रात की हर पहर बीतने के बाद वो खिड़की से आसमान की ओर देखने लगी चांद अभी भी चमक रहा था ।शायद रात्री की अखाड़ी पहर अभी शेष थी । चांद की चमक मे मानो सागरिका को सब कुछ नज़र आने लगा था ।वो इस अहसास से पड़े नही थी ,की वो जीवा को प्रेम करने लगी थी ।?उसने चांद को मानो अपनी सखी मान कर उससे अपने मन की बाते करने लगती है । वो एक पल के लिए अपनी और चाँद की स्थिति एक समान समझती है ।क्योंकि चांद भी चकोर के लिए सारी रात जागता है ,और वो भी तो जाग रही थी ।बस फिर क्या था ?उसने अपनी सखी को अपने मन की सारी बाते कह सुनाती है ,की वो जीवा के प्रतिभा को आसमान की उड़ान भरने मे सहायता करेगी ?पड़ दूसरे ही पल वो चिंतित हो उठी की जीवा तो शायद पढ़ा -लिखा नही है ,तो ऐसे मे वो अपनी कला को कैसे आसमान की उड़ान भरने के लिए सोंच भी सकता है? वो मायूस होकर फिर चांद को निहारने लगी ।मानो वो इस साम्स्या का हल अपनी सखी से चाहती हो ।तो बस फिर क्या था । उसकी सखी ने उसकी समस्या का हल निकाल दिया था ।सागरिका अपने आप से हि बोल पड़ी की मेरी सखी तो रोज़ अपनी चकोर का इंतज़ार जाग कर करती है ।तो क्या वो अपने प्यार को समय देकर उसके हुनर को मुकम्मल नही कर सकती ? अब तो मानो सागरिका के अंदर एक नई आत्माविश्वाश आ गई थी ।की अब चाहे जो हो जाए पड़ वो जीवा के अंदर बैठे कलाकार को पहचान की पंख से उड़ान भरने के लिए तैयार करूंगीं ?ये निश्चय करते हीं सागरिका सखी को आभार भरी नज़रों से देखने लगी मानो सखी ने उसकी सारी समस्यानों को सुलझा दिया हो। और सखी भी मानो ये आश्वासान देते हुए सुबह होती सुराज़ के किरणों मे लुप्त होती ये कह रही थी की ,जब भी उसका मन अपनी सखी से मिलने का करे तो एक बार रात के अंधेरे मे आसमान की ओर देख लेना
सागरिका ,उस दिन अपने होने वाले पति से पहली बार मिलने ,के,लिए जा रही थी।शायद वो थोड़ी लेट हो चुकी थी। सुबह का समय था। बारिसो का सीजन चल रहा था। कुल मिलाकर उस दिन मौसम सुहाना सा था।सागरिका जब घर से निकली ही थी,की , हलकी हवाएं और बारिसो की बुंदे भी अपने घर से मानो चल ही परे थे।सागरिका उन बूंदो से बचने के लिए तेज कदमो के साथ सरको पर चल परी थी।पर वो कहावत तो सुनी होगी आपने की तुम डाल -डाल तो हम पात-पात् यही उसके साथ भी हो ,रहा था।जैसे -जैसे उसके कदमो की चाल तेज होती जा रही थी ,ठीक वैसे -वैसे ही हवाएं और बूंदो की। च।ल भी बढ़ती ही जा रही थी। इसी होर की आपा -धापी मे वो सरक पर पहुंच कर बस का इंतजार करने लगी थी।वो तो रुक चुकी थी ,पर हवाएं और बारिसे की बुंदे तो और भी तेज हो चुकी थी।हवा कीत तेज झोंको ने उसकी छतरी को दूर जा उराया था। छतरी के उरते ही बूंदो ने उसे भींगा दिया था। अब तो उसकी नजरें मानो आति-जाती गरियों के रुकने का इंतज़ार करने लगी जो ,की पहले से ही भरी रहने के कारण रुकने का नाम भी नही ले रही थी ।फिर एक बस आती दिखी तो सागरिका ने बस को रुकने का इशारा किया ।मगर ये बस भी आगे निकल गई थी ।वो बस खुली आँखो ,बस को जाति देखती रह गई की,तभी उसके कानो मे एक आवाज गुंजी,वोआवाज जीवा की थी।वो बस अभी भी धीमी गति से बढ़ी जा रही थी।जीवा ने आवाज दिया अरे ओ मैडमजी जल्दी आइये वरना आधी तो आप पहले से हि भीगी हुई है।बाकी आधा फिर से भीगने का इरादा है क्या ?,जल्दी आइये सागरिका उसकी बस की ओर लपकी ,मगर वो चढ़ने मे संकोच। कर रही थी।जीवा ने फिर कहा अरे मैडमजी गरी धीमी है ,इसलिए आप चढ़ सकती है।इतना विश्वाश रखिये आपको गिरने नही देंगे हम।इतना कहते हुए वो एक हाथ से उसके हाथ से गुलाब के फूलो का गुच्छा लेते हुए दूसरे हाथ उसे1 उसे बस मे खींच लेता है।बस मे तिल तस्कने भर की भी जगह नही थी। सागरिका हैरंगी भरी नजरों से उसे चिढ़ते हुए देखने लगी ।वो फूल जो उसने ले लिया था ,इसलिए वो उसे गुस्से से देख रही थी।पर दूसरे ही पल वो उसे समझ गई थी की। उसे ये तक पता नही था ।की गुलाब का फूल किसे और क्यों दिया जाता है। उसके भोलेपन सेही ये लग रहा था ,की वो किसी गाँव् से शहर आया था। ।वो सागरिका को फूल वापस कर चुका था ।जीवा मे एक अज़ब ही फूरती थी ।शायद ये उसकी काम की शर्ते थी। बस अपनी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी ।