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शतरंज के मोहरे भाग 1

25 जुलाई 2022

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होशियार ! होशियार हुइ जाओ होऽजुम्मन काका ! फौजैं आवति हयिं।’’

दो फ़र्लाग दूर से गोहराते और दौड़कर आते हुए युवक का सन्देश सुनकर गढ़ी रुस्तमनगर की बाहरी बस्सी में कुहराम मच गया। उड़ती ख़बर आनन-फानन में हाट और महलों तक पहुँच गयी। गढ़ी के दोनों फाटकों की खिड़कियाँ बन्द हो गयीं। 

अबुलमुज़फ़्फ़र मुईज़ुद्दीन शाहेज़माँ गाज़ीउद्दीन हैदर शाहे-अवध के नाज़िम की फ़ौजें तहसील वसूलयाबी के लिए दौरे पर निकली हैं इधर से गुज़र रही हैं। रूस्तमनगर के नवाब मुहब्बत ख़ाँ को पहले ही इसकी ख़बर मिल चुकी थी। इस समय उनके ख़ास कमरे में नाज़िम साहब के स्वागत के लिए सलाह-मशविरे होने लगे, ख़िदमतगारों की फ़ौज बारहदरी की सफ़ाई और सजावट में जुट गयी, मुहब्बत खाँ की नौकरी में रहने वाली तवायफ़ें अपनी कंघी-चोटी और बनाव-सिंगार में मसरूफ़ हुई बावर्चीख़ाने का इन्तज़ाम गरमाने लगा।

गढ़ी के फाटक पर बाहरी बस्ती के रहने वाले ग़रीब किसानों, खेतिहारों, चमारों की स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े अपनी गृहस्थी की लायी जा सकने वाली वस्तुओं की गठरी-मुठरी लादे भीड़ लगाये खडे थे और फाटक खोल देने के लिए भीतर के सिपाहियों से चिरौरी कर रहे थे। पिछली बार जब नाज़िम की फ़ौजें इस इलाक़े से गुज़री थीं तब उसके सिपाहियों ने बस्ती उजाड़ने के अतिरिक्त स्त्रियों और बच्चों से कड़ी बेगार भी करवायी थी, कई निर्धन गृहलक्ष्मियों की अनमोल इज़्जत को बेभाव कर दिया था। 

काले-भूरे बादलों के घनघोर घिराव से आकाश जुट रहा था, धरती पर उसकी मनहूसियत फैल रही थी, नाज़िमी सेनाओं की आहट से गाँव की हवा तक को मानो साँप सूँघ गया था। 

देखते-देखते ही अन्तरिक्ष के एक कोने को धूल के बादल संकुचित करने लगे। 

दूर सुनाई पड़ने वाली घोड़ों की टापें मानों बाहरी बस्तीवालों के कलेजों पर पड़ने लगीं। बाहरी बस्ती के पुरुष आनेवाली परिस्थिति के प्रति आतंक-भरी मौन उत्सुकता लिये एक जगह बटुरकर खड़े थे। दूर, गढ़ी के फाटक के बाहर खड़ी, गिड़गिड़ाती गुहराती अपनी घरवालियों और बाल-बच्चों को देख-देखकर गूँगी चिन्ता और विवशता उन्हें कातर बना रही थी। गाँव पर हमला होने की कोई सम्भावना न थी, रुस्मनगर के नवाब मुहब्बत ख़ाँ लखनऊ के दरबार में आते थे, शाह ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के नवाब आग़ामीर से उनका मेलजोल था, नाज़िम को भी नज़र नियाज़ से सन्तुष्ट रखा करते थे-यह सब होते हुए भी गाँव की ग़रीब प्रजा के लिए स्वयं उनके ही बादशाह की फ़ौजों का आना प्रलय के आगमन के समान था। 

