मंदिर प्रांगण मे संयोग वस बेलवपत्र का छोटा सा वृक्ष लगा था ।सागरिका स्नान करने के बाद वेलवपत्र के पत्ते तोड़कर जल भरने के लिए पात्र खोजने लगी ।मगर आस-पास् कोई पात्र नहीं था ।तब सागरिका अपनी अंजुली मे ही जल लेकर शिवलिंग की ओर बढ़ चली थी। पर वो जल उसकी अंजुलियों से प्रांगण पार करते -करते ही चू जाती ।उसने कई बार प्रयास किया मगर ...पर असफल ही रही ।वो निराश हो गई की शायद उसका व्रत पूरा ही नही होगा ?इसी उलझन मे वो कभी मंदिर मे भगवान् शिव की शिवलिंग को देखती तो कभी अस्त होते सूर्य देवता की ओर देखती शायद जीवा सागरीका की मन को पढ़ चुका था ?इसलिए वो स्वयं से ही बोल पड़ता है ,की उसे मैडमजी का व्रत यु अपूर्ण नही होने देना चाहिये ।बस फिर क्या था ,वो झट से स्नान कर सागरिका को एक बार फिर अंजुली मे जल भरने के लिए कहता है ।और उसकी अंजुली के नीचे अपनी अंजुली लगा कर जल को उसमे संग्रह कर पुनः जल उसकी अंजुली मे वापस रख देता है ।इस तरह वो दोनो शिवलिंग तक पहुंच जाते है ।फिर सूर्य की आख़री किरण के शेष रहते सागरिका अपना व्रत पूर्ण करती है। जल अर्पित करने के बाद सागरिका मंदिर की घंटी बजाने के लिए घंटी की ओर अपना हांथ उठाती ह।तो घंटी बहुत ऊँची लटक रही थी ।वो घंटी की रस्सी टूटी हुई थी । सागरिका के चेहरे पर घंटी नहीं बाजाने की उदासी को भी जीवा भांप चुका था ।इसलिए वो स्वयं को ज़मीन का घोड़ा बनाकर अपने पीठ पर चढ़ कर घंटी बाजाने के लिए कहता है ।पहले तो सागरिका मना कर देती है ।पर जीवा के बार -बार कहने पर सागरिका उसके पीठ पर पाँव रखकर घंटी बाज़ती है ।जीवा का भोला पन तो पहले ही सागरिका को भाती थी ।और अब उसकी मन की सुंदरता ने मानो उसे उसके लिए मुस्कुराने पर मज़बूर सा कर दिया था ।और उस समय सागरिका को जीवा दुनिया का सबसे अच्छा इंसान लगने लगा था। मानो वो मन ही-मन् उसे धन्यबाद देने मे खो सी गई थी तब जीवा उसका धयान तोड़ता है, की अब घर नही जाना है क्या?सागरिका मुस्कुराते हुए उसके पीछे चल परि थी । वो मंदिर से बाहर निकले ही थे ,की सड़क पर अचानक भीड़ फिर से बढ़ने लगा था ।
सागरिका ,उस दिन अपने होने वाले पति से पहली बार मिलने ,के,लिए जा रही थी।शायद वो थोड़ी लेट हो चुकी थी। सुबह का समय था। बारिसो का सीजन चल रहा था। कुल मिलाकर उस दिन मौसम सुहाना सा था।सागरिका जब घर से निकली ही थी,की , हलकी हवाएं और बारिसो की बुंदे भी अपने घर से मानो चल ही परे थे।सागरिका उन बूंदो से बचने के लिए तेज कदमो के साथ सरको पर चल परी थी।पर वो कहावत तो सुनी होगी आपने की तुम डाल -डाल तो हम पात-पात् यही उसके साथ भी हो ,रहा था।जैसे -जैसे उसके कदमो की चाल तेज होती जा रही थी ,ठीक वैसे -वैसे ही हवाएं और बूंदो की। च।ल भी बढ़ती ही जा रही थी। इसी होर की आपा -धापी मे वो सरक पर पहुंच कर बस का इंतजार करने लगी थी।वो तो रुक चुकी थी ,पर हवाएं और बारिसे की बुंदे तो और भी तेज हो चुकी थी।हवा कीत तेज झोंको ने उसकी छतरी को दूर जा उराया था। छतरी के उरते ही बूंदो ने उसे भींगा दिया था। अब तो उसकी नजरें मानो आति-जाती गरियों के रुकने का इंतज़ार करने लगी जो ,की पहले से ही भरी रहने के कारण रुकने का नाम भी नही ले रही थी ।फिर एक बस आती दिखी तो सागरिका ने बस को रुकने का इशारा किया ।मगर ये बस भी आगे निकल गई थी ।वो बस खुली आँखो ,बस को जाति देखती रह गई की,तभी उसके कानो मे एक आवाज गुंजी,वोआवाज जीवा की थी।वो बस अभी भी धीमी गति से बढ़ी जा रही थी।जीवा ने आवाज दिया अरे ओ मैडमजी जल्दी आइये वरना आधी तो आप पहले से हि भीगी हुई है।बाकी आधा फिर से भीगने का इरादा है क्या ?,जल्दी आइये सागरिका उसकी बस की ओर लपकी ,मगर वो चढ़ने मे संकोच। कर रही थी।जीवा ने फिर कहा अरे मैडमजी गरी धीमी है ,इसलिए आप चढ़ सकती है।इतना विश्वाश रखिये आपको गिरने नही देंगे हम।इतना कहते हुए वो एक हाथ से उसके हाथ से गुलाब के फूलो का गुच्छा लेते हुए दूसरे हाथ उसे1 उसे बस मे खींच लेता है।बस मे तिल तस्कने भर की भी जगह नही थी। सागरिका हैरंगी भरी नजरों से उसे चिढ़ते हुए देखने लगी ।वो फूल जो उसने ले लिया था ,इसलिए वो उसे गुस्से से देख रही थी।पर दूसरे ही पल वो उसे समझ गई थी की। उसे ये तक पता नही था ।की गुलाब का फूल किसे और क्यों दिया जाता है। उसके भोलेपन सेही ये लग रहा था ,की वो किसी गाँव् से शहर आया था। ।वो सागरिका को फूल वापस कर चुका था ।जीवा मे एक अज़ब ही फूरती थी ।शायद ये उसकी काम की शर्ते थी। बस अपनी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी ।