राग दरबारी : एक विसंगतिवादी उपन्यास
अनिल कुमार शर्मा
श्रीलाल शुक्ल द्वारा लिखा गया उपन्यास 'राग दरबारी ' एक खुला (Open) कथानकों वाला उपन्यास है | इसकी विशेषता यह है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है और पढ़ते हुए कहीं भी छोड़ा जा सकता है | इसमें कोई कथाक्रम नहीं है , न ही कोई क्रमबद्ध कथा -वस्तु(Plot) है| इसको पढ़ने पर , कोई उत्सुकता इस बात की नहीं होती कि आगे क्या घटित होगा? इस उपन्यास में पारम्परिक उपन्यासों की तरह आदि , मध्य और अंत नहीं है | न तो कथाक्रम में कोई पराकाष्ठा (Climax) ही है | कथाकार तत्संगत परिस्थितियों पर कुछ अजीबोगरीब जुमले बोलकर , तमाम विसंगतियों में संगत बैठाते हुए हास्य व्यंग की उत्त्पति करता है | कहीं -कहीं इसमें प्रहसन के पुट भी मिलते हैं | कुल मिलाकर यह उपन्यास वाहियात बातों को कलात्मक ढंग से कहने की कला है जिससे हास्य सृजित होता है |
व्यंग रचनाओं में भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित ' अंधेर नगरी ' को एक मानक व्यंग का दर्जा दिया जा सकता है | जहाँ एक मुर्ख राजा शुभ साइत में स्वर्ग जाने की लालसा में फांसी के फंदे से झूल जाता है | कृष्ण चन्दर का " एक गधे की आत्मकथा " देश - विभाजन बाद उत्पन्न सामाजिक , आर्थिक तथा राजनैतिक स्थितियों पर एक करारा व्यंग है , जिसमे वे एक गधे के माध्यम से जो आदमी की भाषा बोलता है , तत्कालीन विसंगतियों को परत दर परत उभारते है | बेढ़ब बनरसी का " लफ्टंट पिगसन की डायरी " गुलाम भारत में विदेशी अधिकारियों की कार्यशैली तथा रहन - सहन पर एक करारा व्यंग है | जिसे अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था |
स्वतंत्रता के बाद व्यंगकारों में अग्रगणी व्यंगकार हरिशंकर परसाई हैं | जो व्यंगात्मक उपन्यास तो नहीं लिख पाए किन्तु व्यंग कथाओं , निबंधों , रिपोर्ताज़ों तथा रेखा चित्रों द्वारा व्यंग -साहित्य को समृद्ध बनाये | व्यंगात्मक उपन्यास लिखने की कोशिश में उन्होंने " रानी केतकी की कहानी " लिखी | जो हिंदी साहित्य की तथाकथित पहली कहानी मानी जाने वाली इंशा अल्ला खॉं की " रानी केतकी की कहानी " का व्युत्क्रम कथासार है | हरिशंकर परसाई के व्यंग बहुमुखी हैं और अपने देश- काल के सभी पहलुओं को छूते हैं | अरस्तू की चिट्ठी , तुलसी दास चन्दन घिसै , कबीरा खड़ा बाजार में जैसी कृतियां केवल गुदगुदाती ही नहीं , बल्कि एक आलोचक की दृष्टि से भी परिचय कराती हैं जो समाज का विच्छेदन करके मूल व्याधियों को उजागर करता है | ' पुराना खिलाडी ',' टार्च बेचने वाले ',' सत्य साधक मंडल ',' लूनाटिक डिवाइन इंडियन मिशन ', मध्यवर्गीय कुत्ता ',' जैसे उनके दिन फिरे ', 'भोलाराम का जीव ', इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर आदि व्यंग रचनाएँ विसंगतियों को दर्शाती हैं तो उसके समाधान को ढूढ़ने के लिए झकझोरती भी हैं | यही व्यंग की अर्थवत्ता है जो परसाई जी की रचनाओं में प्रचुरता से विद्यमान हैं |
कुछ छुटपुट व्यंगकारों में शरद जोशी , नरेंद्र कोहली , मनोहर श्याम जोशी ,ज्ञान चतुर्वेदी और अलोक पुराणिक का नाम शामिल किया जा सकता है |
हिंदी में दो ही व्यंगकार जिन्हे व्यंग लिखने का ढंग था , एक तो हरिशंकर परसाई और दूसरे श्रीलाल शुक्ल जो अभी हाल में ही दिवंगत (२८ अक्टूबर ) हुए हैं | उन्ही को श्रद्धांजलि देते हुए उनके व्यंग की चर्चा की जा रही है :-
श्रीलाल शुक्ल का सबसे चर्चित उपन्यास ' राग दरबारी ' है | इसका प्रकाशन 1968 में हुआ , तथा 1970 में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया | श्रीलाल शुक्ल को इस वर्ष कथाकार अमरकांत के साथ संयुक्त रूप से ' गजनपीठ ' पुरस्कार से सम्मानित किया गया है | श्रीलाल शुक्ल की अन्य महत्वपूर्ण कृतियाँ विश्रामपुर का संत , माकन, आदमी का जहर , जहालत के पचास साल आदि हैं | राग दरबारी उनकी कालजयी ( magnum opus ) कृति है इसमें आधुनिक जीवन की अर्थहीनता को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है | अतः यह उपन्यास अब्सर्ड (absurd ) उपन्यासों की श्रेणी में आता है जो सात्र के सिद्धांतों की पुष्टि करता है |
