गुपालदास निरुतर हो, सिर झुकाये बैठे रहे। शेखजी ने भाँपा कि अभी कुछ और शिकायत है; पूछा-
‘‘तुम्हें मेम से खास शिकायत क्या है ? वह तुम्हारा माकूल अदब नहीं करती ?’’
‘‘जी हाँ, यही बात है।’’ गुपालदास खुल पड़े।
दूसरे दिन सबेरे लालाजी के आने पर शेखजी ने उनसे गुपालदास को कारबार में चार आने का पत्तीदार और छोटे मुनीम को दो आने का पत्तीदार बना देने को कहा। लालाजी को भी यह राय पसन्द आयी।
राधेलाल मथुरा के एक सम्पन्न साहूकार परिवार में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता वल्लभ कुल के वैष्णव थे। किसी साथ के बहाने से कलकत्ते गये। वहाँ उन्हें सट्टा-फाटकर खेलने का रोग लग गया। उसके पीछे ऐसे दीवाने हुए कि कौड़ी-कौड़ी को मुहताज हो गये और उसके बाद ही संन्यासी होकर कहीं चले गये। लाला राधेश्याम को बचपन ही से कसरत-कुश्ती का बड़ा शौक था। उन दिनों भले घरों के लड़के भी दंगल में उतरा करते थे। शेख फकीर मुहम्मद के छोटे भाई दीन मुहम्मद भी उस समय पहलवानी में नये-नये उठ रहे थे और इस बात का बड़ा चर्चा था कि आगरा ही नहीं, आस-पास के तीन-चार जिलों में किसी भद्र परिवार का नौजवान उनकी जोड़ का न था। मथुरा के हिन्दुओं ने आगरे से मुसलमानों का मानमर्दन करने के लिए आगरे के एक दंगल में राधेलाल से उनकी जोड़ करा दी। राधेलाल ने दीन मुहम्मद को आसमान दिखा दिया। कलक्टर की मेम ने उन्हें सोने का तमगा दिया। बड़ी वाहवाही हुई। दीन मुहम्मद भी अपना जोड़ीदार पाकर ऐसे रीझे कि उसी दिन से दोनों आपस में गहरे दोस्त हो गये।
महीने दो महीने में एक बार मिले बिना दोनों को चैन नहीं पड़ता था। राधेलाल उनके गाँव जाकर हफ्तों रह आते थे, रसोइया और कहार साथ जाता था। दीन मुहम्मद को हराने के लिए मथुरा में लालाजी ने अपने घर वालों की आज्ञा से एक किराये का घर लिया था। दीन मुहम्मद का बावर्ची उनके साथ आता था। कलकत्ते से लालाजी के पिता एक अंग्रेजी पढ़े-लिखे बंगाली बाबू को एक बार अपने साथ मथुरा ले आये थे। वे राधेलाल को अंग्रेजी पढ़ाते थे, उनके साथ अन्य दो-चार सम्पन्न परिवारों के लड़के भी पढ़ते थे। राधेलाल की देखा-देखी दीन मुहम्मद को भी शौक लगा और फिर तो वे भी मथुरा ही में अधिकतर रहने लगे। शेख फकीर मुहम्मद कभी-कभी अपने भाई से मिलने के लिए मथुरा चले जाते थे। राधेलाल तभी से उन्हें दीनू की तरह ही ‘बड़े भैया’ कहने लगे।
