सपनों की कब्रगाह
विद्यालय की बिल्डिंग बहुत खराब हालत में तो न थी। पर अभिवावकों का बराबर दखल हो रहा था। आखिर हो भी क्यों नहीं। विभिन्न मदों के नाम पर विद्यालय जमकर फीस भी तो बसूल रहा था।
पिछले ही वर्ष एक नया अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त विद्यालय खुला था। अनेकों अभिवावकों ने अपने बच्चों को हटाकर दूसरे विद्यालय में दाखिल करा दिया था। शिक्षा के स्थान पर चकाचौंध का भी एक अस्तित्व होता है।
विद्यालय प्रबंधन वैसे बेफिजूल के खर्च से बचता है। उनकी भी नीयत कम खर्च में अधिक लाभ की थी। पर प्रतिस्पर्धा के नवीन परिदृश्य में एक नवीन बिल्डिंग का निर्माण भी अति आवश्यक था। वैसे भी नवीन बिल्डिंग का खर्च भी बढी हुई फीस के रूप में अभिवावकों की जेब पर ही पड़ना था।
ठेकेदार की भी मंशा कम खर्च अधिक बचत की ही थी। दूर दराज से वह गरीब मजदूरों के परिवारों को ले आया। गरीबी से बेहाल आदमी और औरतों की बात तो छोड़िये, दस बारह साल के बच्चे भी यथासंभव मजदूरी कर रहे थे।
उन्हीं मजदूरों की टोली में दस साल की नीला एक हाथ से अपने भाई को पकड़ बहला रही थी, दूसरे हाथ से तसले में चिनाई का सीमेंट ले जा रही थी।
मैदान पर प्रार्थना करते छात्र छात्राओं को देख एक बार नीला ठिठकी। दोनों बच्चों के आंखों में कुछ सपने जग रहे थे जिन्हें कोई भी नहीं पढ पाया। शिक्षा का मंदिर जो कि बच्चों के सपनों को हकीकत में बदलता है, आज स्वार्थ की भेंट चढते हुए दो मासूम बच्चों के सपनों की कब्रगाह में तब्दील होता जा रहा है।
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'