नहीं चाहने पर भी, लेख मैं थोड़े–बहुत लिखता ही रहता हूँ, यद्यपि कविताओं की तरह सभी लेखों पर मेरी ममता नहीं रहती। तब भी जो लेख मुझे या उन लोगों को पसन्द आ जाते हैं, जिनके साथ मैं साहित्य पर विचार–विनिमय करता हूँ, उन्हें मंजूषा में सजा देने की इच्छा जरूर जग पड़ती है। वर्तमान संग्रह भी मेरी इसी प्रवृत्ति का फल है। इस संग्रह में ऐसे भी निबन्ध हैं जो मन–बहलाव में लिखे जाने के कारण कविता की चैहद्दी के पास पड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें
बौद्धिक चिन्तन या विश्लेषण प्रधान है। इसीलिए मैंने इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ रखा है, यद्यपि इसमें अनुपातत: नरत्व अधिक और नारीत्व कम है। किन्तु यही अनुपात मेरी कविता में भी रहा है, अतएव आशा करनी चाहिए कि जिन्हें मेरी कविताएँ पसन्द हैं, उन्हें ये निबन्ध भी कुछ आनन्द दे सकेंगे।
—दिनकर
मुजफ्फरपुर
वसंत पंचमी,
सन् 1952 ई.
अर्धनारीश्वर
एक हाथ में डमरू, एक में वीणा मधुर उदार,
एक नयन में गरल, एक में संजीवन की धार।
जटाजूट में लहर पुण्य की शीतलता–सुख–कारी!
बालचन्द्र दीपित त्रिपुण्ड पर बलिहारी! बलिहारी!
प्रत्याशा में निखिल विश्व है, ध्यान देवता!
त्यागो,
बाँटो, बाँटो अमृत, हिमालय के महान् ऋषि! जागो।
फेंको कुद–फूल में भर–भर किरण, तेज दो, तप दो,
ताप–तप्त व्याकुल मनुष्य को शीतल चन्द्रातप दो।
सूख गये सर, सरितय क्षार निस्सीम जलधि का जल है,
ज्ञानघूर्णि पर चढ़ा मनुज को मार रहा मरुथल है।
इस पावक को शमित करो, मन की यह लपट बुझाओ,
छाया दो नर को, विकल्प की इति से इसे बचाओ।
रचो मनुज का मन, निरभ्रता लेकर शरद्गगन की,
भरो प्राण में दीप्ति ज्योति ले शान्त–समुज्ज्वल घन की।
पद्म–पत्र पर वारि–विन्दु–निभ नर का हृदय विमल हो,
कूजित अन्तर–मध्य निरन्तर सरिता का कलकल हो।
मही माँगती एक धार, जो सबका हृदय भिंगोये,
अवगाहन कर जहाँ मनुजता दाह–द्वेष–विष खोये।
मही माँगती एक गीत, जिसमें चाँदनी भरी हो,
खिलें सुमन, सुन जिसे वल्लरी रातों–रात हरी हो।
मही माँगती, ताल–ताल भर जाये श्वेत कमल से,
मही माँगती, फूल कुमुद के बरसें विधुमंडल से।
मही माँगती, प्राण–प्राण में सजी कुसुम की क्यारी,
पाषाणों में गूँज गीत की, पुरुष–पुरुष में नारी।
लेशमात्र रस नहीं, हृदय की पपरी फूट रही है,
मानव का सर्वस्व निरंकुश मेधा लूट रही है।
रचो, रचो शाद्वल, मनुष्य निज में हरीतिमा पाये,
उपजाओ अश्वत्थ, क्लान्त नर जहाँ तनिक सुस्ताये।
भरो भस्म में क्लिन्न अरुणता कुंकुम के वर्षण से,
संजीवन दो ओ त्रिनेत्र! करुणाकर! वाम नयन से।
प्रत्याशा में निखिल विश्व है, ध्यान देवता! त्यागो,
बाँटो, बाँटो अमृत, हिमालय के महान् ऋषि! जागो।
–नजरुल विश्वे या किछु महान सृष्टि–चिर–कल्याण–कर
अर्धेक तार करियाछे नारी, अर्धेक तार नर।
('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)