इस उपन्यास में कथाएं छिटपुट हैं | एक कथा का दूसरी कथा से कोई खास तारतम्य नहीं बैठता है | कथाओं को जोड़ने के लिए लेखक एक सूत्रधार रंगनाथ का सहारा लेता है | रंगनाथ उपन्यास के मुख्य पात्र वैद्य जी का भांनजा है | जो शहर में रह कर एम ० ए ० कर लिया है और एम ० ए ० करने के बाद सरकारी नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च कर रहा है | वैद्य जी के शब्दों में -
" एम ० ए ० करते -करते किसी भी सामान्य विद्यार्थी की तरह वह कमजोर पड़ गया था | किसी भी सामान्य हिंदुस्तानी की तरह उसने डॉक्टरी चिकत्सा में विश्वास न रहते हुए भी डॉक्टरी दवा खायी थी | उससे वह अभी बिल्कुल ठीक नहीं हो पाया था | किसी भी सामान्य शहराती की तरह उसकी भी आस्था थी कि शहर की दवा और देहात की हवा बराबर होती है | इसलिए वह वहाँ रहने के लिए चला आया था | किसी भी सामान्य मुर्ख की तरह उसने एम ० ए ० करने बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरू कर दी थी , पर किसी भी सामान्य बुद्धिमान की तरह जनता था कि रिसर्च करने लिए विश्वविद्यालय में रहना और नित्य प्रति पुस्तकालय में बैठना जरुरी नहीं है | इसलिए उसने सोचा था कि कुछ दिन वह गांव में रहकर आराम करेगा , तंदुरुस्ती बनाएगा , अध्ययन करेगा , जरुरत पड़ने पर शहर में जाकर किताबों की अदला -बदली कर आएगा | "
रंगनाथ रेलगाड़ी न मिलने के कारण एक ट्रक से शाम के धुंधलके में शिवपालगंज में आता है | रंगनाथ का शिवपालगंज के वातावरण से परिचय इस प्रकार होता है -" सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उसकी बदबू से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी चल रही थी | आँखों आगे धुंए के जाले नज़र आये | यही शिवपालगंज था | यहीं से रंगनाथ का शिवपालगंज में प्रवेश होता है और जबतक वह ऊबकर शिवपालगंज छोड़ने का मन नहीं बना लेता है , तबतक वह हर घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी रहता है , घटनाएं रंगनाथ के इर्द -गिर्द नहीं घूमती हैं , बल्कि रंगनाथ शिवपालगंज में होने वाली घटनाओं के इर्द -गिर्द घूमता है | इस उपन्यास में घटनाएं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जो किसी भी पात्र को नायक दर्जे तक उठने नहीं देती हैं |
इस उपन्यास में दो महत्वपूर्ण खलनायक है , पहले वैद्य जी तथा दूसरे प्रिंसिपल साहब | इस उपन्यास में महत्वपूर्ण घटना छंगामल विद्यालय इंटरमीडिए कॉलेज , शिवपालगंज में प्रिंसिपल साहब और खन्ना मास्टर के बीच वाईस प्रिंसिपल बनने का झगड़ा है | इस उपन्यास का मुख्य थीम गुटबंदी है | गुटबंदी के पोषक वैद्य जी हैं, और गुटबंदी के वाहक प्रिंसिपल साहब | उपन्यास का पूरा कथा -क्रम विद्यालय में प्रिंसिपल साहब और खन्ना मास्टर के बीच चलने वाली गुटबाज़ी इर्द -गिर्द घूमता है | कथा में कहीं -कही अंतराल आते हैं , जहाँ लंगड़ ,बाबू दूरबीन सिंह , गयादीन , प्रोफेसर बनर्जी , रामाधीन भीखम खेड़वी , मास्टर मोती राम, मालवीय मास्टर , वेला , बद्री पहलवान , रुप्पन बाबू , छोटे पहलवान , सनीचर , जोगनथवा , प ० राधेलाल और कुसहर प्रसाद जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक कथा को गतिशील बनाने का प्रयत्न करता है |
