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नाच्यौ बहुत गोपाल

25 जुलाई 2022

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ऊंचे टीले पर बने मन्दिर के चबूतरे से देखा तो सारी बस्ती मुझे अपनी वर्णमाला के ‘द’ अक्षर जैसी ही लगी। शिरोरेखा की तरह सामने वाली गली के दाहिनी ओर से मैंने प्रवेश किया था। ‘द’ की कंठरेखा वाली गली सुलेख में लिखे अक्षर की तरह ठीक शिरोरेखा के बीच में न होकर उसके बांये सिरे पर है। वहां से करीब-करीब ‘द’ के घुमावदार पेट की तरह ही नगर महापालिका की ओर से बनवाई हुई कालोनी है, सामने मैदान है। और यह टीला जिस पर मैं इस समय खड़ा हूं वह यों समझिये कि ‘द’ अक्षर की घुण्डी जैसा ही है। इसके बाद शाक-सब्जियों की एक खासी लम्बी पट्टी उस सारी भंगी बस्ती को ‘द’ की शक्ल दे देती है। ‘द’ माने दमन। प्रकृति ने मानो इस बस्ती के कपाल पर ही दमन शब्द लिख दिया है।

अपने घर के पिछवाड़े बसी हुई भंगी बस्ती को यों तो मैं बचपन से ही देखता चला आ रहा हूं, परन्तु सच पूछा जाय तो अभी कुछ ही महीनों पहले मैंने एक विचार के रूप में उसके दर्शन किए थे। अपने अध्ययन कक्ष की खिड़की चित और व्यावहारिक रूप से सुसम्बन्धित होते हुए भी मैं अपने इन पड़ोसियों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता। बस दो चार छह लोगों के नाम भर ही जानता हूं। कभी-कभार उनकी बातें या लड़ाई-झगड़ों के दृश्य देखे हैं, जवानी में दो एक नई ब्याहुली भंगिनों के सलोने चेहरे भी जब-जब दिखलाई पड़ जाने पर मेरे मन में रस का स्पर्श दे जाते थे। उनमें एक चेहरा जो जवानी में जैन रामायण की चन्द्रनखा जैसा सलोना लगता था अब बुढ़ापे में वाल्मीकि-तुलसी रामायण की सूपनखा सा बदसूरत हो गया है। खैर, तो इसी बस्ती के बहाने मैंने शहर की भंगी बस्तियों में इण्टरव्यू करने का प्रोग्राम बनाया। अब तक जिस वर्ग को मैंने केवल अपनी बौद्धिक सहानुभूति-भर ही दी थी उसे पहली बार निकट से पहचानने की उत्कट इच्छा जागी। इण्टरव्यू का काम आरम्भ करने के प्रायः एक सप्ताह के भीतर ही मुझे अनुभव हुआ कि संस्कृति को केवल आभिजात्य दृष्टि से देखना खाड़ी में समुद्र को देखने के समान ही है। खाड़ी में जन-संस्कृति के महासागर का अगाध असीम सौंदर्य भला क्यों कर दिखलाई दे सकता है !

मैं दो दिनों से इस भंगी टोले में आ रहा हूं। यों तो बड़े-बूढ़ों, जवानों से इण्टरव्यू लेने के काम मैं कल ही पूरे कर चुका था, मगर आज एक लालच और एक बहाना लेकर फिर आया हूं। बहाना है बस्ती के फोटो खींचना और लालच है उन निर्गुनियां दादी-चाची से मिलना जिन्होंने कल मुझसे मिलने से इन्कार कर दिया था।

श्रीमती निर्गुनियां के सम्बन्ध में मैंने बस्तियों में सुना था। यह तो आमतौर से सुना कि शहर के मेहतर समाज में शिक्षा प्रसार करने का काम सबसे पहले उन्होंने ही किया था। उनका पति मोहना डाकू लगभग चालीस वर्ष पहले बहुत मशहूर होकर पुलिस के हाथों गोली का शिकार हुआ था। श्रीमती निर्गुनियां ने उसके बाद संकटों के बड़े-बड़े आंधी तूफान झेलकर अपने बेटे-बेटी को पढ़ाया। शहर के मेहतरों में शिक्षा की लगन जगाई, धन्धों और बाजे बजाने का काम अधिकाधिक फैलाने और उन्हें स्वावलम्बी बनाने के लिए उन्होंने कुछ वर्षों तक खूब ही लगन से काम किया था। अब कुछ बरसों से इन सब कामों से वे अलग हैं। कुछ साग सब्जी उगाती बेचती हैं, कुछ ब्याज-बट्टा भी फैला हुआ है। बेटी और बेटा दोनों ही ऊंचे ओहदे पर हैं, अच्छे वेतन पाते हैं। मां को बहुत मानते हैं, उनकी सुख-सुविधाओं के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। लोग कहते हैं कि रामजी की दया से जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें। टीले की ढलान पर बना हुआ छोटा-सा मकान उन्हीं का है। सब्जी वाली पट्टी भी उन्हीं की मिल्कियत में शामिल है। शाम को भीतर से घर बन्द करके पीती हैं और अकेले में कुछ बड़बड़ाया करती हैं। पीती हैं तब उस समय कोई उन्हें पुकारे तो भद्दी भद्दी गालियां बकती हैं।

