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अध्याय 5

11 फरवरी 2022

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चरित्र

सादी उन कवियों में हैं ... जिनके चरित्र का प्रतिबिंब उनके काव्‍य रूपी दर्पण में स्‍पष्‍ट दिखाई देता हैं।
हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उपदेशकों की भांति वह दूसरों को परमार्थ सिखाकर आप स्वार्थ पर जान न देते थे। दूसरों को न्याय, धर्म और कर्तव्‍य पालन की शिक्षा देकर आप विलासिता में लिप्त न रहते थे। उनकी वृत्ति स्वभावत: सात्विक थी। उनका मन कभी वासनाओं से विचलित नहीं हुआ। अन्य कवियों की भांति उन्होंने किसी राज-दरबार का आश्रय नहीं लिया। लोभ को कभी अपने पास नहीं आने दिया। यश और ऐश्‍वर्य दोनों ही सत्कर्म के फल हैं। यश दैविक है, ऐश्‍वर्य मानुषिक। सादी ने दैविक फल पर संतोष किया, मानुषिक के लिए हाथ नहीं फैलाया। धन की देवी जो बलिदान चाहती है वह देने की सामर्थ्य सादी में नहीं थी। वह अपनी आत्मा का अल्पांश भी उसे भेंट न कर सकते थे। यही उनकी निर्भीकता का अवलंब है। राजाओं को उपदेश देना सांप के बिल में उंगली डालने के समान है। यहाँ एक पांव अगर फूलों पर रहता है तो दूसरा कांटों में। विशेषकर सादी के समय में तो राजनीति का उपदेश और भी जोखिम का काम था। ईरान और बग़दाद दोनों ही देश में अरबों का पतन हो रहा था, तातारी बादशाह प्रजा को पैरों तले कुचले डालते थे। लेकिन सादी ने उस कठिन समय में भी अपनी टेक न छोड़ी। जब वह शीराज़ से दूसरी बार बग़दाद गये तो वहाँ हलाकू ख़ां मुग़ल का बेटा अबाक़ खां बादशाह था। हलाकू ख़ां के घोर अत्याचार चंगीज़ और तैमूर की पैशाचिक क्रूरताओं को भी लज्जित करते थे। अबाक़ खां यद्यपि ऐसा अत्याचारी न था तथापि उसके भय से प्रजा थर-थर कांपती थी। उसके दो प्रधान कर्मचारी सादी के भक्त थे। एक दिन सादी बाज़ार में घूम रहे थे कि बादशाह की सवारी धूमधाम से उनके सामने से निकली। उनके दोनों कर्मचारी उनके साथ थे। उन्होंने सादी को देखा तो घोड़ों से उतर पड़े और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह को अपने वज़ीरों की यह श्रध्दा देखकर बड़ा कौतूहल हुआ। उसने पूछा यह कौन आदमी है। वजी़रों ने सादी का नाम और गुण बताया। बादशाह के हृदय में भी सादी की परीक्षा करने का विचार पैदा हुआ। बोला, कुछ उपदेश मुझे भी कीजिये। संभवत: उसने सादी से अपनी प्रशंसा करानी चाही होगी। लेकिन सादी ने निर्भयता से यह उद्देश्यपूर्ण शेर पढ़े:
शहे कि पासे रऐयत निगाह मीदारद,
हलाल बाद ख़िराज़ कि मुज्‍दे चौपानीस्त।
बगर न राइये ख़ल्कस्‍त ज़हरमारश बाद;
कि हरचे मी ख़ुरद अज़ जजियए मुसलमानीस्त।
भावार्थ - बादशाह जो प्रजा-पालन का ध्‍यान रखता है। एक चरवाहे के समान है। यह प्रजा से जो कर लेता है वह उसकी मजदूरी है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो हराम का धन खाता है!
अबाक़ खां यह उपदेश सुनकर चकित हो गया। सादी की निर्भयता ने उसे भी सादी का भक्त बना दिया। उसने सादी को बड़े सम्मान के साथ विदा किया।
सादी में आत्मगौरव की मात्रा भी कम न थी। वह आन पर जान देने वाले मनुष्यों में थे। नीचता से उन्हें घृणा थी। एक बार इस्कन दरिया में बड़ा अकाल पड़ा। लोग इधर- उधर भागने लगे। वहाँ एक बडा संपत्तिशाली ख़ोजा था। वह ग़रीबों को खाना खिलाता और अम्यागतों की अच्छी सेवा-सम्मान करता। सादी भी वहीं थे। लोगों ने कहा, आप भी उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइए। इस पर सादी ने उत्‍तर दिया शेर कभी कुत्तों का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखों मर भले ही जाय।
