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उसे क्या कहूँ

16 फरवरी 2016

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किन्तु जो तिमिर-पान

औ' ज्योति-दान

करता करता बह गया

उसे क्या कहूँ

कि वह सस्पन्द नहीं था ?


और जो मन की मूक कराह

ज़ख़्म की आह

कठिन निर्वाह

व्यक्त करता करता रह गया

उसे क्या कहूँ

गीत का छन्द नहीं था ?


पगों की संज्ञा में है

गति का दृढ़ आभास,

किन्तु जो कभी नहीं चल सका

दीप सा कभी नहीं जल सका

कि यूँ ही खड़ा-खड़ा ढह गया

उसे क्या कहूँ

जेल में बन्द नहीं था ?

-दुष्यंत कुमार

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रचनाएँ
dushyantkumar
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इस आयाम के अंतर्गत आप हिंदी साहित्यकार दुष्यंत कुमार की कविताएँ पढ़ सकते हैं I
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

15 फरवरी 2016
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिएइस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिएआज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगीशर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिएहर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव मेंहाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिएसिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहींमेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिएमेरे सीने

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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

15 फरवरी 2016
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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान हैआज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिएयह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो,इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दमतू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है इस क़दर पा

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कुछ भी बन बस कायर मत बन

16 फरवरी 2016
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कुछ भी बन बस कायर मत बन,ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।कुछ भी बन बस कायर मत बन।युद्ध देही कहे जब पामर,दे न दुहाई पीठ फेर करया तो जीत प्रीति के बल परया तेरा पथ चूमे तस्करप्रति हिंसा भी दुर्बलता हैपर कायरता अधिक अपावनकुछ भी बन बस कायर मत बन।ले-दे कर जीना क्या जीनाकब तक गम के आँसू पीनामानवता

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मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

16 फरवरी 2016
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मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँवो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों मेंमैं जहाँ राह भूल जाता हूँ तू किसी रेल-सी गुज़रती हैमैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ हर तरफ़ ऐतराज़ होता हैमैं अगर रौशनी में आता हूँ एक बाज़ू उखड़ गया जबसेऔर ज़्यादा वज़न उठाता हूँ मैं तुझे भूलने की कोशिश मेंआज कितने क़रीब पाता हूँ

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उसे क्या कहूँ

16 फरवरी 2016
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किन्तु जो तिमिर-पानऔ' ज्योति-दानकरता करता बह गयाउसे क्या कहूँकि वह सस्पन्द नहीं था ?और जो मन की मूक कराहज़ख़्म की आहकठिन निर्वाहव्यक्त करता करता रह गयाउसे क्या कहूँगीत का छन्द नहीं था ?पगों की संज्ञा में हैगति का दृढ़ आभास,किन्तु जो कभी नहीं चल सकादीप सा कभी नहीं जल सकाकि यूँ ही खड़ा-खड़ा ढह गयाउसे

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फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

16 फरवरी 2016
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अब अंतर में अवसाद नहीं चापल्य नहीं उन्माद नहीं सूना-सूना सा जीवन है कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं तव स्वागत हित हिलता रहता अंतरवीणा का तार प्रिये ..इच्छाएँ मुझको लूट चुकी आशाएं मुझसे छूट चुकी सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ मेरे हाथों से टूट चुकी खो बैठा अपने हाथों ही मैं अपना कोष अपार प्रिये फिर कर लेने

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जा तेरे स्वप्न बड़े हों

16 फरवरी 2016
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जा तेरे स्वप्न बड़े हों।भावना की गोद से उतर करजल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लियेरूठना मचलना सीखें।हँसेंमुस्कुराऐंगाऐं।हर दीये की रोशनी देखकर ललचायेंउँगली जलायें।अपने पाँव पर खड़े हों।जा तेरे स्वप्न बड़े हों।-दुष्यंत कुमार

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पक गई हैं आदतें

17 फरवरी 2016
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पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहींकोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लोधूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं बूँद टपकी थी मगर वो बूँदो—बारिश और हैऐसी बारिश की कभी उनको ख़बर होगी नहीं आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम हैपत्थरों में चीख़ हर्गिज़ कारगर होगी नहीं आप

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आज सड़कों पर लिखे हैं

17 फरवरी 2016
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलव

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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

17 फरवरी 2016
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ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जातीज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती इन सफ़ीलों में वो दरारे हैंजिनमें बस कर नमी नहीं जाती देखिए उस तरफ़ उजाला हैजिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती शाम कुछ पेड़ गिर गए वरनाबाम तक चाँदनी नहीं जाती एक आदत-सी बन गई है तूऔर आदत कभी नहीं जाती मयकशो मय ज़रूर है लेकिनइतनी कड़वी कि पी नहीं जाती मुझक

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