मैंने उन्हें कल गालियां बकते हुए एक झलक देखा भी था सिर पर ओढ़नी नहीं थी, हाथ बढ़ा-बढ़ाकर किसी को गलियां दे रही थीं। मुझे देखते ही अन्दर चली गईं।

इससे पहले हरिजन मांटेसरी स्कूल के सर्वेसर्वा अध्यापक श्यामलाल, जिनके घर पर बैठकर मैंने सबके इण्टरव्यू लिए थे, मेरे आग्रह पर श्रीमती निर्गुनियां से स्वयं यह कहने गए थे कि अगर वे नहीं आ सकतीं तो मैं ही उनके यहां आ जाऊंगा। लेकिन निर्गनियां जी ने इससे भी इन्कार कर दिया। मुझे बुरा तो लगा था, मगर सच पूछा जाय तो इसी इन्कार ने मेरे इसरार को बढ़ा दिया। मैंने सोचा कि दलित वर्ग की इस प्रतिष्ठित महिला को ‘वी.आई.पी.’-व्यवहार से प्रसन्न करूंगा। इसीलिए आज फोटोग्राफर ही नहीं थैले, में एक व्हिस्की की बोतल और कुछ फल मिठाई भी उनके वास्ते छिपाकर लाया था। डाकू की पत्नी, आन्दोलनकारिणी और संघर्षयुक्त जीवन बितानेवाली दो शिक्षित सन्तानों की मां के अनुभव प्राप्त करने के लिए मैं विशेष रूप से अधिक लालायित था।

टीले से बस्ती के बिहंगम दृश्य की छवि खिंचवाकर मैंने फोटोग्राफर को तो विदा किया और अध्यापक श्यामलाल से कहा : ‘‘आज मैं श्रीमती निर्गुनियां से मिलकर ही जाऊंगा, यह मैंने तय कर लिया है।’’

श्यामलाल दबसट में पड़ गए, मैंने कहा :‘‘आप केवल यह पता लगा लें कि वह घर पर हैं या नहीं-’’

‘‘होंगी तो वह घर ही में। इस समय कहीं नहीं जातीं।’’

‘‘तब आप अपनी इस दर्शक सेना को लेकर जाइए। मैं वहीं जाता हूं।’’

‘‘मैं आपके साथ चलूंगा, सर। कहीं उन्होंने आपका अपमान कर दिया तो मुझे बुरा लगेगा। वैसे चाची ऐसी हैं तो नहीं।’’

‘‘छोड़िए इन बातों को। मैं बहुतों से मिल चुका हूं, कड़वे-मीठे अनुभव तो होते ही रहते हैं। मुझे अभ्यास है।’’

झोला लिए टीले की ढाल की तरफ चल पड़ा। श्रीमती निर्गुनियां का मकान छोटा मगर पुख्ता था। बरामदे में पहुंचकर मैंने दरवाज़े की कुण्डी खट-खटाई।

‘‘कौन है ?’’

मैं सोचने लगा कि जवाब दूं या न दूं ! शायद मेरी आवाज़ सुनकर ही सन्नाटा खींच जायं। मगर मैंने फिर कुण्डी खटखटाई।

‘‘अरे कौन है हरामजादा, पूछती हूं तो बतलाता भी नहीं !’’

‘‘मैं आपसे मिलने आया हूं निर्गुनियां जी ! दरवाज़ा खोलिए।’’

मौन ! मैं कठोर से कठोर बात सुनने के लिए तैयार था। इन्कार करेगी तो चला जाऊंगा। लेकिन कुण्डी खुल गई। एक भरे-चिकने बदन से अधिक आकर्षक, तेजस्विनी बुढ़िया ओढ़नी-लहंगे के लिबास में मेरे सामने खड़ी थी। चेहरे पर जमाने की कड़ी मार से बनी कुछ रेखाएं अवश्य थीं, पर झुर्रियां अभी तक नहीं पड़ी थीं। आंखों में चुम्बक था जिसने मुझे भी खींचा। आवाज़ भी शिष्ट और मधुर थी

‘‘आइये ! बाबूजी ! बड़े भाग जो इस अभागिन के घर आपकी चरनधूल पड़ी।’’

