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अध्याय 4

11 फरवरी 2022

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शीराज़ में पुनरागमन

तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सादी को जन्‍म–भूमि का स्‍मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थे, वहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सादी ने देशत्याग किया था। लेकिन अब शीराज़ की वह दशा न थी। साद बिन जंग़ी की मृत्यु हो चुकी थी और उसका बेटा अताबक अबूबक राजगद्दी पर था। यह न्याय-प्रिय, राज्य-कार्य-कुशल राजा था। उसके सुशासन ने देश की बिगड़ी हुई अवस्था को बहुत कुछ सुधार दिया था। सादी संसार को देख चुके थे। अवस्था वह आ पहुंची थी जब मनुष्य को एकांतवास की इच्छा होने लगती है, सांसारिक झगड़ों से मन उदासीन हो जाता है। अतएव अनुमान कहता है कि पैंसठ या सत्‍तर वर्ष की अवस्था में सादी शीराज़ आये। यहाँ समाज और राजा दोनों ने ही उनका उचित आदर किया। लेकिन सादी अधिकतर एकांतवास ही में रहते थे। राज-दरबार में बहुत कम आते-जाते। समाज से भी किनारे रहते। इसका कदाचित्‍त एक कारण यह भी था कि अताबक अबूबक को मुल्लाओं और विद्वानों से कुछ चिढ़ थी। वह उन्हें पाखंडी और उपद्रवी समझता था। कितने ही सर्वमान्य विद्वानों को उसने देश से निकाल दिया था। इसके विपरीत वह मूर्ख फ़कीरों की बहुत सेवा और सत्कार करता; जितना ही अपढ़ फ़कीर होता उतना ही उसका मान अधिक करता था। सादी विद्वान भी थे, मुल्ला भी थे, यदि प्रजा से मिलते-जुलते तो उनका गौरव अवश्य बढ़ता और बादशाह को उनसे खटका हो जाता। इसके सिवा यदि वह राज-दरबार के उपासक बन जाते तो विद्वान लोग उन पर कटाक्ष करते। इसलिए सादी ने दोनों से मुंह मोड़ने में ही अपना कल्याण समझा और तटस्थ रहकर दोनों के कृपापात्र बने रहे। उन्होंने गुलिस्तां और बोस्तां की रचना शीराज़ ही में की, दोनों ग्रंथों में सादी ने मूर्ख साधु, फ़कीरों की खूब ख़बर ली है और राजा, बादशाहों को भी न्याय, धर्म और दया का उपदेश किया है। अंध-विश्‍वास पर सैकड़ों जगह धार्मिक चोटें की हैं। इनका तात्पर्य यही था कि अताबक अबूबक सचेत हो जाय और विद्वानों से द्रोह करना छोड़ दे। सादी को बादशाह की अपेक्षा युवराज से अधिक स्नेह था। इसका नाम फ़ख़रूददीन था। वह बग़दाद के ख़लीफ़ा के पास कुछ तुहफ़े भेंट लेकर मिलने गया था। लौटती बार मार्ग ही में उसे अपने पिता के मरने का समाचार मिला। युवराज बड़ा पितृभक्त था। यह ख़बर सुनते ही शोक से बीमार पड़ गया और रास्ते ही में परलोक सिधार गया। इन दोनों मृत्युओं से सादी को इतना शोक हुआ कि वह शीराज़ से फिर निकल खड़े हुए और बहुत दिनों तक देश-भ्रमण करते रहे। मालूम होता है कि कुछ काल के उपरांत वह फिर शीराज़ आ गये थे, क्योंकि उनका देहांत यहीं हुआ। उनकी कब्र अभी तक मौजूद है, लोग उसकी पूजा, दर्शन (जि़यारत) करने जाया करते हैं। लेकिन उनकी संतानों का कुछ हाल नहीं मिलता है। संभवत: सादी की मृत्यु 1288 ई. के लगभग हुई। उस समय उनकी अवस्था एक सौ सोलह वर्ष की थी। शायद ही किसी साहित्य सेवी ने इतनी बड़ी उम्र पायी हो।
सादी के प्रेमियों में अलाउद्दीन नाम का एक बड़ा उदार व्यक्ति था। जिन दिनों युवराज फ़ख़रूद्दीन की मृत्यु के पीछे सादी बगदाद आए तो अलाउद्दीन वहाँ के सुल्तान अबाक़ ख़ांका वजीर था। एक दिन मार्ग में सादी से उसकी भेंट हो गयी। उसने बड़ा आदर-सत्कार किया। उस समय से अन्त तक वह बड़ी भक्ति से सादी की सेवा करता रहा। उसके दिये हुए धन से सादी अपने ब्याह के लिए थोड़ा-सा लेकर शेष दीनों को दान कर दिया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि अलाउद्दीन ने अपने एक गुलाम के हाथ सादी के पास पांच सौ दीनार भेजे। गुलाम जानता था कि शेख़साहब कभी किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहीं, अतएव उसने धूर्तता से एक सौ पचास दीनार निकाल लिये। सादी ने धन्यवाद में एक कविता लिखकर भेजी, उसमें तीन सौ पचास दीनारों का ही जिश्क्र था। अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ, गुलाम को दंड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सादी को दस हजार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से दो दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थे, रुपये कौन देता? इसके बाद अलाउद्दीन ने अपने एक परम विश्‍वस्त मनुष्य के हाथ सादी के पास पचास हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सादी ने एक धर्मशाला बनवा दी। मरते समय तक शेख़शादी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है। 

