सोच तो सोच ही होती है ,चाहे वो'' नकारात्मक ''हो या ''सकारात्मक'' ! हम सोचते नहीं -कि हमें कब और क्या सोचना है ?वरन परिस्थितियों के आधार पर हमारी सोच स्वतः ही परिवर्तित हो जाती है। कहने और सुनने में आता है ,अच्छा सोचिए ,अच्छे कर्म करिये ,ताकि हमारा मन भी प्रसन्न रहे। अच्छा सोचने से अच्छे -अच्छे विचार मन में आते हैं ,हमारे अंदर ''सकारात्मकता ''भर जाती है और हम दूने उत्साह से अपने कार्य में जुट जाते हैं। किंतु ये सब हमारे वश में नहीं होता ,परिस्थतियाँ हमेशा बदलती रहती हैं और परिस्थितियों के आधार पर हमारी सोच ,हमारे विचार भी बदलते रहते हैं। विपरीत परिस्थिति आने पर ,हमारी सोच भी नकारात्मक हो जाती है और हम निराशा ,उदासी ,एकांत के घेरे में फंस जाते हैं। तब हमें सब गलत ही नजर आता है। कई बार तो ,हमें वो भी नजर आने लगता है जिसे हम देख और समझ भी नहीं पा रहे थे।
ये दोनों तरह की परिस्थितियां ,एक तरह से हमारी ज़िंदगी के टास्क हैं कि हम किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करते हैं। आगे बढ़ते हैं या निराश होकर बैठ जाते हैं। निराशाजनक परिस्थिति में ,व्यक्ति अपने को उससे ऊपर कैसे उठाता है ?उस परिस्थति में सम्भलता है या फिर टूट जाता है। यही तो हमारी परीक्षा का समय है। उसमे हम पास होते हैं या फेल। अपने आत्मविश्वास के साथ ,अपनी प्रतिभा के बल पर ,हम कैसे उन परिस्थितियों पर विजय पाते हैं। हर समय परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं होतीं न ही हमारे अनुसार जिंदगी चलती है। इसीलिए सोच पर भी हमारा वश नहीं है ,हम हमेशा सकारात्मक सोचने का प्रयत्न तो कर सकते हैं किन्तु नकारात्मक सोच तो जैसे इसी प्रतीक्षा में रहती है -कि कब ये व्यक्ति कमज़ोर पड़े ? और मैं उसकी सोच पर हावी हो जाऊँ।
सकारात्मकता के साथ ,अच्छे कर्म करते रहिये ,बाकि सब समय पर छोड़ दीजिये। यदि पहले से ही नकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ेंगे ,तो कोई भी कार्य सही या ठीक नहीं हो पायेगा। अच्छा करने ,सोचने पर भी कई बार कार्य बिगड़ भी जाते हैं ,किन्तु एक नंबर उस समय की परिस्थति का भी रखिये ,यदि कुछ ऐसा होता भी है ,तब हमें कैसे उबरना है ?कैसे ,अपने आत्मविश्वास को डगमगाने नहीं देना है ?कई बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ -मैंने कोई कार्य अपने हाथ में लिया और वो मेरी इच्छानुसार नहीं हो पाया जैसा मैं चाहती थी। उसे दुबारा किया ,तिबारा किया हो गया और हो गया। कई बार मैं ,हताश भी हुई ,तब मैंने उस कार्य को कुछ समय के लिए छोड़ दिया , उसके कुछ समय या कुछ दिनों पश्चात दुने उत्साह से अपने को तैयार कर वो कार्य किया और हो गया। इसीलिए निराशा तो ज़िंदगी में आती है ,किन्तु उसे अपने पास कितने समय के लिए रखना है ? ये हमारे ऊपर है। निराशा और नकारात्मक विचारों से शीघ्र ही पीछा छुड़ाकर ,सकारात्मक विचारों के साथ ,दूने उत्साह से आगे बढ़ना है ,यही ज़िंदगी है।