घर, पत्नी, राज्य सब कुछ त्याग कर राजकुमार शिखिध्वज मंदिराचव पर्वत की एक गुफा में निवास कर रहे थे। शांति की तलाश में राजकुमार सन्यासी बन गये। पर जिस शांति की तलाश में उसने सब त्याग किया, क्या वह शांति उसे मिली। राजकुमार खुद अपने मन में प्रश्न करते पर उत्तर हमेशा नकरात्मक ही मिलता। फिर भी वह अपना साधन करते रहे।
" आपना स्वागत है ब्राह्मण देव।" पर्वत श्रृंखलाओं को चढते हुए एक ब्राह्मण वहाॅ आ गये। सत्य तो यह है कि मनुष्य के खुद के प्रयत्न कभी फलीभूत नहीं होते। हाॅ यदि मन में सच्ची निष्ठा हो तो खुद भगवान ही अपने भक्त को राह दिखाते हैं। राजकुमार शिखिध्वज को वह ब्राह्मण वास्तव में ईश्वर का भेजा दूत ही लगा।
" इन पर्वत कंदराओं में रहने बाले। आप कोई सन्यासी तो लगते नहीं। कलाई पर धनुष की प्रत्यंचा के निशान तो यही कहते हैं कि आप कोई क्षत्रिय हैं। फिर अपने धर्म का त्याग कर यहाॅ क्यों?"
ब्राह्मण की वाणी से अनुभव और ज्ञान झलक रहा था।
" सत्य है। मैं राजकुमार शिखिध्वज शांति की तलाश में यहाँ आया हूं। सब कुछ त्याग कर। "
" क्या वह शांति मिली। "
" वही तो आश्चर्य है। सब कुछ त्याग कर भी शांति के दर्शन नहीं हुए। "
" राजकुमार। एक बार फिर ध्यान से सोचो। कुछ त्याग शेष तो नहीं।"
राजकुमार विचार मग्न। सचमुच अभी तो बहुत त्याग करना है। अपनी पूजा की पुस्तक का त्याग करना चाहिये। आसन का त्याग करना चाहिये। कमंडल भी अभी कहाॅ त्यागा है। रहने के लिये यह कंदरा तो चुनी है। फिर त्याग कहाँ हुआ।
" अभी तो बहुत त्यागना है। राजकुमार एक बार फिर से विचार करो।"
राजकुमार फिर से विचार करने लगा। फिर पर्वत श्रंखला से कूदने को उद्यत हुआ। ब्राह्मण सतर्क था। उसे रोक लिया।
" यह क्या पाप कर रहे थे कुमार। आत्महत्या तो महापाप है।"
" मुझे लगा कि जब सब त्याग दिया फिर तो केवल शरीर त्याग ही शेष है। " राजकुमार को अपनी अल्पबुद्धि पर अब शर्मिंदगी हो रही थी। पर अभी भी क्या त्याग करना शेष है जिसे करके उसे शांति मिलेगी, वह समझ नहीं पा रहा था।
ब्राह्मण की ओजपूर्ण आवाज आयी।
" कुमार। आपके प्रयासों की सराहना करता हूं। पर अभी तक आप त्याग के अर्थ को ही नहीं समझे। क्या आपने अपने मन से त्याग की भावना का त्याग किया। मन से अहंकार का त्याग किया। कुमार। त्याग तो मन की अवस्था है। कोई क्रिया कहाॅ। तो क्या आपने सचमुच त्याग किया है।"
राजकुमार समझ गया। खुद को ज्ञान देने बाले उस ब्राह्मण के चरणों में वह शीश झुकाने ही बाला था कि देखा कि वह ब्राह्मण उल्टा उसके पैरों में झुका हुआ है।
" दासी को क्षमा करें स्वामी। इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य उपाय न था कि आपको समझा सके। "
पहले राजकुमार शशिध्वज ने अपनी पत्नी चूड़ाला की बात ध्यान नहीं दी थी। आज जब चूड़ाला ने उन्हें अपनी शक्ति व ज्ञान का साक्षात परिचय करा दिया तो अब उसकी बात न मानने का प्रश्न ही नहीं था। चूड़ाला के सम्मान ने राजकुमार ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये।
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'