मैं कमरे में आगे बढ़ गया। उन्होंने दरवाज़ा बन्द करके कुण्डी चढ़ाई। कमरे में अंधेरा हो गया, मगर दूसरे ही क्षण रॉड की रोशनी आंखें मिचमिचाती-सी जाग उठी। कमरा सुरुचि पूर्ण ढंग से सजा था। लकड़ी के सस्ते-भद्दे सोफासेट मैंने इस बस्ती के और भी पांच-छह घरों में देखे हैं। कई भंगी बस्तियों में देखे हैं। टेबिल फैन, सीलिंग फैन, ट्रांजिस्टर रेडियो भी कुछ जगहों पर देखे हैं, परन्तु यहां अपेक्षाकृत कुछ अधिक कीमती फर्नीचर था। सोफों पर फोम की गद्दियां थीं। शीशेदार अलमारी में चाय के प्यालों के दो सेट, कुछ गुड्डे गुड़िया और दो चार खिलौने सजे थे। दीवार पर केवल एक ही बड़ा-सा फोटोग्राफ था। किसी मृत युवक का चेहरा। अनुमान किया, यही कुख्यात मोहना डाकू होगा। पूछ लिया, श्रीमती निर्गुनियां ने सकार भी लिया। मैं सोफे पर बैठा फिर झोले से फल-मिठाई और ब्लैकनाइट व्हिस्की की बोतल निकालकर मेज़ पर रखी।

‘‘यह सब किसलिए ?’’

‘‘आपके लिए तुच्छ उपहार।’’

‘‘क्यों ?’’

‘‘मैंने कल सब बच्चों को टॉफियां बांटी थीं।’’

‘‘तो क्या मैं बच्ची हूं, बाबूजी ?’’

‘‘आपने मिलने से इन्कार किया तो मैंने सोचा कि इस जिद्दी बूढ़ी-बच्ची को मनाना पड़ेगा।’’

बात मुंह से निकल ही गई, वरना कहना नहीं चाहता था। कहकर भय भी लगा कि वह बुरा न मान जायं। मगर वह मुस्कराईं, कहा :

‘‘तो मेरी बदनामी हुजूर तक पहुंच चुकी है ! खैर, इसे रखिए। आप अगर शौक करते हों तो लाऊं भीतर से !’’

‘‘मैं कभी-कभी पीता जरूर हूं लेकिन काम के समय कभी नहीं।’’

‘‘मेहतरों से बातें पूछना आपका काम है ?’’

‘‘जी हां, इस समय तो यही है।’’

‘‘क्या सरकारी काम है ?’’

‘‘नहीं अपना। सामाजिक।’’

‘‘इससे क्या होगा ?’’

‘‘यह काम मैं अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए कर रहा हूं।’

‘‘हां ! एक बात बतलाइएगा बाबूजी, आप मन से कितने मेहतर बन चुके हैं अब तक ?’’

प्रश्न का मर्म पहचान कर भी मैं उसे टाल गया और अभिनय-भरी हंसी हंसकर चतुराई से कहा : ‘‘किसी का मल-मूत्र साफ कर सकता हूं। टोकरा उठाकर चल नहीं सकता।’’

श्रीमती निर्गुनियां सामने सोफे पर टांग पर टांग चढ़ाये बैठी बिल्कुल मास्टराना अन्दाज में सवाल पर सवाल कर रही थीं। बात कहते हुए मेरी दृष्टि उनकी नजरों पर सधी थी। ठहरी-सी नीली पुतलियां जिनमें हिप्नोटाइज करने की ताकत है, मेरी दृष्टि का निशाना थीं। नीले, भूरे या सुनहरे रंग की पुतलियाँ हिन्दुस्तान में कम ही लोगों की होती हैं। ये नीली आंखें खींचती और दुरदुराती एक साथ हैं। यही इनका आकर्षण है। खैर, मेरे अनुमान से इनकी आयु अब पैंसठ सत्तर की लपेट में होगी। जवानी में बहुतों को अपनी तरफ खींचा होगा। श्रीमती निर्गुनियां भी लगातार मेरी ओर ही देख रही थीं। हम दोनों ही शायद एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। सहसा मुझसे पूछा: ‘‘मेरे हाथ का बनाया खाना खा लेंगे ?’’

‘‘आसान सवाल है।’’

‘‘मेरे साथ एक थाली में खा लेंगे ?’’

‘‘अगर आवश्यकता पड़ी तो निःसंकोच।’’

‘‘जैसे समाज की लेडियों के साथ कभी पार्टियों में पीते होंगे वैसे मेरे साथ भी पी सकेंगे ?’’

‘‘क्यों नहीं !’’

‘‘एक गिलास में ?’’

