एक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में सेठ मूलचंद्र अपने दस वर्षीय बेटे को कपङे दिलाने आये। मालिक ने सभी सैल्स मेन को सेठ जी की खिदमत में लगा दिया। घंटों की मशक्कत के बाद सेठ जी इसी नतीजे पर पहुंचे कि इस दुकान में उनके बेटे लायक कपङे ही नहीं हैं। जेब में पैसे होने से ही मात्र से ही खरीददारी नहीं हो जाती। आखिर स्टैंडर्ड की भी बात है। रईसों के कपङे अलग होते हैं। यों ही कुछ भी खरीद लिया तो फिर समाज में क्या इज्जत रह जायेगी। चाहे दुकान कपङों से भरी हो पर खुद के हिसाब के कपङे नहीं तो भरा पूरा बाजार ही खाली नजर आता है।
रामदास इसी दुकान पर दस सालों से सैल्स मेन काम करता था। गा़हकों को पसंद के कपङे निकाल कर देता। अच्छा व्यवहार कुशल आदमी था। तभी तो बाजार में उसे लोग जानते थे। ड्यूटी खत्म कर अपने बेटे के लिये फुटपाथ के बाजार से कपङे खरीद रहा था।
"भाई रामदास। तुम तो इतनी बङी दुकान में काम करते हो। फिर इस फुटपाथ से कपङे क्यों खरीद रहे हो।" सचमुच कपङा विक्रेता का प्रश्न जायज था। उससे भी जायज रामदास का उत्तर था।
"अब भाई दीनू। दुकान पूरी भरी हो पर उन्हें खरीदने की हैसियत न हो तो पूरा भरा बाजार भी खाली ही लगता है। जहाॅ अपनी हैसियत के हिसाब से सामान मिले, उसी बाजार में रौनक नजर आती है। "