" वैद्य जी अंग्रेजों के ज़माने में अंग्रेजो के लिए श्रद्धा दिखाते थे | देसी हुकूमत के दिनों में वे देशी हाकिमों में श्रद्धा दिखाने लगे | वे देश के पुराने सेवक थे | पिछले महायुद्ध के दिनों में , जब देश को जापान से खतरा पैदा हो गया था , उन्होंने सुदूर -पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराये | अब जरुरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनितिक गुट में सैकड़ो सदस्य भरती करा देते थे | पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर , दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गांव के जमींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे | अब वे कोआपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डायरेक्टर और कॉलेज के मैनेजर थे | वास्तव में वे इन पदों पर काम करना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच नहीं था | हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे राजनिति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मजाक उड़ाते थे | गाँधी की तरह अपनी राजनीतिक पार्टी में उन्होंने कोई पद नहीं लिया था क्योंकि वे वहां नए खून को प्रोत्साहित करना चाहते थे ; पर कोआपरेटिव और कॉलेज के मामले में लोगों ने उन्हें मजबूर होना स्वीकार कर लिया था और उन्होंने मजबूर होना स्वीकार कर लिया था |
वैद्य जी एक पेशा वैद्यक भी था | उन्होंने रोगों के दो वर्ग बना रखे थे : प्रकट रोग और गुप्त रोग | वे प्रकट रोगो की चिकित्सा प्रकट रूप से और गुप्त रोगों की चिकित्सा गुप्त रूप से करते थे | रोगों बारे में उनकी एक एक थ्योरी थी कि सभी रोग ब्रह्मचर्य के नाश से पैदा होते हैं | ब्रह्मचर्य के नाश का क्या नतीजा होता है , इस विषय पर वे बड़ा खौफनाक भाषण देते थे| सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि जिंदगी में तीन बार के बाद चौथी बार ब्रह्मचर्य का नाश करना हो तो पहले अपनी कब्र खोद लेनी चाहिए | इस इंटरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढंग से पेश करते थे कि लगता था सुकरात उनके आज भी अवैतनिक सलाहकार हैं | "
वैद्य जी के बारे में गयादीन ने रुक-रुक कर एक किस्सा सुनाया - " हमारे इलाके में बहुत दिन हुए एक माता परसाद हुए थे | इस इलाके के वे पहले नेता थे | लोग उनकी बातें बड़े प्रेम से सुनते थे | जरुरत पड़ने पर जेल भी जाते थे , तब लोग उनकी याद और प्रेम से करते थे | जब वे जेल से वापस आते तो लोग ज्यादातर उनसे इसी तरह की बातें करते रहते कि जोश में आकर वे फिर जेल चले जाऍं | एक बार वे कई साल बिना जेल जाए हुए रह गए | इसका नतीजा यह हुआ की लोग उनके व्याख्यानों से ऊबने लगे | जमींदारी -विनाश , स्त्री-शिक्षा , विदेशी चीजों और शराब की दुकानों का बहिष्कार इन विषयों पर उनके व्याख्यान लोगों को इस तरह याद हो गए कि जब वे बोलने खड़े होते तो स्कूली लड़के उनके कुछ कहने से पहले ही उनके व्याख्यानों को टुकड़े -टुकड़े करके उसे दोहरा देते | उनके कहने के लिए कुछ बचता ही नहीं था | जब चंदा मांगने के लिए जाते तो लोग समझते कि वह भीख मांग रहा है | वे जब भारत माता की जय बोलते तो लोगों लगता कि वे अपने खानदान का प्रचार कर रहा है और जब वे जमींदारी -विनाश की बातें करते तो लोग जान जाते कि वह बिना लगान दिए ही दस साल पार कर जाना चाहता है | मतलब यह कि माता परसाद की लीडरी उस इलाके में पांच साल चली , बाद में उन्हें लगा कि कुछ जम नहीं रहा है तब मुझे ही समझाना पड़ा कि भैया माता परसाद , लीडर में जो गुण होना चाहिए वह तुममे नहीं है | चाहिए यह कि लीडर तो जनता की नस-नस की बात जानता हो , पर जनता लीडर के बारे में कुछ भी न जानती हो | यहाँ सब बात उलटी है | तुम खुद तो जनता का हाल जानते नहीं हो पर जनता तुम्हारी नस-नस से वाकिफ है | इसलिए यह इलाका लीडरी में तुम्हारे मुआफ़िक नहीं आ रहा है | तुम या तो यहां से किसी दूसरे इलाके में चले जाओ या कुछ दिनों के लिए जेल हो आओ | माता परसाद मेरी बात मान कार जेल चले गए | उसी के साल भर बाद किसी दूसरे जिले से तुम्हारे मामा वैद्य जी यहाँ आए | उनके बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम था , लोग सिर्फ इतना जानते थे कि उनकी काली -काली मूछें हैं,मजबूत देह है और वीर्य पुष्टि की दवाओं की धाक है | उन्होंने कोआपरेटिव सोसाइटी बनाई , यहाँ एक मिडिल स्कूल खुलवाया और अपना आयुर्वेदिक दवाखाना खोला और जबतक कि लोग जान पाए कि वे किसके कौन हैं , वे यहाँ के नेता बन बैठे | एक गाँव की जमींदारी भी उन्होंने रेहन में रख ली | कोआपरेटिव में कर्ज़ा देर से मिलने के कारण किसी को तकलीफ न हो , इसलिए साथ -साथ अपना रुपिया भी क़र्ज़ पर चलाना शुरू कर दिया | उधर माता परसाद जेल में पड़े रहे और इधर ये लड़ाई में सिपाहियों की भर्ती कराने लगे | शहर की अमन सभाओं में जाने लगे | आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने जमींदारी के विरोध में रेहन वाला गाँव बिकवा दिया और रुपिया लेकर भूतपूर्व जमींदार कहलाने से बच गए | उधर माता परसाद जेल से निकलकर सरकारी पेंशन लेकर शहर में अपना पेट पालने लगे ,इधर, बाबू रंगनाथ तुम्हारे मामा अकेले डील पूरा इलाका बन गए |
बाबू रंगनाथ , लीडरी ऐसा बीज है जो अपने घर से दूर की ही जमीन में पनपता है | इसलिए यहाँ मैं लीडरी नहीं कर सकता | लोग मुझे बहुत ज्यादा जानते हैं | उनमें मेरी लीडरी न चल पायेगी | कुछ बोलूंगा तो कहेंगे , देखो गयादीन लीडरी कर रहे हैं |
और इस खन्ना मास्टर के लिए तो मैं वैसे भी लीडरी नहीं करुँगा | जिनके कुछ शऊर ही नहीं है , उनके लिए कहाँ तक वकालत की जाए | लौंडों की दोस्ती जी का जंजाल |
उपन्यास के अंत में वैद्य जी खन्ना मास्टर से कहते हैं " यह विद्यालय मेरा बनाया हुआ है | इसे मैंने अपने रक्त से सींचा है | आप दोनों पक्ष केवल वेतनभोगी हैं | यहाँ नहीं तो वहाँ जाकर अध्यापक हो जायेंगे | कहीं भी अध्यापक हो जायेंगे | अच्छा वेतन पाने लगेंगे | पर मैं यहीं रहूँगा | यह विद्यालय सफलता पूर्वक चला तो अपने को सफल मानूँगा | यह पार्टीबंदी में नष्ट होने लगा अपने को नष्ट समझूँगा | मुझे कष्ट है | अपार कष्ट है | आन्तरिक व्यथा है | मेरी व्यथा आप लोग नहीं समझ सकते हैं | मुझे अब केवल एक मार्ग दिखाई देता है | मैंने निर्णय कर लिया है मेरी आप से करबद्ध प्रार्थना है कि आप वह निर्णय मान लें | आप के लिए वही एक अकेला मार्ग है | आपको उसी पर चलना है | खन्ना जी और मालवीय जी , मैं औरों से नहीं कहता , केवल आपसे कह रहा हूँ | आपको इस्तीफा देना होगा | और वे बद्री पहलवान और अन्य गुंडों के सहारे मालवीय और खन्ना मास्टर जबरदस्ती से इस्तीफा ले लेते हैं |
दूसरे खलनायक प्रिंसिपल साहब है जो वैद्य जी के रिस्तेदार हैं | " प्रिंसिपल साहब पास के गाँव के रहने वाले थे | दूर -दूर के इलाकों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे | एक तो खर्च का फ़र्ज़ी नक्शा बना कर कॉलेज के लिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए , दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए | जब वे फ़र्ज़ी नक्शा बनाते थे तो बड़ा से बड़ा ऑडिटर भी उसमे कलम नहीं लगा सकता था | जब वे अवधी में बोलने लगते थे तो बड़ा से बड़ा तर्कशास्त्री भी उनका जबाब न दे सकता था | प्रिंसिपल साहब यूनिवर्सिटी में पढ़े थे और थर्ड डिवीज़न में पास हुए थे | उनके थर्ड डिवीज़न में पास होने का किस्सा था कि वे एक उबाऊ प्रोफेसर बनर्जी से भीड़ गए थे और प्रोफेसर बनर्जी उनसे उखड़ गए थे और ऐसे उखड़े की उनकी डिवीज़न ही बिगाड़ दी | पर प्रिंसिपल साहब को प्रिंसिपल पद से संतोष था | वे कहते थे कि यूनिवर्सिटी की वाईस चांसलरी में क्या रखा है | स्टूडेंट यूनियन वाले माँ बहन की गाली देते हुए सामने से निकल जाते हैं और वाईस चांसलर भकुआ जैसे तकते रह जाते है | यहाँ तो बस एक वैद्य महाराज का जूता चाटो और सभी से जूते से बात करो | प्रिंसिपल साहब का यही फण्डा था जिसके बलबूते वे प्रिन्सिपली करते थे |
इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पात्र सनीचर है | उसका असली नाम मंगल था किन्तु लोग उसे सनीचर कहते थे | उसका काम वैद्य जी की बैठक में बैठना था | वह दो व्यक्तित्व से प्रभावित था | स्वर्ग में हनुमान जी और भू लोक में वैद्य जी | वह हनुमान जी का भक्त था | चूँकि हनुमान जी लंगोट पहनते थे इसलिए वह अंडरवियर पहनता था जो महत्वपूर्ण स्थानों पर फट गया था | वैद्य जी सनीचर को गाँव प्रधानी का चुनाव लड़वाते हैं और वह प्रधान बन जाता है |
रुप्पन बाबू स्थानीय छात्र नेता हैं | और वैद्य जी के छोटे पुत्र है | वे आधुनिक छात्र नेताओं के प्रतिनिधि भी हैं | बाद में वे खन्ना मास्टर के गुट में शामिल हो जाते हैं और वैद्य जी के कोप भाजन का शिकार बनते हैं |
बद्री पहलवान वैद्य जी के बड़े बेटे हैं | पहलवानी करते हैं और दूसरे गाँव में आटा चक्की चलाते हैं | छोटे पहलवान उनके शिष्य हैं | बद्री पहलवान गुण्डों को पालते हैं | जहाँ भी बल प्रयोग की जरुरत होती है उन्हें याद किया जाता है | उपन्यास में थोड़ा सा प्रेम प्रसंग है | इस प्रेम- प्रसंग की साजिश में बद्री पहलवान और बेला का नाम सामने आता है | जिससे रुप्पन बाबू को दुःख होता है |
एक पात्र मास्टर मोती राम हैं जो किसी तरह से बी ० एस -सी ० पास हैं | वे आटा चक्की चलाते हैं और साइंस पढ़ाते हैं | उनका ज्ञान -बोध आटा चक्की के दायरे में होता है वे किसी भी विषय की चर्चा आटा चक्की के ही दायरे में करते हैं | वही एक ऐसे मास्टर हैं जो किसी भी गुट में नहीं हैं | वे दोनों गुटों के मास्टरों के बीच वार्ता का सेतु बनते हैं |
खन्ना मास्टर इतिहास पढ़ाते हैं और वे प्रिंसिपल साहब और वैद्य जी का विरोध करते हैं | रुप्पन बाबू और उनके गुट के कुछ छात्रों को अपने गुट में मिलाकर वाईस प्रिंसिपल बनने की गलत इच्छा पाल लेते हैं | जिसका खामियाजा उन्हें इस्तीफा देकर भुगतना पड़ता है |वादी मालवीय मास्टर एक चरित्रहीन मास्टर है जो बच्चों को सिनेमा दिखाने के बहाने फुसलाकर शहर ले जाते हैं और उनके साथ अश्लील हरकतें करते हैं | ये खन्ना मास्टर के गुट में शामिल हो जाते है| इनको भी जबरदस्ती इस्तीफा देना पड़ता है |
एक पात्र लंगड़ है जिसका कथा क्रम की मुख्य भूमिका से कोई सम्बन्ध नहीं है | किन्तु उपन्यास में लंगड़ ही एक ऐसा पात्र है जिसमें हीरो बनने की क्षमता है | किन्तु लेखक लंगड़ को हीरो न बनाकर एक चरित्र अभिनेता तक ही सीमित कर देता है | "लंगड़ बड़ा भगत आदमी है | दादू और कबीर के भजन गाया करता था | गाते -गाते थक गया तो उसके लिए दिन कटने मुश्किल हो गए | तो उसने बैठे ठाले अपने बेटों पर एक दीवानी मुकदमा ठोंक दिया | " लेखक बताता है कि पूर्वजन्म के सिद्धान्त की ईजाद भारत की दीवानी अदालतों में हुई है जिसमें वादी मुकदमा करके बड़े इत्मीनान से मर सकता है कि फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म पड़ा ही है | लंगड़ को मुकदमा खड़ा करने के लिए एक पुराने मुकदमे की नक़ल की जरुरत थी | उसने दरखास्त लगायी | घूस का रेट दो रुपये था | लंगड़ दो रुपये घूस देने के लिए तैयार था , किन्तु नक़ल बाबू पाँच रुपये घूस माँगा जिससे दोनों में कहा -सुनी हो गयी | बात यहाँ तक आ गयी कि नक़ल बाबू इस जिद पर आ गया कि एक पैसा नहीं लेगा नक़ल कायदे से देगा , और लंगड़ भी जिद पर आ गया कि एक पैसा घूस नहीं देगा और नक़ल कायदे से लेगा | पूरा उपन्यास समाप्त हो जाता है किन्तु लंगड़ को नक़ल नहीं मिलती है | चक्कर कायदे का है | इसे वैद्य जी धर्म की लड़ाई कहते हैं | इस उपन्यास में लंगड़ ही एक ऐसा पात्र है , जिसमें धीरज है , लड़ने की क्षमता है , वह व्यवस्था में बार-बार हारता है किन्तु अपनी लड़ाई नहीं छोड़ता है | किन्तु यह पात्र उपन्यास में हाशिये पर है |