सन् 1851 के अगस्त महीने में दीन मुहम्मद पन्द्रह दिनों के तेज बुखार के बाद अचानक स्वर्गवासी हो गये। कुछ समय के बाद ही उन्हें कलकत्ते से समाचार मिला कि पिताजी अपना दिवाला निकलने के कारण संसार का त्याग कर संन्यासी हो गये हैं। मथुरा में महाजनों ने इनकी जायदाद कुर्क करा ली। उन्नीस वर्ष की आयु में लाला राधेलाल खाली हाथ और खाली मन से अपनी माता, छोटी बहिन, पत्नी और गोदी के बच्चे को लेकर आगरा आ बसे। एक किराँची चौपहिये वालों की फर्म में आठ रुपये महीने पर नौकरी कर ली। बड़ी मेहनत से काम किया; मालिकों ने दो बरसों बाद इन्हें पन्द्रह रुपये देना शुरू कर दिया, क्योंकि इनका अंग्रेजी ज्ञान उन्हें लाभ कराता था। सन् 1857 के सिपाही विद्रोह में इन्होंने कई अंग्रेज परिवारों को अनाज के बोरों में छिपाकर अपने मालिकों को गाड़ियों पर सुरक्षित स्थान पर भिजवाया। गदर के बाद अंग्रेजों ने इन्हीं के कारण इनके मालिकों को मान दिया। उसके बाद इनका वेतन तीस रुपये मासिक कर दिया गया। रुपया रोज पाकर लाला राधेलाल बड़े सन्तुष्ट हुए; पर इनका सौभाग्य इस स्थिति से ही सन्तुष्ट होकर नहीं बैठना चाहता था।
मालिकों के यहाँ पितृ-पक्ष में श्राद्ध था। ये प्रबन्ध कर रहे थे। किसी काम से घर के अन्दर गये। कोई स्त्री कह रही थी कि बाह्मन जीम चुके,अब राधे को भी इसी पंगत में बैठा दो। मालिक के बेटे का उत्तर भी इनके कानों में पड़ा। उसने कहा कि उसकी चिन्ता छोड़ो, वो घर का ‘नौकर’ है।‘नौकर’ शब्द इनके मन में चुभ गया। उल्टे पाँवों लौट पड़े और सीधे अपने घर पर आकर ही दम लिया। प्रण कर लिया कि अब तो मालिक बनकर ही रहूँगा। उपाय चिन्ता के बीच में घूमते-घूमते इनके मन में अचानक अपने स्वर्गीय मित्र के बड़े भाई शेख फकीर मुहम्मद का ध्यान आया। दूसरे दिन बड़े तड़के ही गौरीगणेश मनाकर ये उनके गाँव की ओर चल पड़े।
भाई के मरने के बाद से शेखजी आधे विरक्त से रहने लगे थे। कोई सन्तान न थी, कामकाज की जिम्मेदारी तो किसी प्रकार उठा लेते थे, बाकी समय शाहों-फकीरों और साधु-सन्तों की संगत ही में बिताते थे। राधेलाल के प्रस्ताव को सुनकर शेखजी को लगा कि जैसे दीन मुहम्मद ही उनसे सहायता माँग रहा है। बोले-
‘‘रुपया ले जाओ और खुदा का नाम लेकर काम शुरू कर दो। घाटा हो तो मेरा और नफा हम दोनों का होगा। मेरे लिए भी आमदनी का एक नया सीगा खुल जायेगा। जमींदारों में पता नहीं, ये अंग्रेज हमारे जीने की खातिर कुछ गुंजाइश रक्खेंगे भी या नहीं, कुछ समय में नहीं आवे हैगा। आबपाशी की दरें भी सुना है, बढ़ने वाली हैं। लगान वसूल करने में जो सख्तियाँ बरती जावे हैं, वो अब बर्दाश्त से बाहर होती जा रही हैं। मैं तो अपनी रैयत पर वो जुल्म हर्गिज नहीं कर सकूँ, जो दूसरे जमींदार कर रहे हैंगे। और अगर न करूँ तो घर से कहाँ तक लगान भरूँगा। कुछ समझ में नहीं आवे हैं मेरी। कभी-कभी तो लगान में बढ़ायी गयी रकम गाँव की पैदावार से भी ज्यादा हो जावे है। महकमा जंगलात जमीनों को दनादन हड़प रया हैगा। चरागाहों को भी नहीं छोड़ते। जानवर भूखों मरे हैं। किसान जमीनें छोड़-छोड़ के भाग रहे हैं। अकाल बार-बार न पड़ेंगे तो और भला क्या होगा ! खैर, जो खुदा की मर्जी।’’