सहसा फाटक खुले। नवाब साहब की ओर से बख़्शी नूरमुहम्मद नाज़िम साहब की अगवानी के वास्ते पालकी पर बाहर जा रहे थे फाटक के दोनों ओर लगभग तीन फुट ऊँचे चबूतरे पर बने तिदरे दालानों में खड़े हुए धनुषबाण और बन्दूक़धारी बारह सिपाहियों ने झुक-झुककर बख़्शी को सलाम किया। आठ सिपाही उनकी पालकी के दोनों ओर चल रहे थे। प्रजा ने बख़्शी की और नवाब साहब की ख़ैर मनायी, शरण पाने के लिए गुहार मचायी। बूढ़े बख्शी जी ने कुछ सोचकर उन्हें अन्दर जाने की आज्ञा दे दी, साथ ही फाटक वाले सिपाहियों को यह हिदायत भी दी कि उन्हें गठरी-मुठरियों समेत मवेशीखाने के अहाते में बन्द रखा जाए जिससे नाजिम साहब की सवारी आने के समय बाज़ार की सड़क पर बदइन्तज़ामी न फैल सके।

देखते-देखते ही नाज़िम की फ़ौजें टिड्डिदल-सी आ पहुँचीं। हाथी, घोड़े, तोपखाने के बैल फ़र्रश ख़ालासी, चोबदार, साईस, फ़ीलवान, बाज़ारिये, कारकुन, मुंशी, दारोग़ा, सिपाही आदि सब मिलकर लगभग साढ़े तीन सौ प्राणियों का क़ाफिला गाँव के एक ओर फैल गया। इतने बड़े मजमे के हड़बोंग, हिनहिनाहट और चिंघाड़ों से आसमान गूँजने लगा। नाजिम साहब, नवाब साहब के मेहमान न होकर गढ़ी में चले गये, सेना मनमानी हो गयी। 

गन्ने के खेतों में फ़ीलवान अपने हाथियों को धँसाने लगे, दूसरे खेतों की ओर घोड़ों के झुण्ड बढ़े, बैलों के कारखाने और चूल्हे जलाने के लिए लकड़ी की तलाश में निकले सिपाहियों ने बाहरी बस्ती के घरों पर छापा मारा। घरवालों, खेतवालों के प्राण खिंचने लगे। जिधर देखो उधर ही गाँववाले फ़ौजवालों के पैर पकड़-पकड़कर हा-हा खा रहे थे। सिपाही, फ़ीलवान, साईस और शाही बैलों के रखवाले महमूद ग़ज़वनी और नादिरशाह बने अकड़ के मारे आसमान में अपना रुख़ मिलाते घुड़कते और धकियाते थे। खेत न उजाड़ने के लिए सिपाहियों को रिश्वतों से गरमाया जा रहा था। पैसे वालों के खेत थोड़े-बहुत ही रौंदे गये परन्तु बे-पैसे वालों की कोई सुनवाई न हुई। उन्होंने मारें खायी और घरों में घुसकर बाँस-बल्ली, धरन, हल, किवाड़ जो भी सकड़ी का सामान मिला उसे कुल्हाड़ियों से काटकर, अधिकतर घरवालों से ही कटवा, उनके सिरों पर ही लदवाया और ले चले। बैलों के रखवाले किसानों के घरों का भूसा ढोने लगे, फूस के छप्पर तक न छोड़े। रुस्तमनगर के बाहरी भाग में आबाद तीस-चालीस घरों की बस्ती और उनमें बसने वाले छोटी जातियों के गरीब लोग देखते-देखते ही अधमरे ही अधमरे हो गये। 

सैनिकों में बदमस्ती फैल रही थी। लूट के ज़ोम से भरे ठहाके, भद्दे मज़ाक अफ़ीम, गाँजा, चरस, भंग और सस्ती शराबों के दौर शुरू हुए; बहुत से सिपाही बाज़ारियों को घेरकर खाने-पीने का सामान ख़रीद रहे थे, दुनिया भर के आये-गये मसले, अपने-पराये दुख-सुख जगह-जगह मनमिलाव की टोलियों में कर रहे थे। 