इस उपन्यास में कोई भी महिला पात्र केंद्रीय भूमिका में नहीं है | लेखक थोड़ी बहुत चर्चा बेला की करता है जो एक अजीबोगरीब प्रेम -प्रसंग के मामले में आती है | एक और औरत जो पं ० राधे लाल की बीबी है जिसे वे बंगाल से भगा कर लाये हैं की चर्चा होती है | लगता है कि शिवपाल गंज में महिलाओं और बच्चों की कोई भूमिका नहीं है | इसलिए लेखक ऐसे पात्रों का चुनाव नहीं किया है |
उपन्यास का संग्राम क्षेत्र छंगामल विद्यालय इंटरमीडिएट कॉलेज और कोआपरेटिव यूनियन है | विद्यालय में गुटबंदी होती है तथा कोआपरेटिव यूनियन में गबन होता है | यही उपन्यास की दो महत्वपूर्ण घटनाएं हैं |
इस उपन्यास में एक विचित्र पात्र जोगनाथ है जो विचित्र भाषा सर्फरी बोलता है | सर्फरी भाषा दारु के प्रभाव से जीभ के लड़खड़ाने पर निकलने वाली बोली है जिसे शिवपालगंज वाले आसानी से समझ जाते हैं |
राममधीन भीखमखेड़वी विरोधी दल में हैं जो कलकत्ते में अफीम की तश्करी में सजा काटकर गांव में आये हैं | यहाँ जुआ केंद्र चलाते हैं | पहले उनके भाई प्रधान थे | बाद में वैद्य जी का प्रतिनिधि सनीचर प्रधान बन जाता है |
इस उपन्यास में लेखक कोमल भावनाओं का सृजन नहीं कर पाता है उपन्यास बिलकुल संवेदनहीन है | एक जगह लंगड़ की दयनीय दशा को देखकर रंगनाथ के मन में सहानिभूति की एक कंछी फूटती भी है तो सनीचर के माध्यम से लेखक उसे तोड़ देता है | रंगनाथ के मन में बात उठी कि कुछ करना चाहिए पर उसे समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिए | उसके मुँह से अचानक फूट पड़ा " कुछ करना चाहिए "| सनीचर ने उसकी बात को लपक लिया , और बोला " रंगनाथ दादा कोई किसी के लिए क्या कर सकता है | जिसके छिलता है उसी के चुनमुनाता है | आज आदमी अपना ही दुःख दर्द ढ़ो ले वही काफी है | अब तो हालत यह है कि हम अपना दाद इधर से खुजलायें तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ | "
इस उपन्यास में कोई भी मुस्लिम पात्र नहीं है | जबकि जिस समय यह उपन्यास लिखा गया है | भारतीय समाज देश विभाजन की त्रासदी से जूझ रहा था | साम्प्रदायिकता तत्कालीन समाज की ज्वलंत समस्या थी और आज भी है | लेखक उन समस्याओं की झलक भी नहीं देता है | लेखक चूँकि प्रशासनिक पद पर रहा है अतः ऐसे पहलुओं पर लिखना नौकरी के लिए खतरा भी हो सकता है | लेखक दलितों की समस्याओं को भी नज़रअंदाज करता है | कही -कहीं अवचेतन मन की खुराफात के चलते चंद शब्द शूद्रों के लिए निकल आते हैं | वह ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याओं को अपने व्यंग का विषय नहीं बनाता है | वह एक सुदूर गांव शिवपालगंज को चुनता है | वहाँ दो -चार छोटे -मोटे कर्मचारी हैं | एक थानेदार है | थाने में कुछ सिपाही हैं | एक परिवार नियोजन का कर्मचारी है | एक ग्राम सेक्रेटरी है | एक मलेरया इंस्पेक्टर है | विकास खण्ड की कुछ भूमि सुधार सम्बन्धी योजनाएं भर हैं | जैसे एक बड़ा अधिकारी छोटे अधिकारी का खूच्चड़ निकलता है और अपने बड़े अधिकारी के आगे डिसिप्लिन में रहता है | चाहे बड़ा अधिकारी कितना भी बेढंगा हो , सेवा काल के दौरान उसमें गुण ही गुण नज़र आते है | ऐसा ही यहाँ कुछ दिखाई देता है | किन्तु शुक्ल जी की यह विशेषता है कि वे सरकारी तंत्र में प्रशासनिक पद पर रहते हुए उस तंत्र की सुविधाजनक तरीके से खामियों को दिखाते हैं | जैसे कोनराड ने " हार्ट ऑफ़ डार्कनेस " में साम्राज्य की गाथा गाते हुए उसकी खामियों को दिखा देते हैं | उसी तरह श्रीलाल शुक्ल अपनी कृतियों में व्यवस्था की खामियों को उजागर करते हैं |