सादी को धर्मध्‍वजीपन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फंदे में पड़ते देखकर जल जाते थे। उन्होंने काशी, मथुरा, वृन्दावन या प्रयाग के पाखंडी पंडों की पोपलीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी और भी तीव्र हो जाती। छत्रधारी हाथी पर बैठने वाले महंत, पालकियों में चंवर डुलाने वाले पुजारी, घंटों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पंडित और राजारईसों के दरबार में खिलौना बनने वाले महात्मा उनकी समालोचना को कितनी रोचक और हृदयग्राही बना देते? एक बार लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेलगाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेंट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेंटों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृध्द यात्री खड़े-खड़े थककर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग शक्ति ने प्रचंड रूप धारण किया, बुङ्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आया, स्टेशन-मास्टर के पास जाकर फरियाद की कि बाबा, यह बूढ़ा यात्री साधुओं को बैठने नहीं देता। मास्टर साहब ने साधुओं की डिगरी कर दी। भस्म और जटा की यह चमत्कारिक शक्ति देखकर सारे यात्री रोब में आ गये और फिर किसी को उनकी उस गाड़ी को अपवित्र करने का साहस नहीं हुआ। इसी तरह रीवां में लेखक की मुलाकात एक संन्यासी से हुई। वह स्वयं अपने गेरुवें बाने पर लज्जित थे। लेखक ने कहा, आप कोई और उद्यम क्यों नहीं करते? बोले, अब उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं और करू भी तो क्या। मेहनत-मजूरी होती नहीं, विद्या कुछ पढ़ी नहीं, यह जीवन तो इसी भांति कटेगा। हाँ, ईश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि दूसरे जन्म में मुझे सद्बुध्दि दे और इस पाखंड में न फंसावे। सादी ने ऐसी हज़ारों घटनायें देखी होंगी, और कोई आश्‍चर्य नहीं कि इन्हीं बातों से उनका दयालु हृदय भी पाखंडियों के प्रति ऐसा कठोर हो गया हो।
सादी मुसलमानी धर्मशास्त्र के पूर्ण पंडित थे। लेकिन दर्शन में उनकी गति बहुत कम थी। उनकी नीति शिक्षा स्वर्ग और नर्क, तथा भय पर ही अवलंबित है। उपयोगवाद तथा परमार्थवाद की उनके यहाँ कोई चर्चा नहीं है। सच तो यह है कि सर्वसाधारण में नीति का उपदेश करने के लिए इनकी आवश्यकता ही क्या थी। वह सदाचार जिसकी नींव दर्शन के सिध्दांतों पर होती है धार्मिक सदाचार से कितने ही विषयों में विरोध रखता है और यदि उसका पूरा-पूरा पालन किया जाय तो संभव है समाज में घोर विप्लव मच जाय।
सादी ने संतोष पर बड़ा जोर दिया है। यह उनकी सदाचार शिक्षा का एकमात्र मूलाधार है। वह स्वयं बड़े संतोषी मनुष्य थे। एक बार उनके पैरों में जूते नहीं थे, रास्ता चलने में कष्ट होता था। आर्थिक दशा भी ऐसी नहीं थी कि जूता मोल लेते। चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। इसी विकलता में कूफ़ा की मस्जिद में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिसके पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देखकर सादी की आंखें खुल गयीं। मस्जिद से चले आये और ईश्‍वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वंचित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दी में कुछ अनुपयुक्त-सी प्रतीत होती है। यह असंतोष का समय है। आजकल संतोष और उदासीनता में कोई अंतर नहीं समझा जाता। समाज की उन्नति असंतोष की ऋणि समझी जाती है। लेकिन सादी की संतोष शिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्‍वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम् कर्तव्‍य है।
यद्यपि सादी के भाषा लालित्य को हिंदी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। नि:संदेह वह समस्त साहित्य संसार के एक समुज्ज्वल रत्‍न हैं, और मनुष्य समाज के एक सच्चे पथ प्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वाले, और भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सादी का सुयश जीवित रहेगा, और उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे। 