घुड़सवार अब्बास कुलीबेग का साईस रुस्तमअली अपने दो मित्रों को साथ लेकर गढ़ी की तरफ़ चला। ढाई साल बाद वह अपने घर जा रहा था, अपने ही गाँव में नाज़िम साहब का पड़ाव पड़ने के कारण उसे अकस्मात् यह अवसर हाथ लग गया। वह बेहद खुश था। दोनों दोस्तों के कन्धे पर बांहें फैलाकर रुस्तमअली बड़ी मस्ती में गा उठाः ‘‘मोरे उठत जोबनवा में पीर पिया घर बेगि पधारो।’’ 

घसीटे ख़ाँ की सुरीली नज़रों से रस टपक पडा, मुसकराकर अपने दूसरे साथी से कहा, ‘‘देख रहे हो नब्बू इनके नक्शे। आज के गये अब ये आठ रोज़ बाद ही घर लौटेंगे।’’

नब्बू और रुस्तम की प्यारभरी नज़रें मिली, एक आह फेंकते हुए मुसकरा कर नज़म बोला, ‘‘देखो, घसीटे को जलन हो रही है।’’ 

‘‘जलन तो खैर नहीं हो रही, मगर बच्चों की आय मुझे भी हो आयी। चार साल हो गये उन्हें देखे।’’ घसीटे ख़ाँ की नज़रें ध्यान में खो गयीं। 

नब्बू का चेहरा गम्भीर हो गया, फिर धीरे से कहा, ‘‘अपने ऊपर ख़ाँ-मख़ाँ जब्र करते हो। आख़िर बीती कब तक बिसारोगे-तुम्हें अपने बच्चों का ख़याल करना चाहिए।’’ 

घसीटे चुप और गम्भीर रहा, उसे देख फिर बात फेरते हुए, नब्बू ने कहा, और तुम्हारे कितने बच्चे हैं रुस्तम ?’’ 

‘‘दो। एक लड़का है तीन साल का, और लडकी क़रीब डेढ़ बरस की होगी।’’ 

‘‘लड़की की तो अभी सूरत भी नहीं देखी होगी तुमने।’’ 

‘‘अम्माँ लड़कियों को क्या देखना।’’ घसीटे ख़ाँ ने कहा। 

‘‘देखा रुस्तम, ठाकुरों के गाँव में रहने की वजह से बेरहम हो गया है। कम्बख़्त क्या रिवाज़ है उनमें भी, पैदा होते ही लड़कियों को मार डालते हैं।’’

‘‘अमाँ अच्छा ही करते हैं। औरत से बढ़कर बदज़ात कोई नहीं, ये नागिनें होती हैं जितनी ख़ूबसूरत उतनी ही ज़हरीली भी।’’ घसीटे ख़ाँ के चेहरे पर नफरत की कड़ी रेखाएँ उभर आयीं। बात के तैश में वह दोनों मित्रों से अलग हटकर चलने लगा। 

रुस्तम ख़ाँ पलभर ठिठककर उसे देखने लगा, फिर सधे स्वर में एकाएक कहा, ‘मैंने एक बात सुनी है बहुत दिनों से पूछना चाहता था-’’ 

‘‘न छेड़ यार। जाने दे।’’ नब्बे ने रुस्तम की बाँह दबायी। 

‘‘मेरी बीवी के बारे में सुना है ?’’ 

‘‘हाँ।’’ 

‘‘सच सुना है। मैंने उसको और उसके आशिकों को कुल्हाड़ियों से काट डाला......थूः।’’

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रचनाएँ
अमृतलाल नागर के बहुचर्चित उपन्यास
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अमृतलाल नागर हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनका जन्म '(17 अगस्त, 1916 - 23 फरवरी, 1990) उन्हें भारत सरकार द्वारा १९८१ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर के भाषा सहज, सरल दृश्य के अनुकूल है। भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक शैली का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। मानस का हंस', 'खंजन नयन', 'नाच्यौ बहुत गोपाल', 'बूंद और समुद्र', तथा 'अमृत और विष' जैसी बहुचर्चित और पुरस्कृत-सम्मानित कृतियों की श्रृंखला में यशस्वी उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने इस उपन्यास में 'बिखरे हैं |
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बिखरे तिनके

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