खुद को पापा की गुड़िया जानकर वह इठलाती रही। संपन्न परिवार की इकलौती रमा को लाड़ प्यार की कोई कमी नहीं थी। उसे पढाई लिखाई के पूरे मौके मिले। ऐसे में वह खुद की किस्मत पर गर्व न करे तो कैसे।
वह आज भी खुद को पापा की गुड़िया समझ रही थी। बचपन का गुड्डे गुड़िया के व्याह का खेल उसे याद आ रहा था। उसने भी अपनी गुड़िया से कब पूछा था। यदि उसकी गुड़िया बोल लेती तो रमा को अपनी पसंद बताती। शायद रमा भी उसकी पसंद का सम्मान करती।
रमा गलतफहमी का शिकार थी। गुड़िया की कोई पसंद नहीं होती। गुड़िया तो चुपचाप गुड्डे के साथ जिंदगी जीने के लिये बनी होती है। उस दिन पापा को अपनी पसंद बतायी तो थी। फिर क्या हुआ। अभी तक अपनी गुड़िया पर प्रेम लुटाते आये पापा कैसे गुस्सा हो गये। प्रेम पर सामाजिक स्तर, जाति बंधन हावी हो गया।
पापा की गुड़िया विदा हो रही थी। आज भी पापा की आंखों में आंसू थे। आंसू रमा की आंखों में भी थे। और थोड़ी दूर किसी की आंखें आंसुओं से भरी थीं। वह उस गुड्डे के आंखें थीं जो भूल गया था कि गुड्डे और गुड़ियों के जीवन का फैसला खुद गुड्डे गुड़िया नहीं करते। खुशी के माहौल में दो खिलौने उदास थे।
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'