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रचनाएँ
शेख़ सादी
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। शेख़ सादी मुंशी प्रेमचंद ने इस नाटक में शेख़ मुसलहुद्दीन (उपनाम सादी) का जन्म सन् 1172 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफुद्दीन था। 'शेख़' इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि वृत्ति धार्मिक शिक्षा-दीक्षा देने की थी। लेकिन इनका ख़ानदान सैयद था। जिस प्रकार अन्य महान् पुरुषों के जन्म के सम्बन्ध में अनेक अलौकिक घटनाएं प्रसिध्द हैं उसी प्रकार सादी के जन्म के विषय में भी लोगों ने कल्पनायें की हैं। लेकिन उनके उल्लेख की जरूरत नहीं। सादी का जीवन हिंदी तथा संस्कृत के अनेक कवियों के जीवन की भांति ही अंधकारमय है।
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शेख़ मुसलहुद्दीन (उपनाम सादी) का जन्म सन् 1172 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफुद्दीन था। 'शेख़' इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि उनक

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बग़दाद उस समय तुर्क साम्राज्य की राजधानी था। मुसलमानों ने बसरा से यूनान तक विजय प्राप्त कर ली थी और सम्पूर्ण एशिया ही में नहीं, यूरोप में भी उनका-सा वैभवशाली और कोई राज्य नहीं था। राज्य विक्रमादित्य क

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भ्रमण मुसलमान यात्रियों में इब्‍नबतुता (प्रख्‍यात यात्री एवं महत्‍वपूर्णग्रं‍थ ‘सफ़रनामा’ का लेखक) सबसे श्रेष्‍ठ जाता है। सादी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उनकी यात्रायें 'बतूता' से कुछ

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शीराज़ में पुनरागमन तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सादी को जन्‍म–भूमि का स्‍मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थे, वहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होक

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गुलिस्तां हम गुलिस्‍तां की कुछ कथाऍं देते हैं जिनसे पाठकों को भी सादी के लेखन कौशल का परिचय दे सकें।गुलिस्तां में आठ प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण में नीति और सदाचार के भिन्न-भिन्न सिध्दांतों का वर्णन

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फ़ारसी साहित्‍य की पाठ्य पुस्‍तकों में गुलिस्‍तां के बाद बोस्‍तां का ही प्रचार है । यह कहने में कुछन होगी कि काव्यग्रंथों में बोस्तां का वही आदर है जो गद्य में गुलिस्तां का है। निज़मी का सिकन्दरनामा,

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सादी की लोकोक्तियॉं किसी लेखक की सर्वप्रियता इस बात से भी देखी जाती है कि उसके वाक्‍य और पद कहावतों के रूप में कहाँ तक प्रचलित हैं। मानवचरित्र, पारस्परिक व्यवहार आदि के संबंध में जब लेखक की लेखनी से

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गज़लें ग़जल फारसी कविता का प्रधान अंग है । कोई कवि, जब तक व‍ह गज़ल कहने में निपुर्ण न हो। गज़लें समाज में आदर का स्थान नहीं पाता। यों तो गज़ल शृंगार का विषय है, किन्तु कवियों ने इसके द्वारा सभी रसों

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अध्याय 11

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क़सीदे कसीदा फ़ारसी कविता के उस अंग को कहते हैं जिसमें कवि किसी महान पुरुष या किसी विशेष वस्तु की प्रशंसा करता है। जिस प्रकार भूषण, मतिराम, केशव आदि कविजन अपने समकालीन महीपतियों या पदाधिकारियों की प्

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अध्याय 12

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उनकी कुछ कविताएं ऐसी भी मिलती हैं जिनमें कुछ सुरुचि के पद से इतनी गिर गई हैं कि उन्हें अश्‍लील कहा जा सकता है। हमने इस पुस्तक के पहले संस्करण में पृष्ठ सतासी पर यह लिखा था कि यह कविताएं सादी की कदापि

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