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रचनाएँ
शेख़ सादी
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। शेख़ सादी मुंशी प्रेमचंद ने इस नाटक में शेख़ मुसलहुद्दीन (उपनाम सादी) का जन्म सन् 1172 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफुद्दीन था। 'शेख़' इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि वृत्ति धार्मिक शिक्षा-दीक्षा देने की थी। लेकिन इनका ख़ानदान सैयद था। जिस प्रकार अन्य महान् पुरुषों के जन्म के सम्बन्ध में अनेक अलौकिक घटनाएं प्रसिध्द हैं उसी प्रकार सादी के जन्म के विषय में भी लोगों ने कल्पनायें की हैं। लेकिन उनके उल्लेख की जरूरत नहीं। सादी का जीवन हिंदी तथा संस्कृत के अनेक कवियों के जीवन की भांति ही अंधकारमय है।
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अध्याय 1

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शेख़ मुसलहुद्दीन (उपनाम सादी) का जन्म सन् 1172 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफुद्दीन था। 'शेख़' इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि उनक

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अध्याय 2

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बग़दाद उस समय तुर्क साम्राज्य की राजधानी था। मुसलमानों ने बसरा से यूनान तक विजय प्राप्त कर ली थी और सम्पूर्ण एशिया ही में नहीं, यूरोप में भी उनका-सा वैभवशाली और कोई राज्य नहीं था। राज्य विक्रमादित्य क

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अध्याय 3

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भ्रमण मुसलमान यात्रियों में इब्‍नबतुता (प्रख्‍यात यात्री एवं महत्‍वपूर्णग्रं‍थ ‘सफ़रनामा’ का लेखक) सबसे श्रेष्‍ठ जाता है। सादी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उनकी यात्रायें 'बतूता' से कुछ

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अध्याय 5

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चरित्र सादी उन कवियों में हैं ... जिनके चरित्र का प्रतिबिंब उनके काव्‍य रूपी दर्पण में स्‍पष्‍ट दिखाई देता हैं। हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उप

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अध्याय 7

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गुलिस्तां हम गुलिस्‍तां की कुछ कथाऍं देते हैं जिनसे पाठकों को भी सादी के लेखन कौशल का परिचय दे सकें।गुलिस्तां में आठ प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण में नीति और सदाचार के भिन्न-भिन्न सिध्दांतों का वर्णन

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अध्याय 8

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फ़ारसी साहित्‍य की पाठ्य पुस्‍तकों में गुलिस्‍तां के बाद बोस्‍तां का ही प्रचार है । यह कहने में कुछन होगी कि काव्यग्रंथों में बोस्तां का वही आदर है जो गद्य में गुलिस्तां का है। निज़मी का सिकन्दरनामा,

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अध्याय 9

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सादी की लोकोक्तियॉं किसी लेखक की सर्वप्रियता इस बात से भी देखी जाती है कि उसके वाक्‍य और पद कहावतों के रूप में कहाँ तक प्रचलित हैं। मानवचरित्र, पारस्परिक व्यवहार आदि के संबंध में जब लेखक की लेखनी से

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अध्याय 10

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गज़लें ग़जल फारसी कविता का प्रधान अंग है । कोई कवि, जब तक व‍ह गज़ल कहने में निपुर्ण न हो। गज़लें समाज में आदर का स्थान नहीं पाता। यों तो गज़ल शृंगार का विषय है, किन्तु कवियों ने इसके द्वारा सभी रसों

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अध्याय 11

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क़सीदे कसीदा फ़ारसी कविता के उस अंग को कहते हैं जिसमें कवि किसी महान पुरुष या किसी विशेष वस्तु की प्रशंसा करता है। जिस प्रकार भूषण, मतिराम, केशव आदि कविजन अपने समकालीन महीपतियों या पदाधिकारियों की प्

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अध्याय 12

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उनकी कुछ कविताएं ऐसी भी मिलती हैं जिनमें कुछ सुरुचि के पद से इतनी गिर गई हैं कि उन्हें अश्‍लील कहा जा सकता है। हमने इस पुस्तक के पहले संस्करण में पृष्ठ सतासी पर यह लिखा था कि यह कविताएं सादी की कदापि

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