बग़दाद उस समय तुर्क साम्राज्य की राजधानी था। मुसलमानों ने बसरा से यूनान तक विजय प्राप्त कर ली थी और सम्पूर्ण एशिया ही में नहीं, यूरोप में भी उनका-सा वैभवशाली और कोई राज्य नहीं था। राज्य विक्रमादित्य के समय में उज्जैन की और मौर्यवंश राज्य काल में पाटलिपुत्र की जो उन्नति थी वही इस समय बग़दाद की थी। बग़दाद के बादशाह खलीफा कहलाते थे। रौनक और आबादी में यह शहर शीराज़ से कहीं चढा बढा था। यहाँ के कई ख़लीफा बड़े विद्याप्रेमी थे। उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किये थे। दूर-दूर से विद्वान लोग पठन-पाठन के निमित्त आया करते थे। यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि बग़दाद का सा उन्नत नगर उस समय संसार में नहीं था। बड़े-बड़े आलिम, फाजि़ल, मौलवी, मुल्ला, विज्ञानवेत्त और दार्शनिकों ने जिनकी रचनायें आज भी गौरव की दृष्टि से देखी जाती हैं बग़दाद ही के विद्यालय में शिक्षा पायी। विशेषत: 'मद्रसए नज़मिया' वत्तमान आक्सफोर्ड या बर्लिन की यूनिवर्सिटियों से किसी तरह कम न था। सात-आठ, सहस्र छात्र उनमें शिक्षा पाते थे। उसके अध्यापकों और अधिष्ठाताओं में ऐसे-ऐसे लोग हो गये हैं जिनके नाम पर मुसलमानों को आज भी गर्व है। इस मद्रसे की बुनियाद एक ऐसे विद्या प्रेमी ने डाली थी जिसके शिक्षा प्रेम के सामने शायद कारनेगी भी लज्जित हो जायं। उसका नाम निज़ामुलमुल्कतूसी था। जलालुद्दीन सलजूकी के समय में वह राज्य का प्रधानमंत्री था। उसने बग़दाद के अतिरिक्त बसरा, नेशापुर, इसफ़ाहन आदि नगरों में भी विद्यालय स्थापित किये थे। राज्यकोष के अतिरिक्त अपने निज के असंख्य रुपये शिक्षोन्नति में व्यय किया करता था। 'नजामिया' मद्रसे की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। सादी ने इसी मद्रसे में प्रवेश किया। यह निश्चित नहीं है कि वह कितने दिनों बग़दाद में रहे। लेकिन उनके लेखों से मालूम होता है कि वहाँ फिक़ह (धर्मशास्त्र), हदीस आदि के अतिरिक्त उन्होंने विज्ञान, गणित, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि विषयों का अच्छी तरह अध्ययन किया और 'अल्लामा' की सनद प्राप्त की। इतने गहन विषयों के पण्डित होने के लिए सादी से दस वर्ष से कम न लगे होंगे।
काल की गति विचित्र है। जिस समय सादी ने बग़दाद से प्रस्थान किया उस समय उस नगर पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही की कृपा थी, लेकिन लगभग बीस वर्ष बाद उन्होंने उसी समृध्दशाली नगर को हलाकू खां के हाथों नष्ट-भ्रष्ट होते देखा और अन्तिम ख़लीफा जिसके दरबार में बड़े-बड़े राजा रईसों की भी मुश्किल से पहुंच होती थी, बड़े अपमान और क्रूरता से मारा गया।
सादी के हृदय पर इस घोर विप्लव का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने लेखों में बारम्बार नीतिरक्षा, प्रजापालन तथा न्यायपरता का उपदेश दिया है। उनका विचार था और उसके यथार्थ होने में कोई सन्देह नहीं कि न्यायप्रिय, प्रजा वत्सल राजा को कोई शत्रु पराजित नहीं कर सकता। जब इन गुणों में कोई अंश कम हो जाता है तभी उसे बुरे दिन देखने पड़ते हैं। सादी ने दीनों पर दया, दुखियों से सहानुभूति, देशभाइयों से प्रेम आदि गुणों का बड़ा महत्व दर्शाया है। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके उपदेशों में जो सजीवता दिख पड़ती है वह इन्हीं हृदय विचारक दृश्यों से उत्पन्न हुई हो।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D