साड़ी
रचना जब शादी के बाद ससुराल पहुची तो उसे खुद को ढालने में बड़ी परेशानी हुई। वैसे वह खुद को नये हिसाब से ढालती गयी। पर फिर भी उसे लगता कि विवाह से पूर्व सब बात सही सही हो जातीं। फिर शादी हो या न हो। कोई दिक्कत न होती। जिस रिश्ते की बुनियाद ही झूठ पर बनी हो, उसे निभाने में दिक्कत तो आती ही है। पर रचना निभा रही थी। क्योंकि वह स्त्री है। स्त्री ही निभा सकती है।
वैसे इस बात में रचना को अपने पति और ससुराल बालों की कोई गलती न लगती। जब उसके पिता जी लड़के को देखने गये तो लट्टू हो गये। वैसे लट्टू होने की अनेकों बजह हैं। संजय अच्छा पढा लिखा इंजीनियर युवक था। घर बाले भी सब अच्छे थे। समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। आजकल के युवक शराब और भी अवगुणों के भंडार होते हैं। पर काफी जानकारी के बाद भी संजय बेदाग निकला। ऐसा परिवार बड़ी कठिनाई से मिलता है। वैसे भी शादी विवाह के संबंधों में थोड़ा बहुत झूठ तो बोला ही जाता है। सब सच कह दें तो न तो लड़कों की शादियां होंगी और न लड़कियों की।फिर बात भी ऐसी बड़ी नहीं है जिसे रचना एडजस्ट न कर पाये।
दरअसल रचना के ससुराल बाले थोड़े परंपरा वादी थे। उन्होंने रचना के पिता से यही कहा कि " भाई साहब। आप हमारे परिवार को अच्छी तरह जानते ही हैं। आपकी बिटिया को साड़ी ही पहननी होगी। अन्य कोई परिधान वह नहीं पहन पायेगी। आप अच्छी तरह सोच लें। बेटी से भी पूछ लें। फिर आगे बात करते हैं।"
रचना के पिता जानते थे कि रचना पाश्चात्य पहनावे की शौकीन है। वह सूट भी बहुत कम पहनती है। बाहर होस्टल में रहकर पढी है। बड़े शहरों में रही है। पर उनके मन में विश्वास था कि रचना सम्हाल लेगी। उन्होंने सारी बातें मान ली। रचना को भी हिदायत दे दी। एक मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की अपने माता पिता की स्थिति जानती थी। आज तक उसके पिता ने उसकी हर इच्छा पूरि की। अब वह उनकी एक छोटी सी बात का मान तो रख ही सकती है।
बहुत कम सूट पहनने बाली लड़की ससुराल में एकदम भारतीय बन गयी। हमेशा साड़ी ही पहनती। सूट की भी उसने कभी मांग न की। आरंभ में बहुत परेशानी आयी। उस समय भी रचना से सब निभाया। वह घर की प्यारी बहू बन गयी।
अब घर में उसकी देवरानी भी आ गयी। चंदना भी बहुत सुंदर थी। बहुत संस्कारी भी। पर रचना को लगता कि कोई तो उसे पीड़ा है। जिसपर कोई ध्यान नहीं दे रहा।
रचना वह पीड़ा जानती थी। एक दिन वह बाजार से चंदना के लिये कुछ उपहार लेकर आयी।
" अरे चंदना। देख मैं तेरे लिये क्या लायी हूं।"
चंदना ने देखा। एक खुशी उसके चेहरे पर झलक गयी। फिर थोड़ी देर में ही उदासी।
" क्या बात है चंदना। ये सूट पसंद नहीं आये क्या।"
" पसंद तो आये। पर पंसंद से क्या। जब मैं इन्हें पहन ही न सकूं।"
" अब चिंता मत करो। एक स्त्री खुद सब झेल सकती है। पर अपनी छोटी बहन की परेशानी नहीं। तुम तो मेरी छोटी बहन हो।"
उस दिन चंदना ने सूट पहने। घर में कलह हो गयी। पर खुद कभी अपनी पसंद न बताने बाली रचना उसके साथ थी। इसमें क्या फर्क है कि कोई क्या पहनता है। साड़ी हो या सूट या कुछ अन्य वस्त्र। पर शरीर ढकने चाहिये। अभद्र न लगें। आरामदायक हो।
चंदना को भरपूर आजादी मिली। पर रचना साड़ी की अभ्यस्त हो चुकी थी।
तभी एक दिन।
संजय का एक्सीडेंट हो गया। वह लाचार हो गया। संजय की कंपनी ने रचना को नौकरी की पेशकश की। पर रचना एक कश्मकश से जूझ रही थी। उसे संजय के लिये और खुद के लिये नौकरी करनी चाहिये। पर वह कर नहीं सकती।
" बहू। क्या सोचा तुमने।"
"पापा जी। आप तो जानते हैं ना कि कंपनी में ड्रेस कोड है। आदमी हों या औरत सभी को पैट शर्ट पहननी होती है।"
"बेटी। अगर कोई दूसरी लड़की होती तो ऐसे हालात में अपने पति को छोड़कर चली जाती। पर तुमने उसका साथ दिया। तुमने सिद्ध कर दिया कि तुम भारतीय नारी हों। फिर भारतीयता केवल साड़ी पहनने में नहीं होती है। जो उचित लगे, वह पहनो। तुम्हारी जैसी पति से प्रेम करने बाली पत्नी जो भी परिधान पहनेंगी, वही साड़ी है। "
रचना ने तुरंत अपने सास और ससुर के पैर छुए। और तैयार होने चल दी। कंपनी के नियम के अनुसार वह जो भी कपड़े पहनेंगी, पर वास्तव में वह साड़ी ही पहनेंगी।
समाप्त....
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'