‘‘वह उम्र अब बीत गई।’’

श्रीमती निर्गुनियां कुइन विक्टोरिया की तरह हल्के से हंसी, फिर कहा, ‘‘मैंने सोचा, शायद हुजूर ने मेहतरानियों से इश्क लड़ाने के लिए ही इस काम का लबादा ओढ़ा हो।’’

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रचनाएँ
अमृतलाल नागर के बहुचर्चित उपन्यास
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अमृतलाल नागर हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनका जन्म '(17 अगस्त, 1916 - 23 फरवरी, 1990) उन्हें भारत सरकार द्वारा १९८१ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर के भाषा सहज, सरल दृश्य के अनुकूल है। भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक शैली का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। मानस का हंस', 'खंजन नयन', 'नाच्यौ बहुत गोपाल', 'बूंद और समुद्र', तथा 'अमृत और विष' जैसी बहुचर्चित और पुरस्कृत-सम्मानित कृतियों की श्रृंखला में यशस्वी उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने इस उपन्यास में 'बिखरे हैं |
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शतरंज के मोहरे भाग 1

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होशियार ! होशियार हुइ जाओ होऽजुम्मन काका ! फौजैं आवति हयिं।’’ दो फ़र्लाग दूर से गोहराते और दौड़कर आते हुए युवक का सन्देश सुनकर गढ़ी रुस्तमनगर की बाहरी बस्सी में कुहराम मच गया। उड़ती ख़बर आनन-फानन में

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शतरंज के मोहरे भाग 2

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उसके बाद तीनों कुछ दूर तक खामोश चले गये। रुस्तअली का चेहरा विचारों से भारी होकर झुक गया था। उसकी माँ ने अकसर उसकी पत्नी की बदचलनी के बारे में शिकायतें की थीं। उसके सौतले भाई फतेअली के ख़िलाफ़ उसकी माँ

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नाच्यौ बहुत गोपाल

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भूख

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 बर्मा पर जापानियों का कब्जा हो गया। हिन्दू स्तान पर महायुद्घ की परछाई पड़ने लगी।  हर शख्स के दिल से ब्रिटिश सरकार का विश्वास उठ गया। ‘कुछ होनेवाला है, -कुछ होगा !’-हर एक के दिल में यही डर समा गया। 

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बिखरे तिनके

25 जुलाई 2022
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गुरसरन बाबू का मन ऊंचा-नीचा हो रहा है। साढ़े आठ बज रहे हैं। रघबर महाराज के यहाँ बिल्लू को भेजा है कि बुला लाए। पता नहीं...कनागत में बाम्हन और चढ़ती उमरिया में लौंडियों के नक्शे नहीं मिलते हैं।–स्साले 

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खंजन नयन

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वृन्दावन से लगभग दो कोंस पहले ही पानीगांव के पास वाले किनारे पर खड़े चार-छह लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला-हिलाकर अपने पास बुला लिया :  ‘‘मथुरा मती जइयों। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं

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एकदा नैमिषारण्ये

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‘अरी मैया तेरे पायँ लागूँ मोकूँ क्षमा करदे, जाइबे दे। मेरो बड़ो अकाज ह्यै रह्यै है। नारायण तेरो अपार मंगल  करेंगे।’’  लेकिन हाथ में साँट लेकर खडी़ हुई हट्टीकट्टी लंबी-तड़ंगी तुलसी मैया की पुजारिन, मह

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सुहाग के नूपुर

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ब्राह्म मुहूर्त में ही कावेरीपट्टम के नौकाघाट की ओर आज विशेष चहल-पहल बढ़ रही है। सजे-बजे सुंदर बैलोंवाले शोभनीय रथों, पालकियों और घोड़ों पर नगर के गण्यमान्य चेट्टियार, प्रौढ़ और युवक, कावेरी नदी के नौ

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‘एकदा नैमिषारण्ये’ और ‘चक्रतीर्थ’ के कथानक एवं सामाजिक संदर्भ देश-काल की दृष्टि से लगभग एक से हैं। अमृतलाल नागर ने ‘चक्रतीर्थ’ के सृजन में जैसे कौशल का प्रदर्शन किया है। उससे हिन्दी उपन्यास की श्रीवृद

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पीढ़ियां भाग 2

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वजीरगंज थाने से कुछ ही दूर पर बने ‘मुश्ताकविला’ के सामने हसन जावेद और युधिष्ठिर टण्डन के ‘वेस्पा’ और ‘विजयसुपर’ स्कूटर आकर रुके। गली में हरे-भरे लॉन और पेड़-फूलों सहित यह जगह युधिष्ठिर को अनोखी और आश्

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करवट

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एकऐन कानों के पास अलार्म इतनी जोर से घनघना उठी कि कानों ही के क्या, मेरे अन्तर तक के पर्दे दर पर्दे हिल उठे। आँखें खोलते ही माया का हँसता मुखड़ा देखा, बोली :  ‘‘उठिये शिरीमान्, उमर के साठ बज गये।’’

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अमृत और विष भाग 2

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