल्हे के आगे रोटी बनाती हैएक हाथ से बच्चे को खिलाती हैदूसरे हाथ से सब्जी चलाती हैवह माँ है जो घर को चलाती हैगिरते हुए बच्चे को उठाती हैसहलाती है दुलराती हैजगाती है सुलाती हैलोरी और कहानी सुनाती हैजवानी और बुढ़ापे को माँतुम्हारी याद बचपन बनाती हैमेरे लिए कितने मन्नते मनात

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मृत जीवन

11 अगस्त 2017
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हो उदित स्वप्न क्यों बिखर रहेमधुर मनोहरतम अंतर वालेहर्षाते दुलारते बाल -बृन्द -खगमोहक मृदुल मधुर स्वर वालेउजड़े उपवन के बीच खड़ीउज्ज्वल औद्योगिक यह प्रतिमाक्षय परिवर्तित सुरभि क्षय -क्षयश्वाँस अवरुद्ध दम तोड़ हरीतिमापल्लव पल्लव आज सँवरतेसूखी शाखा रोज निखरतेविकृत दृष्टिकोणों की कृति मेंबिना छंद ये शब्द

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कुर्सीवाद

13 अगस्त 2017
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कुर्सीवादयहाँ न तो बीज है न खाद हैअब जिंदगियां सिर्फ बरबाद हैंसपनों से पहले या सपनों के बाद हैमित्र सिर्फ सत्ता का कुर्सीवाद हैयहाँ तो सिर्फ घुटन है टूटन हैजिंदगी के सफर का छूटन हैअब तो कोई कली नहीं खिलतीक़र्ज़ पर भी साँस नहीं मिलतीनिवेश के लिए घूमता नंगा हैशांति के ढोंग में फैलता दंगा

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किसकी कितनी आज़ादी है

15 अगस्त 2017
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किसकी कितनी आजादी हैधोती कुरता खादी हैजय बोलो महात्मा गाँधी हैडंडे में लटका एक झंडा हैउसके ऊपर एक फंदा हैजिससे डोरी लटक रही हैहवाएँ किसको झटक रही हैंखूनी पंजो में सिसक रही हैआज़ादी क्यों झिझक रही हैजगह है जिनकी कारागारों मेंसंसद को हथियाये बैठे हैअपने दुर्दम पैरों सेजनमत को लतियाये बैठे है भूखी जन

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राग दरबारी एक विसंगतिवादी उपन्यास

17 मार्च 2019
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राग दरबारी : एक विसंगतिवादी उपन्यास अनिल कुमार शर्मा श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखा गया उपन्यास 'राग दरबारी ' एक खुला (Open) कथानकों

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