‘अरी मैया तेरे पायँ लागूँ मोकूँ क्षमा करदे, जाइबे दे। मेरो बड़ो अकाज ह्यै रह्यै है। नारायण तेरो अपार मंगल करेंगे।’’
लेकिन हाथ में साँट लेकर खडी़ हुई हट्टीकट्टी लंबी-तड़ंगी तुलसी मैया की पुजारिन, महर्षि नारद की इस गिड़गिड़ाहट भरी चिरौरी पर पत्थर से बोल मारती हुई बोलीः ‘‘मैंने तुमसे एक बार कह दीनी म्हाराज, दस बार कह दीनी के चबड़-चबड़ अब बन्द करो अपनी, जामें कछु लाभ नायँ धरो-अरी मौड़ियों, खड़ी-खड़ी म्हौ का देखो हौ मेरो, छीनो इनकी बीना और खड़ाऊँ। और जो ये न पहरें चोली घँघरिया तो मार-मार के इनको भुरतो बनाय डारो के हाल।’’
पन्द्रह गोरी-साँवली कलाइयाँ हवा में कोड़े लहकाते हुए लचकने लगीं। नारदजी सबके हाथ जोड़ने लगे कहाः ‘‘अरे पहरूँ हूँ पहरूँ हूँ, मेरी मैयो, मेरी मैयो की मैयो। मोपै साँटे मती बरसैयो, मेरे रोम-रोम में नारायण वासुदेव का निवास है। विन्हें चोट लग जाएगी। मैं तिहारी सबकी हा हा खाऊँ, चिरौरी करूँ, पैयाँ परूँ।’’
परंतु दो-चार करारे कोड़े उनकी देह पर बरस ही गये। नारद की चिरौरियों से वे सोलहों तुलसी-वृन्दाएँ, विशेष रूप से मुख्य पुजारिन एक क्षण के लिए भी पसीजने को तैयार न थीं पिछले दो बसंत बीत गये। पुरुष उनके इलाके में आया ही न था। पुजारिन सुहाग सुख की भूखी थीं। वह नारद को मुक्त करने की बात तक सुनने को तैयार न थी। काम वृन्दावन के इस पोखर में स्नान करती हुई नग्न वृन्दाओं को देख लेने वाले पुरुष को फिर स्त्री बनकर ही रहना पड़ता है। पहले किसी काल में वृन्दाएँ सामूहिक रूप से ऐसे पुरुष को एक वसन्त ऋतु से दूसरी वसन्त ऋतु तक पति रूप से भजती थीं। फिर उससे सन्तान पा लेने के बाद वे उसका वध कर दिया करती थीं। उनका मुंड धरती में गाड़कर उस पर तुलसी का बिरवा बो दिया करती थी। मुख्य पुजारिन ने ऋतुमती होने तक विधवाओं की तरह वे शोक के दिन बिताती थीं। तीर्थ में स्नान करने के बाद वे विधवा से फिर क्वारी हो जाया करती थीं। लेकिन अब इस प्रथा में इतना परिवर्तन अवश्य आ गया था कि वह पुरुष की पति रूप में सेवा करने की बजाय वे उससे दासवत् पूरे वर्ष भर अपनी सेवा कराती थीं। पुजारिन का उस पर विशेष अधिकार रहता था। पूर्ण पितृ-सत्तात्मक समाज से अपने इलाके में घुस जाने वाले नर को दण्डस्वरूप नारी के वेष में रखकर वे उसके अहम को अपने अंकुश में रखती थीं। अंधेरे में नारी-वृन्द पुजारिन के आदेशानुसार उस बन्दी पुरुष का उपभोग तो करता था, पर उसे नग्न देख लेना उसके लिए घोर पाप था –और उस पाप का दण्ड था मरण-स्त्री का नहीं पुरुष का। ‘‘यह पुरुरवा और उर्वशी के काल से होता चला आया है। कोई आज की रीति तो है नहीं।’’ यह उनका सीधा तर्क था।