इस उपन्यास के कुछ शाश्वत चरित्र जैसे वैद्य जी , रुप्पन बाबू ,सनीचर ,जोगनाथ। काने पंडित राधेलाल , छोटे पहलवान और कुसहर प्रसाद , रामाधीन भीखमखेड़वी , लंगड़ , प्रिंसिपल साहब , मास्टर मोतीराम और गयादीन अपने देश के सभी गाँवों में किसी न किसी रूप में मिल जाते हैं | इन्ही पात्रों के चलते उपन्यास में कालजयिता के गुण आये हैं | ये भारतीय समाज की यथार्थभूत संरचना के अंग हैं | इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शुक्ल जी चरित्र गढ़ने में सिद्धहस्त लेखक हैं | वैद्य जी का चरित्र किसी भी दकियानूस नेता पर साफ़ बैठता है | प्रिंसिपल साहब किसी भी मैनेजमेंट वाले विद्यालय के प्रिंसिपल हो सकते हैं | गयादीन , वेला , बद्री पहलवान और जोगनाथ तो लगभग सभी गाँव में हैं |
शुक्ल जी के शब्दों में गाँव और शहर में अंतर इतना है कि शहर में हर समस्या के आगे एक समाधान है , लेकिन गाँव में हर समाधान के आगे एक समस्या है |
छोटे पहलवान और उनके बाप कुसहर प्रसाद में मारपीट होती है | मामला पंचायत में पहुँचता है | पंचायत का पूरा परिदृश्य प्रहसन का मंच बनता है | उसी तरह गयादीन के घर में एक चोर घुसता है | चोर जब भागता है तो बेला की बुआ को चोर की पीठ भर दिखाई देती है , चोर पहचान में नहीं आता है | यह भी एक प्रहसन का पुट है |
स्थानीय भाषा के शब्द और मुहावरे उपन्यास की कथन शैली को प्रभावी बनाते हैं | जैसे - हम यहीं चुरैट है| तुम वहाँ बैठे -बैठे क्या उखाड़ रहे हो | क्या सिलिर -बिलिर कर रहे हो | लदड़-फ़दड़ हो गया आदि |
शुक्ल जी उपन्यास में अज्ञेय को सुबुक -सुबुकवादी लेखक बताते हैं | मैथली शरण गुप्त के ' अहा ग्राम्य जीवन ' के आकर्षण को ख़ारिज करते हैं | गिरिजा प्रसाद माथुर का कथन " दुःख आदमी को मांजता है " को वीभत्स यथार्थ की कसौटी पर कसते हैं | और देहाती रिक्शेवाले पर लागू करते हैं कि दुःख पहले आदमी को फिचता है फिर उसे निचोड़ता है और निचोड़ कर उसपर कुछ काली सफ़ेद आड़ी - तिरछी रेखाएं खींचकर उसे घुग्घू तरह सड़क पर घूमने के लिए छोड़ देता है |
लेखक को देश में शिक्षा के गिरते स्तर को लेकर चिंता है | जैसे वर्तमान शिक्षा रास्ते में पड़ी कुतिया है जिसे कोई भी लात मार सकता है | रंगनाथ रिसर्च करने को घास खोदना बताता है और ट्रक के ड्राइवर को समझाता है कि वह एम ० ए ० करने के बाद नौकरी न मिलने के कारण वह घास खोद रहा है जिसे अंग्रेजी में रिसर्च कहते है|
छंगामल विद्यालय इंटरमीडिएट कॉलेज के छात्र कक्षा में जेबी जासूस और फ़िल्मी पत्रिकाएं पढ़ते हैं | घर पर गुप्त साहित्य पढ़ते हैं | परीक्षा में धुँवाधार नकल होती है | जो मास्टर नकल नहीं करने देते हैं परीक्षा के बाद परीक्षार्थी उन्हें पीट देते हैं | क्योंकि वे उनके नकल करने के मूल अधिकार से उन्हें वंचित करते हैं |
एक पात्र कामता प्रसाद है जो सरकारी पैसे के लिए सरकारी पैसे पर जीवित रहता है | उसका काम सरकारी योजनाओं में आने वाले पैसे को हड़प जाना है |
इस उपन्यास में पतनोन्मुख यथार्थ को दर्शाया गया है | लेखक मूल्यहीन , पतनशील , संस्कृतिविहीन , स्वार्थी समाज का दर्शन करता है | जो अति आधुनिक समाज का एक यह भी चेहरा है | और यह चेहरा दिन पर दिन स्पष्ट होता जा रहा है |
रागदरबारी के बाद एक चर्चित उपन्यास 'बिस्रामपुर का संत' है जिसमे भूदान आंदोलन पर व्यंग है | इसमें एक सेवानिवृत राज्यपाल की कहानी है किन्तु यह उपन्यास रागदरबारी की तुलना में परिपक़्व नहीं है | इसे सेवानिवृत साहित्य का दर्जा दिया जा सकता है जो एक रिटायर जिंदगी की तरह उबाऊ है |
आदमी का जहर , एक सनसनीखेज उपन्यास है | जो एक जासूसी उपन्यास होते -होते बच गया है | इसमें एक ठाकुर साहब बीमार पड़ते हैं | अस्पताल में भरती होते हैं | उन्हें एक नर्स से एकतरफा प्रेम हो जाता है | नर्स के सानिध्य में रहने के लिए वे ठीक होना नहीं चाहते हैं | नर्स प्रेम का छलावा करती है | उनकी जायदाद लिखवा लेती है और उनको जहर दे देती है | किन्तु परस्थितियां इतनी उलझी हुई हैं कि जहर देने का शक कई लोगों पर होता है | उपन्यास की कथा जासूसी उपन्यासों की पेचीदगियों में उलझता सुलझता है |
