नया सवेरा
अभी सूरज उगा ही था। सेठ निर्मल दास दुकान जाने की तैयारी कर रहे थे। बहू सुभाषिणी ने नाश्ता लगा दिया। सुबह सुबह नाश्ता करके निकलते और दोपहर थोङी देर खाना खाने सेठ जी घर आते थे। घर में पैसों की कोई कमी न थी। लङका रोहन भी दुकान सम्हालने में मदद कर रहा था। अब सुभाषिणी भी घर की बहू बनकर आ चुकी थी।
सेठ जी उठकर चलने को तैयार थे। सुभाषिणी वहीं खङी रही। वैसे उसने मुंह से तो कुछ नहीं बोला पर सेठ जी समझ गये।
" देखो बहू। पहले ही बोल दिया है कि जो तुम चाहती हो, वह नहीं होगा। अच्छी बात है कि सब भूल कर घर गृहस्थी की चिंता करो। पिछली साल तुम्हारी सास के गुजर जाने के बाद तो तुमपर घर की ज्यादा जिम्मेदारी है। फिर न मुझे ज्यादा फुर्सत है और न रोहन को इतनी फुर्सत है।"
सेठ जी चलने लगे तो सुभाषिणी ने एक बार फिर कोशिश की।
" पापा जी... ।घर की मैं पूरी व्यवस्था करके तब जाया करूंगी। बस आप इजाजत दे दो। "
" तू भी लगता है कि ज्यादा बहक गयी है। हमारे पास कौन पैसे की कमी है। एम बी ए करके क्या कर लेगी। जितना एम बी ए पास कमाते हैं, उससे ज्यादा तो तुझे जेब खर्च देता हूं। कभी भी नहीं पूछता कि कहाॅ खर्च किया। वैसे घर में काम करने के लिये बाई है। पर देखभाल भी कोई कम काम नहीं है। बेकार की जिद छोङो। "
" ठीक है पापा जी। पर पढाई केवल पैसे कमाने के लिये बल्कि आत्मसंतुष्टि के लिये भी होती है। और जरूरत होने पर मैं घर का व्यापार भी सम्हाल सकती हूं। "
सुभाषिणी चुपचाप भीतर चली गयी।
सेठ जी दुकान पर चले गये। पर पूरे दिन बैचैन रहे। सुभाषिणी ने पुत्री के समान स्नेह करते थे। सोच रहे थे कि यदि धन भी किसी को आत्मसंतुष्टि न दे सके तो धन से क्या फायदा।
दूसरे दिन सुबह सुभाषिणी ने फिर से सेठ जी के लिये नाश्ता तैयार किया।
" बेटी सुभाषिणी। तुम भी तैयार हो जाओ।"
"कहीं चलना है क्या पापा।"
" हाॅ सोच रहा था कि फिर तो तुम अकेले आया और जाया करोंगी। पर आज दाखिला दिलाने मैं भी तुम्हारे साथ चल लूं।"
सुभाषिणी को आज का सबेरा एकदम नया लगा।