श्रीलाल शुक्ल की अंतिम पुस्तक " जहालत के पचास साल " है | इसमें कुल मिलाकर सौ निबंध है | किन्तु इस पुस्तक की विशेषता है कि पुस्तक के शीर्षक का कोई भी निबंध इस पुस्तक में नहीं है | इन सौ निबंधों को पढ़ना भी एक जहालत है | इसमें कुछ निबंध जैसे - ' ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल ','मनीषी जी ', रविंद्र जन्मशती की रिपोर्ट ', घुड़सारी घुड़सरी का कवि सम्मलेन ', 'अंगद के पांव ', कुंता देवी का झोला ', 'दुभाषिये ', उमराव नगर में कुछ दिन ', चंद खाटूटें जो हसीनों के नहीं , होरी और 1984 आदि वास्तव में पढ़ने लायक हैं |
इसमें से रविंद्र जन्मशती की रिपोर्ट को उपन्यास रागदरबारी के परिशिष्ट में जोड़ देना चाहिए | ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल में उस्ताद मोटर चलना नहीं जानते हैं लेकिन मोटर ड्राइव करना सिखाते हैं | जब परिवहन इंस्पेक्टर उनका लाइसेंस मांगता है तो वे कहते हैं कि मेरा लाइसेंस नहीं बना है | तब वह पूछता है कि बिना लाइसेंस के वे गाड़ी चलाना कैसे सिखाते है | वे जबाब देते हैं - खुद गाड़ी चलाना दूसरी बात है और दूसरे को गाड़ी चलाना सिखाना दूसरी बात है | वे कई उदाहरण देते है जैसे - खेल मंत्री को खेल के बारे में कोई जानकारी नहीं है लेकिन वे खेल मंत्री हैं | स्वास्थ्य मंत्री चिकित्सा के बारे में कुछ नहीं जानते हैं लेकिन स्वास्थ्य मंत्री हैं | वित्त मंत्री को सीधा -सादा हिसाब -किताब नहीं आता है | लेकिन वे पूरे देश की अर्थव्यवस्था को देखते हैं | खुद परिवहन इंस्पेक्टर संस्कृत से एम् ० ए० थे और परिवहन विभाग देखते थे |
रागदरबारी उपन्यास का समापन लेखक एक पलायन संगीत से करता है | लेखक का निष्कर्ष है कि यथार्थ पीछा कर रहा है | " भागो -भागो क्योंकि यथार्थ का मुकाबला नहीं कर सकते हो | " जहाँ आदमी रहता है | अपनी जिंदगी किसी तरह से जीता है | वह लेखक को यथार्थ की तरह नहीं लगता है | लेखक यथार्थ से पीछा छुड़ाने के लिए अध्यात्म , एन० जी ० ओ ० ,ज्योतिष, अजंता -एलोरा या कही भी छिपने की सलाह देता है | लेखक का मानना है कि इन जगहों को तलाश लेने पर यथार्थ पीछा करना छोड़ देता है | या इन जगहों में छिप जाने पर यथार्थ लोगों को ढूंढ़ नहीं पाता है | यथार्थ जब किसी को पकड़ नहीं पाता है तो श्रीलाल शुक्ल जैसे लेखकों के चंगुल में फँस जाता है और पलायन संगीत के रूप में स्वरित होता है | आदमी से कहानी उठती है और एक मदारी के जमूरे और बन्दर -बन्दरिओं पर समाप्त हो जाती है |
इस उपन्यास की विषय वस्तु आज़ादी के भारतीय समाज में आयी मूल्य -हीनता ,नैतिक पतन , जाहिलपन ,और बेईमान बनने की प्रवृत्ति है | लेखक जीवन की अर्थहीनता को अपनी भाषायी जादूगरी से रोचकता पूर्वक प्रस्तुत करता है | जीवन मूल्यहीन है | इसे शिवपाल गंज के निवासियों की तरह जीया जा सकता है | इस उपन्यास में लेखक विद्रूपतामुखी यथार्थवादी या अति यथार्थवादी ( suurelist ) लगता है | लेखक एक विभत्स यथार्थ को " रागदरबारी " उपन्यास के माध्यम से उभारता है | विखंडनवादी आलोचना के अनुसार उपन्यास के पाठ में कोई भी पात्र ऐसा नहीं दिखता है जो इन परिस्थितियों में लड़ने के लिए खड़ा हो | विविक्षित रूप से लेखक के मन -मस्तिष्क में कहीं न कहीं मूल्यों का एक खाका है , जो उसके कथानक में टूटता नज़र आता है | लेखक उन्ही मूल्यों की विसंगतियों को दर्शाने के लिए " रागदरबारी " में अजीबोगरीब पात्रों का सृजन करता है | जो विभत्स यथार्थ की अतिशयता को दर्शाते हैं | जीवन की अर्थहीनता को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर देना विसंगतिवादी ( absurd ) साहित्य की पहली शर्त है | जिसमे लेखक सफल है |
----- अनिल कुमार शर्मा
शिवधाम कॉलोनी , फतेहपुर सिकंदर , ग़ाज़ीपुर , उत्तर प्रदेश
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------समकालीन सोच वर्ष - २०, अंक-५३ , जनवरी - जून , २०१२ से साभार |